नैतिक मूल्य केंद्रित राजनीति का लक्ष्य
हाल ही में 19 विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं के बीच बना संवाद देश की राजनीति में नैतिकता केंद्रित राजनीति फिर से बहाल करने वाले प्रयासों का प्रतिनिधित्व करता है। ऑनलाइन हुई वार्ता के अंत में पारित हुए प्रस्ताव के मुताबिक : ‘विपक्षी दल देश में धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक एवं जनतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा को पूरी ताकत लगा देंगे।’ विचारों का यह मिलन वोट की राजनीति वाले समीकरण और राष्ट्र के मौजूदा मिजाज से प्रेरित है, जिसे लोकतंत्र को संबल देने और प्रतिबद्धतापूर्ण संवैधानिक मूल्यों को जीवंत बनाए रखने के प्रयोजन से राजनीतिक दलों में बृहद एकता बनाने की दरकार है।
मौजूदा सरकार का समाज में फूट डालने वाला एजेंडा संविधान की प्रस्तावना से उलट है, जिससे साझी नियति में बराबर के हकदार माने गए नागरिकों के आपसी भाईचारे में कमी आने से सामाजिक दायरे में सिकुड़न हुई है। पाल-पोस कर बड़ी की गई सहिष्णु सहअस्तित्व की संस्कृति में हुआ क्षरण हमारे लोकतंत्र के लचीलेपन पर सवाल उठाता है। केवल बहुसंख्यक समुदाय के वोटों को ध्यान में रखकर संविधान में दी गई गारंटियों की व्याख्या करना संविधानवाद के मूल सिद्धांतों को नकारना है।
निरंतर दमन और विपक्ष को चुप कराने सहित, सोची-समझी रणनीति से सिविल सोसायटी संगठनों को डराकर, लोकतांत्रिक संस्थानों की अनदेखी करके हमारे राष्ट्रीय घोषणापत्र में दिए उदारवाद के वादों पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। संवैधानिक शुचिता, जिसे जनता की तहकीकात करने की शक्ति और मूल स्वतंत्रता के विस्तार के संदर्भ में समझना होगा, उसके प्रति दर्पपूर्ण हिकारत भरा रवैया रखना एक संवेदनशील लोकतंत्र बनाने के वादे को झुठलाता है। उलटा, हमें लोकतंत्र की व्याख्या ऐसी भाषा में प्रस्तुत की जा रही है, जिसमें गणतांत्रिक मूल्यों के व्याकरण का कॉमा-पूर्ण विराम तक नहीं है।
‘नाराज़गी व्यक्त करने का हक’ जो किसी सुचारु लोकतंत्र का अहम अवयव होता है, उसे स्वयंभू चौकसी दलों और सरकारी सशस्त्र बलों का इस्तेमाल कर ध्वस्त करके दफन कर दिया गया है। अन्यायपूर्ण कृषि कानूनों पर सवाल उठाने वाले आंदोलनकारी किसानों और प्रश्न पूछने की जुर्रत करने वाले अन्य बेगुनाह नागरिकों पर ठोके गए राजद्रोह के मुकद्दमे, राजनीतिक विरोधियों और असहमति व्यक्त करने को आतंकियों के लिए बनाए गए कठोर राष्ट्रीय कानूनों का इस्तेमाल करते हुए बिना जमानत जेल में डालने जैसे कृत्यों ने कई कानूनों की वैधता को ही खत्म कर डाला है। प्रशासन की ज्यादतियों पर अंकुश लगाने को संसद की निष्क्रियता ने उसके द्वारा कार्यपालिका की नैतिकता बनाए रखने के दावे का अधिकार खो दिया है।
लोकतंत्र की यात्रा, जिसकी जड़ में सामाजिक न्याय और मानव गरिमा कायम रखना है, को अवरुद्ध किया जा रहा है। एक मुक्त राष्ट्र, जिसने कभी नरम शक्ति के आधार पर ‘विश्व गुरु’ बनने की आकांक्षा रखी थी, वर्ष 2014 के बाद एक ‘चुनी हुई अधिनायकवादी सत्ता’ का ठप्पा लगवाने को अभिशापित है (स्वीडन आधारित वी-डेम संस्थान की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक)। मानव स्वतंत्रता सूचकांक-2020 में भारत 162 देशों में 111वें स्थान पर है, विश्व प्रेस आजादी सूचकांक में 180 देशों में हम 142वें पायदान पर हैं। वे लोग जो छद्म राष्ट्रवादी जुमलेबाजी की आड़ लेकर स्वतंत्र नामी-गिरामी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की पड़ताल को झुठलाना चाहते हैं, उन्हें वास्तविकता जानने को केवल अपने आसपास नजर डालने की जरूरत है। विभिन्न तरीकों से नागरिकों की निजता पर हमला हो रहा है, इसमें पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर शामिल है, असहज लगने वाले लोगों की निगरानी करना आम हो गया है, यह सब सरकार के संवैधानिक शुचिता के प्रति अपनाए रवैए का एक संकेत मात्र है।
बढ़ती बेरोजगारी और गरीबी के बोझ तले जनता का अधिकांश हिस्सा दब चुका है। पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर के अध्ययन के मुताबिक देश में गरीबों की संख्या में लगभग 7.5 करोड़ का इजाफा हुआ है, अकेले वर्ष 2020 में मध्य वर्ग की संख्या में 3.2 करोड़ की कमी हुई है। गरीब, जिनकी रूहें जख्मी हुई पड़ी हैं और आजादी पर बेड़ियां डल गई हैं, इन शब्दों में अपनी व्यथा व्यक्त करने को पहले से ज्यादा हकदार हैं :-
अटका कहां स्वराज?/ बोल दिल्ली!/ तू अब क्या कहती है/ तू रानी बन गई,/ वेदना जनता क्यूं सहती है?
