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अम्मा के होने का अहसास

06:55 AM Aug 25, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

सरस्वती रमेश
ऑफिस से लौटते हुए शेखर की नजर उस बुढ़िया अम्मा पर रोज ही पड़ जाती। पिचके, पोपले गाल, सफेद बाल और कमर कुछ दोहरी हुई। उसके हाथों में मांस लटकता हुआ दिखाई पड़ता था। सूती धोती में चिपक कर उसकी देह का कंकाल बाहर झांकने लगता।
वह सड़क किनारे कभी अमरूद, कभी आम तो कभी लीची बेचती थी। शेखर ने कई बार उससे फल खरीदे भी थे। उसे बुढ़िया अम्मा पर बहुत तरस आता। एक तो फल तौलते हुए उसके हाथ कंपकपाते थे, दूसरे उसके चेहरे पर कोई उदासी हर वक्त तारी रहती। उसकी रेहड़ी के बगल ही उसका चिकना बांस का डंडा पड़ा रहता। शेखर उसे बड़ी देर तक ध्यान से देखता। जब तक वह सौदा तौलती, शेखर की निगाहें उसकी झुर्रियों के बीच टहलती रहतीं।
एक दिन अमरूद खरीदते हुए शेखर ने कहा, ‘अम्मा, बारिश होने वाली है। अब घर जाओ।’
‘चली जाऊंगी बेटा। अमरूद तो सब बिक जाए।’
‘कहां रहती हो तुम?’
‘पांच कोस दूर बेटा। बलरामपुर में चंदूलाल की बगिया के पास ही मेरी झोपड़ी है।’
‘अच्छा अम्मा कितने बरस की हुई तुम।’
‘इहे अस्सी से कम नहीं होगा बेटा। आज की नहीं हूं बेटा। हमारे जमाने में ई सड़क, मोटर गाड़ी कुछ नहीं था। बैलगाड़ी चलती थी। नहीं तो एक्का।’ अम्मा ने अमरूद तौलते हुए कहा।
‘तब तो अब तुमको आराम करना चाहिए।’ शेखर ने कहा।
‘आराम करूं तो खाऊंगी का।’ अम्मा ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहा।
‘बच्चे नहीं हैं क्या। वे नहीं देते खाना?’
‘बेटा रहता तब न। दोनों बेटी तो अपन घर दुआर गई। कई बरस पहले ही मालिक को भगवान बुलाय लिया। अब तो कोई नहीं रहा। ई पेट की खातिर जाने कब तक घिसटना पड़ेगा।’ अम्मा ने दुख और अफसोस भरे शब्दों में कहा।
अम्मा की बात सुनकर शेखर को अपनी मां याद आ गई। उसकी मां बचपन में ही चल बसी थीं। तब से उसने कभी मां का प्यार नहीं जाना। और यहां एक मां इस तरह जीवन काट रही है। उस दिन पूरे रास्ते वह अम्मा के बारे में ही सोचता रहा।
अगले दिन शेखर की बेटी निम्मी का जन्मदिन था। शेखर बहुत खुश है। मीना ने खीर पूरी और मटर पनीर बनाया है। शाम को मोहल्ले भर के बच्चों की दावत है। लेकिन शेखर कुछ ऐसा करना चाहता है कि उसकी बेटी का जन्मदिन यादगार बन जाये। तभी उसे बुढ़िया अम्मा का ख्याल आया। उसने पत्नी से कहा, ‘मीनू, जिस बुढ़िया अम्मा से मैं अमरूद खरीद कर लाता हूं, वह अकेली रहती है। क्यों न निम्मी के जन्मदिन पर हम उन्हें अपने घर खाने पर बुलाएं। अम्मा को भी अच्छा लगेगा और मुझे भी।’
‘बुला लो। इसमें इतना सोचने की क्या बात है। एक दिन अम्मा को खिलाकर समझूंगी सास को खिला रही।’ मीना ने कहा।
शेखर ने बाइक निकाला और चल पड़ा अम्मा को बुलाने। मगर ये क्या? आज तो अम्मा की रेहड़ी ही नहीं लगी है। वह सोच में पड़ गया। अम्मा ने बताया था कि वो बलरामपुर रहती है। तो क्यों न वहीं चलकर देख लिया जाए। अभी शाम होने में समय है।
शेखर ने अपनी बाइक बलरामपुर की तरफ मोड़ दी और स्पीड में चल पड़ा। पूछते-पूछते वह चंदूलाल की बगिया और फिर अम्मा के घर पहुंच गया। ‘अम्मा! उसने दरवाजे पर से आवाज लगाई।’
‘कौन है?’
