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गन्ध की अनन्त वेदना वसन्त

07:46 AM Apr 14, 2024 IST
गन्ध की अनन्त वेदना वसन्त
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राजेन्द्र गौतम

कविता संस्कृति की वर्णमाला है। संस्कृति का आख्यान प्रकृति का आख्यान है। यूं तो ‘प्रकृत’ अनुभव जीवन के आदिम संवेग है परन्तु उनका कलात्मक परिष्कार ही कविता का उपजीव्य बनता है। प्रकृति चिर-नवीना है क्योंकि उसकी लय ऋतु-आश्रित है। चिरन्तन गतिशीलता में आवृत्तिमूलक स्थिरता का पालन ही ‘ऋत’ है—धर्म है। ऋतु भी प्रकृति के नियम का निर्वाह है। कविता मानव-संवेदनाओं के समानान्तर ऋतुओं के स्पन्दन को नित्य प्रतिध्वनित करती रही है। महान कविता न तो शुष्क विचारों का रेतीला महल खड़ा करती है और न केवल छुईमुई-से बिम्बों वाले बेलबूटे काढ़ा करती है। वह संस्कृति की ऊर्ध्वगामी यात्रा के अनुभवों को प्राकृतिक संवेदनाओं के माध्यम से इन्द्रिय-ग्राह्य बनाया करती है। यह सही है कि आधुनिक कविता में जीवन-संघर्ष अधिक तुमुल है, तो उतनी ही यह नदी-झरनों, खादर-बियाबानों, उपवन-रेगिस्तानों एवं खेत-खलिहानों के पास भी है। आज की कविता बाजारों की धक्कामुक्की की भुक्तभोगी है, किन्तु साथ ही वह कुहरे में चुपचाप बतियाते पेड़ों का वार्तालाप सुनती है, ओस के फूलों पर ढरकने के संगीत को पहचानती है। रूप-रस-गन्ध-स्पर्श की पूरी दूनिया जीती है कविता!
ऋतुराज वसन्त जीवन के समानांतर भारतीय साहित्य में अद्वितीय महत्त्व रखता है। कालिदास-पूर्व और उनके आधुनिक साहित्य में वसन्तोत्सव विविध रूपों में उपस्थित है। जबकि मध्यकालीन भारतीय साहित्य में वसन्त-सुषमा का उतना उत्साहपूर्ण चित्रण नहीं मिलता। ‘बगर्यो बसन्त है’ के चितेरे उसकी शोभा से अभिभूत तो हैं पर वे जीवन की समग्रता से नहीं जुड़े हैं। चेतना के नवोत्कर्ष के रूप में अपनी समस्त वेदना और विषाद के बावजूद हिन्दी कविता में तो छायावाद ही ‘वसन्त का अग्रदूत’ है। ‘नव वय के अलियों के गुजन’ के समानान्तर क्षितिज पर वसन्त-रजनी की पुलक अपने युग की स्वच्छन्दतावादी रहस्यमयता को स्पन्दित करती है। ‘निराला’ का गीत— ‘सखि, वसन्त आया’ सर्वाधिक विकसित चेतना का परिचय देता है। आधुनिक कविता की अधिकांश प्रवृत्तियों के उद्गम-स्रोत निराला में ही विद्यमान हैं। ‘निराला’ इस सर्वाच्छादक उल्लास को ‘भरा हर्ष वन के मन/नवोत्कर्ष छाया’ के रूप में ध्वनित करते हैं।
आधुनिक कविता-धाराओं में नवगीत में अपेक्षाकृत प्रकृति-सन्दर्भों की उपस्थिति अधिक है किन्तु छायावाद में प्रकृति की सत्ता जहां अप्रस्तुतों के माध्यम से अधिक उभरी है अथवा कवियों की अनुभूति की विवृत्ति का माध्यम है, जबकि परवर्ती काव्य में, विशेषकर नवगीत में, प्रकृति का स्वतन्त्र व्यक्तित्व निर्मित हुआ है। अज्ञेय ने हिन्दी कविता को बहुत-सी पूर्व-परम्पराओं से काटकर नया कलेवर देने का भरसक प्रयास किया था पर उनके साहित्य का समग्र मूल्याकन उन्हें परम्परा से जोड़ता भी है। वसन्त के चित्रण में वे शिल्प की नवीन भंगिमा के बावजूद परम्परा से जुड़ते नजर आते हैं :-शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल/ गन्धवाह उड़ा रहा पराग धूल-झूल/ कांटों का किरीट धारे बन देवदूत/ पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल/ अरे ऋतुराज आ गया।
