अर्द्धसत्यों के दौर में सत्य की अंतहीन तलाश
सुधीश पचौरी
सैफ पर हमले की कहानी का क्या हुआ? किसने हमला किया और क्यों किया...?
ऐसे सारे सवाल अब भूले जा चुके हैं—उनको अब कोई नहीं पूछता।
कुछ दिन बजने के बाद यह अपराध कथा भी ठंडे बस्ते में चली गई।
इससे पहले सुशांत सिह राजपूत की हत्या या आत्महत्या से संबंधित अपराध कथा आई थी जो कई दिनों तक चैनलों में छाई रही, सोशल मीडिया में जिस तिस के नाम उछलते रहे, लोगों की जिज्ञासा बढ़ती रही- लोग सोचते रहे कि सच अब आया अब आया सबके सामने लेकिन असल सच अब तक न आ सका...।
कुछ पहले एक बड़े हीरो के बेटे को नशे के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो मीडिया में सनसनी मची। लेकिन फिर एक दिन वो छूट गया और यह मसालेदार कहानी भी ठंडी हो गई।
ऐसे ही एक अन्य बड़े हीरो को एक माफिया से धमकियां मिलीं। फिर एक दिन घर पर गोलियां चलीं.. बड़ी कहानी बनी और फिर मीडिया ने भुला दिया। इसी बीच उसके एक मित्र को सरेआम गोलियां मारी गई। कुछ दिन की खबर रही फिर यह कहानी भी किनारे हो गई।
हमारे मीडिया में आती ऐसी कहानियां पहले तो तेजी से आती हैं, सनसनी मचाती हैं, फिर एक दिन मीडिया उनको भूल जाता है।
ऐसी हर बड़ी नामी कहानी को हमारा मीडिया अचानक ‘ब्रेक’ करता है- वह आते ही सनसनी फैला देती है- लोग उसे टीवी चैनलों में और सोशल मीडिया पर टुकड़े-टुकड़े खुलते देखते हैं। ऐसी हर कहानी सीरियल का रूप ले लेती है- हर दिन उसके एपिसोड आते रहते हैं और एक दिन वो बिना नतीजे के गायब हो जाती है।
सुशांत ने आत्महत्या की तो उसका कारण क्या रहा? अगर उसकी हत्या की गई तो हत्यारे का मोटिव क्या रहा? हम देखते रहते हैं लेकिन ऐसी हर कहानी उन सवालों का अक्सर जबाव नहीं दे पातीं जो बार-बार पूछे जाते हैं।
कई बार ऐसी कहानियां बीच में बंद हो जाती हैं,कई बार वे बीच-बीच में टुकड़ों के रूप में आती रहती हैं।
अगर किसी कहानी के पात्र समाज के बड़े लोग हैं, वे सेलिबि्रटी हैं, नामी-गिरामी हैं, आइकन हैं तो उनकी कहानियां जिस तरीके से आती, उसी तरीके से विदा हो जाती हैं।
पहले वे बड़ी खबर की तरह ब्रेक होती हैं, फिर वे खबरें टुकड़े-टुकड़े आती हैं। फिर जांच की बात होती है, कुछ पुलिस की खबरें भी आती हैं। फिर जांच बैठा दी जाती है और जैसे ही जांच बैठती है वैसे ही कहानी ‘आउट’ हो जाती है।
अगर कोई कहानी कुछ चलती भी है तो बहुत जल्द उसमें धर्म और जाति आ जाते हैं और फिर हर कथित आरोपी को धर्म या जाति के चश्मे से देखा जाने लगता है- ऐसी हर कहानी बीच में दम तोड़ देती है।
यही हम राजनीतिक अपराध कथाओं में होता देखते हैं-एक दिन खबर आती है कि कोई लाखों करोड़ों का चूना लगाकर विदेश भाग गया है। या कहीं किसी ने बड़ा गबन कर दिया है। या कहीं किसी ने पैसे का बड़ा फ्राड कर दिया है। या तो किसी बड़े नेता या अफसर के बिस्तर में छिपाए गए करोड़ों के नोट मिले हैं।
लेकिन ऐसी अधिकांश कहानियां भी एक हद के बाद अपनी मौत अपने आप मर जाती हैं या मार दी जाती हैं।