यह साझा प्रयास स्वतंत्रता में रुकावट डालने और शक्ति केंद्रों का जनता के दुख-दर्द के प्रति असंवेदनशील बनने पर तंज कस रहा है। साथ ही मुखर शब्द मौजूदा संकटग्रस्त काल की बानगी दिखाते हैं। नागरिक स्वतंत्रता के संकट का व्यापक बोध और परिणामस्वरूप उपजी वेदना को जावेद अख्तर ने अपनी झकझोरने वाली पंक्तियों में व्यक्त किया है :-
‘किसी का हुक्म है/ दरिया की लहरें,/ जरा यह सरकशी कम कर लें/ अपनी हद में ठहरें,/ उभरना फिर बिखरना/ और बिखरकर फिर उभरना,/ गलत है यह उनका हंगामा करना,
किसी को यह कोई कैसे बताए,/ हवाएं और लहरें/ कब किसी का हुक्म सुनती हैं,/ हवाएं हाकिमों की मुट्ठियों में,/ हथकड़ियों में, कैदखानों में नहीं रुकतीं,
ये लहरें रोकी जाती हैं,/ तो दरिया कितना भी पुरसुकून हो,/ बेताब होता है, और इस बेताबी का/ अगला कदम सैलाब होता है।’
स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हो रहे सतत आघात से बनी बेचैनी के संदर्भ में विपक्षी दलों का मेल निरंकुश बनी अधिनायकवादी ताकत को पीछे धकेलने के लिए संयुक्त जिम्मेवारी का अहसास जाग्रत कराने का स्वागतयोग्य ऐलान है। आजादी, समता और न्याय जो हमारे प्रिय लोकतंत्र का अभिन्न अंग हैं, उन्हें बरकरार रखने के लिए आगे लंबी और कठिन डगर है और यह संग्राम का नेतृत्व करने वालों के लिए इम्तिहान होगा।
स्पष्ट है कि कांग्रेस अध्यक्ष की पहल को राजनीति की उन प्रक्रियाओं और रीतियों के सहयोग की जरूरत है, जिससे विपक्ष में अपनी हैसियत जानने हेतु आशा और विश्वास की प्रेरणा जगे। यह भी साफ है कि जो स्वतंत्रता के हामी हैं, वे इतिहास में सही पाले में गिने जाएंगे और जो यह सोचकर ऊहापोह में बने रहेंगे कि विपक्ष आपसी होड़बाजी की बाध्यताओं के कारण नेतृत्व देने में असमर्थ है, उन्हें इतिहास से सीखना चाहिए कि समय आने पर ‘ताज सदा सही सिर चुनने की राह निकाल लेता है’। यह क्षण चाहे पास है या दूर, यह राष्ट्र पुनर्निर्माण की पुनीत कार्ययोजना में विपक्षी नेताओं के नि:स्वार्थ और अडिग यत्नों पर निर्भर करेगा। हम जानते हैं कि यह काम स्वतंत्रता की रक्षार्थ होगा ताकि राष्ट्र की दमित आत्मा को अभिव्यक्ति मिल पाए। जो अभी भी पसोपेश में हैं उनके लिए फिर से कवि की सवाल उठाती पंक्तियां हैं :-
तकाज़ा है मौजूं का, तूफान से सीखो,/ कब तक चलोगे किनारे-किनारे।
लेखक पूर्व केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।