बेशर्म राजनीति में शर्म का मर्म
मनीष कुमार चौधरी
वे जब राजनीति के मैदान में कूदे थे तो उन्होंने सबसे पहले जिस चीज को ताक पर रखा, वह शर्म ही थी। हालांकि बेशर्म तो वे बचपन ही से थे। स्कूल से कॉलेज तक आते-आते उन्होंने इस बेशर्मी के कई डेमो भी दे दिये थे। बेशर्मी के लिए जितने दुर्गुण होने चाहिए, वे उनमें पर्याप्त से भी ज्यादा थे। झूठ बोलना, नकटा हो जाना, बात-बात में मुकर जाना, सामने कुछ कहना-पीठ पीछे कुछ अलग, इधर थूकना-उधर चाटना, अपने लाभ के लिए सगे से दगा कर जाना... ऐसी कई खालिस बेशर्म विशेषताओं के वे धनी थे।
राजनीति में उनकी बेशर्मी इतनी रंग लाई कि देश की राजनीति में शर्म गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गई। धीरे-धीरे नेता बेशर्मी को साहस बताने लगे। ये नेता को तो रास आ सकता है, पर देश की जनता में अभी इतनी शर्म बाकी है कि उसे यह बेशर्म राजनीति रास नहीं आ रही। देश में कुछ गलत-सलत होता है तो नेता जी का यह बयान सुन कर कि मेरा सिर शर्म से झुक गया है, जनता शर्म से पानी-पानी हो जाती है। बेशर्मी की संगत में कहीं देश के आम आदमी की शर्म उतर गई, फिर क्या होगा! शर्म कहां जाकर छुपेगी! यह देश जो थोड़ा-बहुत चल-घिसट रहा है, सिर्फ जनता की शर्म से ही तो...। वरना राजनेताओं की मुखौटा राजनीति से तो जो बची-खुची शर्म है, वह भी कब की ठिकाने लग चुकी होती।
सवाल यह खड़ा होता है कि राजनीति में शर्म की पुनः प्रतिष्ठा हो सकती है या नहीं। आज के नेता अपने चाल, चरित्र और व्यवहार से इतनी नंगई धारण कर चुके हैं कि शर्म को आजादी पूर्व के नेताओं की स्थिति में लाना कोई हंसी-खेल नहीं रहा। जनता का सिर शर्म से झुक रहा है, परंतु जो सिर देश की राजनीति में हैं वे शर्म से सिर झुकाना तो दूर, उल्टे सिर उठा रहे हैं। जनता ने नेता को कहा कि शर्म की पुनः प्रतिष्ठा करो, तो नेता ने दो टूक कहा कि राजनीति की वैतरणी पार करने के लिए नंगा होना ही पड़ता है। यह नंगापन हमारा साहस है, बेशर्मी नहीं। हमारी वजह से ही तो देश में लोकतंत्र बचा हुआ है। जनता बोलती है, ‘लोकतंत्र तो हमारी शर्म की वजह से बचा हुआ है।’ नेता पलट कर जवाब देता है, ‘तुम मुगालते में हो। देश शरमा-शरमी से नहीं, बेशर्मी से चलता है।’
बात आगे बढ़ जाती है। जनता की शर्म और नेता की बेशर्मी का मुकाबला होने लगता है। देश की जनता बड़ी भोली है। वह उस नेता से शर्म की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने के लिए कह रही थी, जिसकी राजनीति की दुकान ही बेशर्मी की वजह से चल रही थी।
‘शर्म रखेंगे तो वोट कैसे मिलेगा! वोट मांगने के लिए तो जनता के सामने भिखारी भी बनना पड़ता है।’ नेता अपने शर्मनाक बयानों से शर्म की बखिया उधेड़ने लगा था। जनता व्यथित होकर बोलती है, ‘लेकिन राजनीति तो जनसेवा का माध्यम है। आखिर इज्जत भी कोई चीज होती है।’ बेशर्म नेता कहता है, ‘अरे जाने दो! इज्जत अपनी जगह है, राजनीति अपनी जगह।’