हर ऐसी कहानी हमें थोड़ा सच और बहुत सारा झूठ परोस कर निकल जाती है। ऐसी हर अधूरी कहानी हमें असतुंष्ट कर छोड़ जाती है और इसीलिए हर बार हम ऐसी अपराध कथाओं का अंत देखने के लिए उनको फॉलो करते रहते हैं। ऐसी हर कहानी हमारे अंदर किसी गोपीचंद जासूस को जगा देती है और हम ऐसी हर कथा के प्राइवेट जासूस बन जाते हैं। ऐसे में हम अपनी कल्पना से ऐसी कहानी को पूरा करते रहते हैं। यही अपराध कथा का चस्का है।
ऐसी हर कहानी एक आधी-अधूरी अपराध कथा होती है। जिसे मीडिया ने मैनेज कर लिया होता है। और मीडिया को किसी ताकतवर ने मैनेज कर लिया होता है।
फिर भी हम-आप ‘इलेक्ट्राॅनिक मीडिया’ को सत्य का अधिष्ठान मानते हैं और मानते हैं कि कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता।
फिर, आज के ‘सोशल मीडिया’ के ‘आल्ट न्यूज’ या ‘फेक न्यूज’ ने सच व झूठ को एक-दूसरे में इतना मिक्स कर दिया है कि हम सच को झूठ से अलगाकर नहीं देख पाते और रही कसर ‘कृत्रिम बुद्धि’ ने पूरी कर दी है। जहां मूल क्या है और नकल क्या है इसका पता ही नहीं चलता। शायद इसी वजह से हम मीडिया के हर सच में एक झूठ खोजते रहते हैं और हर झूठ में एक सच खोजते रहते हैं।
इस तरह हम एक ही वक्त मेंं इतनी तरह के अर्द्धसत्यों में रहते हैं कि हम भूल जाते हैं कि खुद ‘मीडिया के सच में’ सच कितना है। और फिर कुछ देर बाद थककर हम सच को तलाशना ही बंद कर देते हैं।
सच को झूठ और झूठ को सच बनाने की कला का नाम ही ‘नेरेटिव’ है जो किसी भी दृश्यमान या लिखित सच को एक ऐसी कहानी में ढाल देता है जिसमें आकर ‘गलत’ बात भी ‘सही’ नजर आने लगती है। हम संशय में रहने लगते हैं कि कोई ‘अपराधी’ अपराधी था भी कि नहीं, कोई ‘भ्रष्ट’ भ्रष्ट था भी कि नहीं।
इस तरह एक ओर हम मीडिया के ‘सच’ बताने के दावे को सच मान उसके बनाए बताए ‘सच’ पर भरोसा करने लगते हैं, दूसरी ओर ‘सच’ को ‘झूठ’ और ‘झूठ’ को ‘सच’ बनाने-बताने की उसकी कला के भी कायल होते रहते हैं। और फिर भी मीडिया पर भरोसा करते रहते हैं कि उसने जो बताया दिखाया वो सच ही होगा।
इन दिनों मीडिया का प्रिय शब्द ‘नेरेटिव’ यही काम करता है— वह पहले एक कहानी बुनता है और उसकी डोरी पर अपना समांतर ‘सच’ और ‘झूठ’ एक साथ फैलाता है, तानता है, सुखाता है और फिर उसे क्रीज कर यानी अनुशासित कर उसका अच्छा पैकेज बनाकर हमें ही बेच देता है।
इसीलिए कई विशेषज्ञों का मानना है कि मीडिया का सच पूरा सच कभी नहीं होता बल्कि ‘नेरेटिव’ में आकर वह एक कहानी में आकर हर सच, आधा सच और आधा झूठ बन जाता है। ऐसा नेरेटिव किसी कथित सच को भी ऐसी कहानी के हिस्से के रूप में कहता है जो सच न होते हुए सच लगती है।
आधुनिक युग में जब से सर्वशक्तिमान की मृत्यु घोषित की गई है तब से ‘सत्य’ फिल्म ‘दृश्यम्’ के गढ़े हुए सत्य की तरह रह गया है। जिसके एक सत्य का निर्माण फिल्म का नायक करता है तो दूसरे सत्य का निर्माण पुलिस करती है। और अंत में जो सच था वो प्रमाण के अभाव में अनिर्णीत रह जाता है। और हम भी सच-झूठ को एक कहानी मानकर अगली कहानी का इंतजार करने लगते हैं!
लेखक मीडिया मामलों के विशेषज्ञ हैं।