‘मैं हूं शेखर।’
अम्मा को समझ में न आया तो वह लाठी टेकती बाहर निकल आईं।
‘अरे बेटा तुम! का हुआ ? इहां कइसे?’
‘आज तुम अमरूद बेचने नहीं आई अम्मा।’
‘हां बेटा, तबियत कुछ ठीक नहीं है। रात से ही ताप चढ़ा है। जरा भी उतर नहीं रहा।
शेखर ने अम्मा का माथा छुआ। माथा तप रहा था।
‘कुछ दवाई ली अम्मा।’
‘बेटा डाकडर के पास जावे की हिम्मत ना हुई।’
‘अच्छा चलो, मैं तुमको दवाई दिला देता हूं।’
‘अरे नहीं बेटा। ठीक हो जायेगा। ना भी हुआ तो हमरे पीछे कौन रोवे वाला है।’
‘कैसी बात करती हो अम्मा। आओ मेरी गाड़ी पर बैठो।’
शेखर ने हठ कर अम्मा को बैठा लिया। फिर उन्हें डॉक्टर के पास ले गया। दवाई दिलाकर वह उन्हें अपने घर ले आया। अम्मा असमंजस में थी। मगर शेखर उनकी हर आशंका को अपनी आत्मीयता से दूर कर देता। अम्मा उसे विस्फारित नजरों से देखती रह जातीं।
‘जब तक ठीक न हो जाओ यहीं रहना है।’ शेखर ने साधिकार कहा तो अम्मा की आंखें डबडबा आईं।
मीनू ने फौरन उनके रहने की व्यवस्था की और उनके लिए गैस पर दलिया चढ़ा दी।
नाश्ता कर उन्होंने दवाई ली और आराम करने लगीं। उन्हें लग रहा था शेखर उनका ही बेटा है। शायद पिछले जन्म का। नहीं तो इस तरह कोई अनजान बुढ़िया को भला अपने घर बुलाता है। मन में घुमड़ते प्रश्नों के साथ वो नींद में चली गईं।
हफ्ते भर में वह बिल्कुल चंगी हो गईं। एक सुबह उन्होंने शेखर से कहा, ‘बेटा अब मैं ठीक हो गई हूं। अब हमको जाए दो।’
उनके जाने की बात सुनकर शेखर उदास हो गया।
मीनू ने शेखर को इशारा करके अपने पास बुलाया और धीरे से कहा, ‘क्या अम्मा कुछ दिन और नहीं रुक सकतीं।’
शेखर ने आग्रह किया, ‘अम्मा, कुछ दिन और रुक जाओ न। यहां तुमको कोई तकलीफ है क्या?’
