For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

उत्सव की गरिमा में रिश्तों की गहराई

06:47 AM Aug 19, 2024 IST
उत्सव की गरिमा में रिश्तों की गहराई
Advertisement

रक्षा बंधन यानी रक्षा का बंधन। एक पवित्र धागे को प्रतीक मानकर रक्षा के बंधन के रूप में कलाई पर बांधा जाता है। रक्षा बंधन आज अपने स्वरूप में तमाम बदलावों के बावजूद भाई-बहन के कोमल, गरिमामय व स्नेहपूर्ण रिश्ते की मधुरता व मिठास का पर्याय है।

Advertisement

योगेन्द्र माथुर

भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी रही है। ‘सात वार नौ त्योहार’ की कहावत यहां पूरी तरह लागू होती है। यहां मनाए जाने वाले उत्सव, पर्व और त्योहारों का प्रायः धार्मिक और सामाजिक महत्व होता है। ऐसा ही एक पर्व है ‘रक्षाबंधन’।
रक्षाबंधन का अर्थ है ‘रक्षा का बंधन’। हमारे यहां एक पवित्र धागे को प्रतीक मानकर रक्षा के बंधन के रूप में कलाई पर बांधा जाता है। दार्शनिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति जिस किसी को भी अपनी रक्षा करने में सक्षम मानता हो, उसे रक्षा के बंधन में बांध सकता है। इस पर्व से जुड़ी धार्मिक, पौराणिक कथाओं से भी यही जानकारी मिलती है।
रक्षाबंधन पर्व की शुरुआत को लेकर एक पौराणिक आख्यान है। राजा बलि ने देवराज इंद्र से स्वर्ग का राज्य छीनने के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। इससे देवराज इंद्र चिंतित हो उठे और भगवान विष्णु से सहायता मांगी। भगवान विष्णु वामन रूप में (वामन अवतार) राजा बलि के यहां भिक्षा मांगने पहुंचे। राजा बलि दानवीर थे और उनके यहां से कोई खाली हाथ नहीं लौटता था। भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। दो पग में पूरी धरती नाप दी और पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? राजा बलि भगवान की लीला समझ गए और अपना शीश आगे कर दिया। भगवान विष्णु ने अपना पैर राजा बलि के सिर पर रखकर उन्हें पाताल लोक में पहुंचा दिया और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा। राजा बलि ने चतुराई दिखाते हुए भगवान से कहा कि प्रभु मुझे सोते-उठते आपके ही दर्शन होने चाहिए। इस प्रकार वचन से बंधे भगवान विष्णु को राजा बलि के यहां पहरेदार बनना पड़ा।
जब लम्बे समय तक भगवान वापस नहीं लौटे तो लक्ष्मीजी चिंतित हो उठीं। उन्होंने देवर्षि नारद से उनका पता और उन्हें वापस लाने का उपाय पूछा। नारदजी ने उन्हें राजा बलि को भाई बनाने और भगवान को वापस मांगने का उपाय बताया। लक्ष्मीजी साधारण स्त्री का वेश धरकर रोती हुई राजा बलि के यहां पहुंचीं। राजा बलि ने जब उनसे रोने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मेरा कोई भाई नहीं है, इसलिए मैं रो रही हूं।
राजा बलि ने द्रवित होकर स्त्री से स्वयं को भाई मानने को कहा। इस पर लक्ष्मीजी ने राजा बलि की कलाई में रक्षा सूत्र बांधकर उन्हें अपना भाई बना लिया और दक्षिणा स्वरूप पहरेदार रूपी भगवान विष्णु को मांग लिया। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा थी। अतः इस दिन बहनें अपने भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर उनसे अपनी रक्षा का वचन लेने लगीं।
