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विवाह की गरिमा

07:19 AM May 07, 2024 IST
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देश की शीर्ष अदालत को यदि विवाह जैसे बेहद व्यक्तिगत मामले में परामर्श देना पड़ा है, तो इसका अभिप्राय यही है कि इसके मूल स्वरूप से तेजी से खिलवाड़ हुआ है। कोर्ट को सख्त लहजे में यहां तक कहना पड़ा कि विवाह यदि सप्तपदी यानी फेरे जैसे उचित संस्कार और जरूरी समारोह के बिना होता है तो वह अमान्य ही होगा। निश्चित रूप से अदालत ने यह बताने का प्रयास किया कि इन जरूरी परंपराओं के निर्वहन से ही विवाह की पवित्रता और कानूनी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। दरअसल, हाल के वर्षों में विवाह समारोहों के आयोजन में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन व तमाम तरह के आडंबरों को तो प्राथमिकता दी जा रही है, लेकिन परंपरागत हिंदू विवाह के तौर-तरीकों को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। आज से कुछ दशक पूर्व हिंदी फिल्मों में हास्य पैदा करने के लिये विवाह से जुड़ी परंपराओं का जिस तरह का मजाक बनाया जाता था, आज कमोबेश वैसी स्थिति समाज में भी बनती जा रही है। वर-वधू द्वारा अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण अध्याय को शुरू करने के वक्त विवाह के आयोजन में जो शालीनता, गरिमा व पवित्रता होनी चाहिए, उसे खारिज करने की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं। यही वजह है कि अदालत को याद दिलाना पड़ा कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत विवाह की कानूनी जरूरतों तथा पवित्रता को गंभीरता से लेने की जरूरत है। जिसके लिये पवित्र अग्नि के चारों ओर लगाये जाने वाले सात फेरे जैसे संस्कारों व सामाजिक समारोह से ही विवाह को मान्यता मिल सकती है। निश्चित रूप से आज विवाह संस्कार की गरिमा को प्रतिष्ठा दिये जाने की जरूरत है। यानी विवाह सिर्फ प्रदर्शन नहीं है। विवाह मजबूरी का समझौता भी नहीं हो सकता। निश्चित रूप से भारतीय जीवन पद्धति में विवाह महज महत्वपूर्ण संस्कार ही नहीं है बल्कि नवदंपति के जीवन के नये अध्याय की शुरुआत भी है। जिसे हमारे पूर्वजों ने बेहद गरिमा व सम्मान के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया है। आज हम भले ही कितने आधुनिक हो जाएं, विवाह से जुड़ी अपरिहार्य परंपराओं को नजरअंदाज कदापि नहीं कर सकते।
निश्चित रूप से विवाह को औपचारिक रूप से मान्यता देने के लिये पंजीकरण आदि के उपाय इस रिश्ते को अपेक्षित गरिमा देने में विफल ही रहे हैं। यही वजह है कि शीर्ष अदालत में न्यायाधीश को कहना पड़ा कि सात फेरों का अर्थ समझे बिना हिंदू विवाह की गरिमा को नहीं समझा जा सकता। यह भी कि हिंदू विवाह सिर्फ नाचने-गाने तथा पार्टीबाजी की ही चीज नहीं है, यह एक गरिमामय संस्कार है। उसके लिये सामाजिक भागीदारी वाला जरूरी विवाह समारोह भी होना चाहिए। यानी महज पंजीकरण से विवाह की वैधता पर मोहर नहीं लग जाती। निस्संदेह, निष्कर्ष यही है कि पैसा पानी की तरह बहाकर तमाम तरह के आडंबरों को आयोजित करने के बजाय विवाह के मर्म को समझना होगा। इसके बावजूद देशकाल व परिस्थितियों के अनुरूप विवाह पंजीकरण की जरूरत को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। हमें यह भी स्वीकारना होगा कि 21वीं सदी का भारतीय समाज बदलते वक्त के साथ नई चाल में ढला है। नई पीढ़ी की कामकाजी महिलाएं आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं और अपनी शर्तों पर विवाह की परंपराओं को निभाने की बात करती हैं। जिसके चलते विवाह संस्था को लेकर कई अदालतों के फैसले सामने आए हैं, जिनकी तार्किकता को लेकर समाज में बहस चलती रहती है। जिसमें कई कर्मकांडों पर नये सिरे से विचार-विमर्श की जरूरत बतायी जाती रही है। मसलन कुछ कथित प्रगतिशील लोग कन्यादान व सिंदूर लगाने की अनिवार्यता को लेकर किंतु-परंतु करते रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद हमें न्यायालय की चिंताओं पर चिंतन तो करना ही चाहिए। यह सवाल रूढ़िवादिता का नहीं है। बल्कि दुनिया के तमाम धर्मों में सदियों से चली आ रही वैवाहिक परंपराओं का आदर के साथ अनुपालन किया जाता है। यह हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित रीति-रिवाजों का सम्मान करने जैसा ही होता है। जो नया जीवन शुरू करने वाले वर-वधू को एक आशीष जैसा ही होता है।

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