‘तकलीफ नहीं है बेटा। लेकिन जाय के तो पड़ेगा न।’
‘जब बेटा कहती हो तो बेटे के घर रहने में हर्ज ही क्या है।’ शेखर ने कहा तो अम्मा से कुछ कहते न बना। अम्मा कुछ दिन और रुक गईं।
जाड़े के दिन थे। अचार मुरब्बे डालने का वक्त। मीनू नींबू, सिंघाड़े और गोभी का अचार डालना चाहती थी। मगर उसे डर था कहीं पिछली बार की तरह इस बार भी अचार में फफूंदी न लग जाये। अम्मा को जाने कैसे इस बात की भनक लग गई। कहने लगीं, ‘मीनू बिटिया लाओ हम तुम्हार अचार डार देवे।’
‘अम्मा आप क्यों परेशान होती हैं। मैं डाल लूंगी।’ मीना ने हिचकते हुए कहा।
अम्मा मुस्कराकर बोली, ‘सारी परेशानी तुम लोग ही उठाना। हमें कुछ न करने देना। लाओ इधर दिखाओ।’ कहते हुए अम्मा ने सिंघाड़े की फांक कर उसे उबलने रख दिया। तब तक मीनू ने गोभी भी काट कर तैयार कर दिए। अम्मा पूरी तन्मयता से अचार के मसाले भूनने लगीं।
दिनभर धूप दिखाने के बाद सिंघाड़ा, गोभी अचार डालने के लिए तैयार थे। सारे मसाले मिलाकर अम्मा ने अचार जार में भरते हुए कहा, ‘अब इका कुछ दिन धूप में रख देव और रोज बढ़िया से हिलावे मत भूल जायो।’
अचार का काम खत्म हुआ तो मीनू ने अम्मा से पूछकर बड़ियां भी बना लीं। अचार और बड़ियां दोनों स्वादिष्ट बनी थीं। शेखर ने खाते ही कहा, ‘वाह! इस बार अचार तो लाजवाब बना है।’
‘ये सब अम्मा की करामात है।’ मीनू बोली।
मीनू की बात सुनकर अम्मा हंस पड़ी।
शेखर को ऐसा महसूस होता कि उसके घर में कितने दिनों से एक मां की कमी थी। अम्मा के आने से वो कमी पूरी हो गयी है। मगर अम्मा के लौटने के ख्याल से वह सहम जाता। मीनू ने भी जीवन में पहली बार सास के होने का मतलब समझा था। अम्मा उसे गृहस्थी के कायदे बताती। खराब हो रही चीज को बचाने के जुगत सिखाती। बच्चे की परवरिश की बारीकियां समझाती। जैसे कुछ दिन पहले नहीं अम्मा इसी घर की हों।
उधर अम्मा भी बेटे बहू के होने का सुख भोग गद‌्गद थीं। सोचती इस उपकार का ऋण वह कैसे चुका पाएंगी। कभी-कभी शेखर और मीना के अतिशय स्नेह से वह संकोच से भर जातीं। तब शेखर उन्हें समझाता, ‘अम्मा संकोच न करो। मैं तुम्हारा ही बेटा हूं।’ शेखर अम्मा के लिए नई साड़ी, शॉल और स्वेटर लाया था। अम्मा लेना नहीं चाहती थीं मगर शेखर के सम्मान का वह अनादर भी नहीं करना चाहती थीं।
देखते-देखते दो महीने बीत गए। अम्मा घर की सदस्य जैसी हो गईं थीं। कोई भी उनके जाने की बात नहीं सोच सकता था। पर अम्मा अपने पति का घर नहीं छोड़ सकती थीं। अपनी गठरी बांधे एक सुबह अम्मा तैयार हो गई।
‘बेटा अब हमको जाय देव।’
अब शेखर के पास कोई बहाना न था। उसने कहा, ‘जाने दूंगा मगर एक शर्त पर।’
अम्मा ने हैरत भरी नजरों से शेखर की ओर देखा।
‘अम्मा अब हर महीने तुमको यहां आना पड़ेगा। मैं आऊंगा तुमको लेने।’
‘हां अम्मा। निम्मी के पापा ठीक कह रहे हैं।’
अम्मा ने मीनू को गले लगाया तो वह उनके पैरों में झुक गयी। अम्मा ने उसे ढेर सारा आशीष दिया और गीली आंखें लेकर चल पड़ीं।

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