एक कथा महाभारत काल से जुड़ी है। एक बार भगवान श्री कृष्ण के हाथ में चोट लग गई और खून बहने लगा। वहां उपस्थित द्रौपदी ने अपनी धोती (साड़ी) का पल्लू फाड़कर उनके हाथ पर बांध दिया। भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी को अपनी बहन मानते थे और उसके स्नेह भरे बंधन में बंध चुके थे। उन्होंने द्रौपदी को सदैव रक्षा करने का वचन दिया।
समय के साथ जब कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण किया जाने लगा और द्रौपदी की बहुत चीख-पुकार के बावजूद पांडव पति, भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य आदि सिर झुकाए बैठे रहे, तब द्रौपदी ने अपनी इज्जत की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा। द्रौपदी की यह कातर पुकार सुनकर श्रीकृष्ण को द्रौपदी का वही स्नेह रूपी बंधन याद आया और उन्होंने द्रौपदी को चीरहरण से बचाया।
एक अन्य पौराणिक प्रसंग के अनुसार देवताओं और राक्षसों के बीच लंबे समय तक चले घमासान युद्ध में जब देवराज इंद्र को मात खानी पड़ी, तो इंद्र को आगे जीत की आशा नहीं दिखी और उन्होंने युद्ध का मैदान छोड़ दिया। तीनों लोकों में राक्षसों का राज कायम हो गया। अधर्म का बोलबाला हो गया। राक्षसों ने इंद्र के राजसभा में प्रवेश के साथ यज्ञ-पूजा वगैरह पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
अधर्म का बढ़ता साम्राज्य देख देवतागण चिंतित हो उठे और उन्होंने इंद्र से उपाय करने को कहा। इस पर देवराज इंद्र गुरु बृहस्पति के पास अंतिम युद्ध की अनुमति लेने पहुंचे। गुरु बृहस्पति ने मना कर दिया, तो इंद्र जिद पर अड़ गए। तब गुरु बृहस्पति ने इंद्र को युद्ध के लिए जाने से पहले ‘रक्षा विधान’ करने को कहा। ‘रक्षा विधान’ के अंतर्गत अपनी रक्षा करने वाले मंत्रों का जाप और पूजन किया जाता है।
इंद्र ने श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा विधान किया। पूजन सम्पन्न होने पर उनकी पत्नी शची ने इंद्र के दाएं हाथ में ‘रक्षा-सूत्र’ बांध दिया। इसके बाद हुए युद्ध में इंद्र की राक्षसों पर जीत हुई। तभी से रक्षा बंधन का यह त्योहार श्रावण की पूर्णिमा को मनाया जाने लगा।
इस पौराणिक प्रसंग में पत्नी शची ने पति इंद्र को रक्षा सूत्र बांधा था। अतः यह स्पष्ट होता है कि रक्षा का यह बंधन किसी विशेष रिश्ते तक सीमित नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी रक्षा में सक्षम और योग्य किसी दूसरे व्यक्ति को अपने स्नेह रूपी रक्षा के बंधन में आबद्ध कर सकता है। ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‍्’ में वर्णित बालक भरत की कलाई में ऋषियों द्वारा बांधे गए ‘रक्षा करंडकम’ का प्रसंग इसी तथ्य की पुष्टि करता है।
प्राचीन काल में योद्धाओं की पत्नियां रक्षा सूत्र बांधकर और तिलक लगाकर उन्हें युद्ध भूमि में विदा करती थीं ताकि वे विजयी होकर लौटें। युद्ध के पूर्व या युद्धकाल में रानियों द्वारा अपने विरोधी पक्ष के राजा को रक्षा सूत्र भेजकर अपने सुहाग की रक्षा का वचन लेने और राजा-महाराजाओं द्वारा विरोधी पक्ष की रानियों द्वारा उन्हें बांधे गए रक्षा सूत्र की मर्यादा की रक्षा करने के ऐतिहासिक प्रसंग भी यही प्रमाणित करते हैं कि रक्षाबंधन किसी रिश्ते तक सीमित नहीं है।
नि:संदेह, रक्षाबंधन का यह पवित्र पर्व आज भी अपने स्वरूप में तमाम बदलावों के बावजूद भाई-बहन के कोमल, गरिमामय और स्नेहपूर्ण रिश्ते की मधुरता और मिठास इस पर्व के साथ सदा की भांति जुड़ी हुई है।

Advertisement

Advertisement
Advertisement