वस्तुतः इससे पूर्व ही प्रगतिशील कविता ने जन-मन से जुड़ने की जो आतुरता दिखलाई थी, उसने वसन्त चित्रण को भी नया रूप दे दिया था। तब केदारनाथ अग्रवाल ने हवा का मानवीकरण छायावाद से बिलकुल अलग जमीन पर किया था। नये कवियों में प्रयोग का जो उत्साह था, उसी के कारण त्रिलोचन शास्त्री वसन्त की नव चेतना को तब कुछ-कुछ परकीय-सी लगने वाली विधा गजल में भी अंकित करते हैं। ‘सुनता हूं आ गया वसन्त’ ग़ज़ल में वसन्त के आने की कानो-सुनी खबर या ‘अफवाह’ ही कवि को इतना आन्दोलित कर देती है कि वे उसके अनुरूप एक रमणीय संसार रच डालते हैं। यूं तब के हिन्दी कवि ने सौदर्याविष्ट वेदना को भी वसन्त से जोड़ा था। जानकीवल्लभ शास्त्री ने लिखा था :- केसर कुंकुम का लहका दिगन्त है/ गन्ध की अनन्त वेदना वसन्त है।
काल की ऋतु-सापेक्ष गति नटराज के शाश्वत नृत्य की भांति है। सृजन और संहार की युगल भंगिमाएं इसकी अनन्त नृत्य मुद्राओं में प्रतिबिम्बित होती हैं। वसन्त सृजन का मधुसिंचित राग है, इसलिए उसे पूर्वापरता के क्रम में पहचानना ही सार्थक है। चुप्पी की बर्फ पिघलती है तो वसन्त आता है, कलियों के चटखने का संगीत गूंजने लगता है तो वसन्त आता है, धूप के पाखी पंख फड़फड़ाने लगते हैं तो वसन्त आता है और तब कवि के लिए समूचा परिदृश्य एक मानवीकृत सन्दर्भ ले लेता है।
यह समृद्ध वसन्त किसी महन्त से कम नहीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने इस महन्त वसन्त का जो सांग रूपक प्रस्तुत किया है, वह भव्य एवं विराट् है :-आए महन्त वसन्त/ मखमल के झूले पड़े हाथी पाग पीला/ चंवर सदृश्य डोल रहे सरसों के सर अनन्त/ आए महन्त वसन्त। केदारनाथ सिंह ‘फागुन गीत’ और ‘वसन्त गीत’ में व्यक्ति-मन का उल्लास व्यक्त करते हैं। उन्हें लगता है— ‘गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता!’ किया है। वसन्त न तो व्यक्ति को निस्संग रहने देता है और न ही निष्क्रिय! वह जीवन की चपलता में आपको रामदरश मिश्र की तरह यों खींच लेता है :- ‘खींच कर घर से/ एक बहकी हवा फागुन की/ बीच चौरस्ते मुझे भटका गयी!’
वसन्त का प्रतिफल है पुष्प और पुष्प के व्यक्तित्व की दो दिशाएं हैं। एक शुचिता, दूसरी लालित्य ‘वसन्त पंचमी’ से इस ऋतु का आनुष्ठानिक सूत्रपात होता है। यह वसन्त की शुचिता का, शुभता का पर्व है। आधुनिक हिन्दी कविता में वसन्त की ऐसी उत्सवा छवियां भी अंकित है, जिनमें शुचिता का सन्दर्भ प्रमुख है। लोक-मन और जन-संस्कारों के बसन्त के कुछ बिम्ब नयी कविता में बहुत मोहक बन पड़े हैं।
वसन्त का यह लालित्य स्थूल दृश्य-भर नहीं, जीवन्त अनुभव है। आधुनिक कविता जन-जीवन की सहभागी रही है, तटस्थ द्रष्टा नहीं, इसीलिए इसमें वसन्त की समृद्धि के साथ-साथ, जीवन के अभावों का भी चित्रण है। भूख के सन्दर्भ में वसन्त का सौंदर्य भी करुणा और विषाद में अर्थान्तरित हो जाता है। तब कवि को अनुभव होता है ‘बिन हुए वसन्त, गए कितने वासन्ती दिन।’
आधुनिक कविता का सरोकार कागजी वसन्त से नहीं हैं। न ही सामन्ती, शोषक एवं विलासी वसन्त उसका आराध्य है। वह तो उस सहज, सरल तथापि समृद्ध वसन्त का अभिनन्दन करती है, जिस तक दरिद्रनारायण की भी पहुंच है और जिसका स्तवन युग-पुरुष निराला ने अपने काव्य में भरपूर किया है। आधुनिक कविता में वसन्त को कृषिकर्म के साथ विशेष रूप से जोड़ा गया है। फसलों के पकने की सोंधी गन्ध से सिक्त वसन्त का यह चित्रण वास्तव में कविता से जन-संपृक्ति का प्रयास और श्रम का अभिन्दन है। यहां तक कि वैयक्तिक प्रेम-सन्दर्भों में भी वसन्त की प्रतीक्षा और उसकी प्राप्तियों में ग्रामीण सन्दर्भ ही गूंजते हैं।

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