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श्रीकृष्ण की लीला में निहित जीवन का शाश्वत संदेश

07:58 AM Aug 26, 2024 IST

चेतनादित्य आलोक
दुनियाभर में सनातन धर्मावलंबियों के लिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महत्व अत्यंत विशेष होता है। इस पर्व के महत्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सनातन धर्मावलंबी चाहे विश्व के किसी भी कोने में क्यों न निवास करते हों, वे इस दिन की प्रतीक्षा पूरे वर्ष करते रहते हैं। जब यह शुभ रात्रि आती है, तो सर्वत्र आनंद की वर्षा होने की प्रतीति होती है। ऐसा महसूस होता है, मानो साक्षात‌् भगवान श्रीकृष्ण का धरती पर पुनः प्राकट्य हो गया हो।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा किसी एक स्थान पर या दुनिया के किसी एक कोने में नहीं, बल्कि जहां-जहां भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व तन, मन और लगन से मनाया जाता है, उन सभी जगहों पर भगवान के प्रिय भक्तों को बिल्कुल ऐसी ही अनुभूति होती है। जाहिर है कि परमांनंद के अवतार भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव में आनंद की वर्षा होने से भला कौन रोक सकता है। वैसे भी भगवान श्रीकृष्ण का जन्म दुःख, संत्रास, अंधकार और मृत्यु की घनीभूत पीड़ा के बीच आनंद, उल्लास, उत्साह, उमंग और सृजन का प्रतीक है। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने के लिए जन्माष्टमी का अवसर बेहद शुभ माना जाता है। इस रात्रि को भगवान की पूजा करने से सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।
गौरतलब है कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व प्रत्येक वर्ष भाद्रपद या भादो महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 26 अगस्त को मनाया जाएगा। इस अवसर पर ‘जयंती योग’ का निर्माण होने के कारण जो भक्त निर्मल मन से लगनपूर्वक श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करेंगे, उन्हें ‘अक्षय पुण्य’ यानी कभी न मिटने वाले पुण्य फल की प्राप्ति होगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर भक्त भगवान श्रीकृष्ण की विशेष साज-शृंगार कर उनकी पूजा-उपासना करते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो भक्त भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाकर उनकी पूजा-उपासना करते हैं, उन्हें मृत्यु लोक में भी स्वर्गलोक में रहने के समान सुख, समृद्धि, वैभव, ऐश्वर्य और आनंद की प्राप्ति होती है। यह पर्व भारतवर्ष के अतिरिक्त विदेशों में भी व्यापक रूप से मनाया जाता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को कृष्णाष्टमी, जन्माष्टमी या गोकुलाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। वहीं, हिंदू संस्कृति की वैष्णव परंपरा में इसे अन्य सभी व्रतों, पर्वों एवं त्योहारों में सर्वोत्तम माना जाता है। हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक ग्रंथ ‘गीत गोविंद’ में भगवान श्रीकृष्ण का उल्लेख सर्वोच्च भगवान, सर्वशक्तिमान और भगवान श्रीहरि विष्णु के सभी अवतारों के प्रधान स्रोत के रूप में किया गया है।
वैसे देखा जाए तो शास्त्रों के अनेक कथानकों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीहरि विष्णु एक ही हैं, जबकि कुछ कथानक यह इंगित करते हैं कि श्रीकृष्ण श्रीमहाविष्णु के अवतार हैं। उदाहरण स्वरूप कंस के कारागृह में देवकी और वसुदेव के समक्ष श्रीमहाविष्णु प्रकट हुए और बाद में उन्होंने ही बाल श्रीकृष्ण का रूप धारण कर लिया था। वहीं, कुछ कथानकों के अनुसार श्रीकृष्ण ही परात्पर ब्रह्म हैं तथा अन्य सभी उनके ही अवतार हैं। ब्रह्म संहिता के अनुसार अनंत कोटि ब्रह्माण्डों के संचालक श्रीमहाविष्णु भगवान श्रीकृष्ण के ही अंश हैं और उनका अस्तित्व भगवान श्रीकृष्ण की एक श्वास से प्रतिपालित है। इससे अधिक इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए और क्या कहा जा सकता है कि श्रीमहाविष्णु स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की एक कला के अवतार हैं।
देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ी तमाम कथाएं और पौराणिक तथ्य वास्तव में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व घटित हो चुकी कोई घटना अथवा श्रीकृष्ण द्वारा रचित लीला मात्र नहीं हैं, बल्कि ये घटनाएं इस जगत में नित्य निरंतर घटित होती रहने वाली घटनाएं हैं। आज भी यदि कोई भक्त भगवान श्रीकृष्ण की निर्मल मन और पूरी लगन से भक्ति करता है, तो उनके जीवन में भगवान श्रीकृष्ण नित्य और निरंतर प्रकट होते और अपनी लीलाएं करते हुए प्रतीत होते हैं। गौर करें तो रामायण एवं महाभारत की कथाओं का सार हमारे जीवन में समय-समय पर घटित होता रहता है और यह बिना किसी प्रकार के भेदभाव के होता रहता है। हमारे भीतर भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण प्रकट होते रहते हैं। यदि हमारा मन भक्ति के रस में सराबोर हो और हमारी दृष्टि सूक्ष्म हो, तो हम उन्हें सदा-सर्वदा अपने भीतर ही देख और महसूस कर सकते हैं। दूसरी ओर, जिन्हें भगवान अपने भीतर नहीं दिखाई पड़ते यानी जो भक्ति से सर्वथा दूर हैं और जिनकी दृष्टि सूक्ष्म नहीं है, उनके लिए तो महर्षि वाल्मीकि, महर्षि वेदव्यास एवं संत गोस्वामी तुलसीदास जैसे हमारे महान और कालजयी रचनाकारों ने भगवान की लीलाओं को शब्दों की मर्यादा में पिरोकर रख ही दिया है।
सच कहा जाए तो हमारी प्राचीन धार्मिक कथाओं का सौंदर्य यही है कि वे किसी स्थान विशेष या समय विशेष के लिए नहीं बनाई गई हैं। तात्पर्य यह कि चाहे रामायण हो या महाभारत, गीत गोविंद हो या श्रीमद्भगवद्गीता, भागवत पुराण अथवा हिंदुओं का कोई और धार्मिक ग्रंथ, उन सबकी कथाओं के सार तत्व किसी काल विशेष के लिए अथवा काल विशेष के संदर्भ में निरूपित नहीं किए गए हैं, बल्कि ये गंगोत्री की निर्मल धाराओं की तरह निर्मल होने के साथ-साथ नित्य भी हैं, शाश्वत भी और निरंतर भी हैं। अब भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर उनके जन्म को ही प्रतीक मानकर देखा जाए, तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का गूढ़ार्थ हमारे जीवन में भी परिलक्षित होता हुआ दिखाई देने लगेगा। गौरतलब है कि श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की कथा में माता देवकी ‘देह’ या ‘शरीर’ की प्रतीक हैं और वसुदेव ‘जीवनी शक्ति’ यानी ‘प्राण’ के प्रतीक हैं। अब देखिए कि जब देह यानी माता देवकी प्राण यानी वसुदेव को धारण करती है, तो ‘आनंद स्वरूप’ श्रीकृष्ण का प्राकट्य होता है, किंतु मनुष्य मात्र के भीतर स्थित अहंकार रूपी कंस आनंद को समाप्त करने के प्रयास में निरंतर लगा रहता है। इस कथा में शरीर यानी देवकी का भाई कंस अहंकार का प्रतीक है, जो यह दर्शाता है कि शरीर के साथ-साथ अहंकार का भी अस्तित्व होता है।
बता दें कि अहंकार यानी कंस के सबसे बड़े शत्रु आनंद यानी श्रीकृष्ण हैं। जाहिर है कि जहां आनंद और प्रेम है, वहां अहंकार टिक ही नहीं सकता; उसे झुकना, नष्ट होना ही पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण आनंद के प्रतीक हैं, सादगी के सार और प्रेम के स्रोत हैं। यही कारण है कि उनके समक्ष कंस रूपी अहंकार को अंततः समाप्त होना ही पड़ता है
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