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बिना पर्याप्त उपचार के गहराता संकट

06:42 AM Oct 10, 2024 IST

चेतनादित्य आलोक

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मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं वैश्विक स्तर पर गंभीर चिंता का कारण बनती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 7.5 प्रतिशत जनसंख्या किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रही है। यही नहीं, विश्व में मानसिक और न्यूरोलॉजिकल बीमारियों की समस्या से जूझ रहे लोगों में भारत की भागीदारी लगभग 15 प्रतिशत है, जो इस बात को दर्शाता है कि भारत में मानसिक बीमारियां कितनी गंभीर समस्या बन चुकी हैं। इसके बावजूद मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सरकार की ओर से फंड का आवंटन अन्य बीमारियों की तुलना में बहुत कम है। सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात तो यह है कि मानसिक बीमारियों को अब तक भारत में बीमारी के रूप में पहचान ही नहीं मिल पाई है।
दरअसल, भारत में मानसिक सेहत एक ऐसा विषय है, जिस पर खुलकर बात ही नहीं होती। लोग मानसिक बीमारियों को इस भय से छिपाते फिरते हैं कि लोग जानेंगे तो क्या कहेंगे। गौरतलब है कि समाज में कई लोग आज भी मानसिक बीमारियों को एक सामाजिक कलंक के रूप में देखते हैं। इसीलिए वे प्रायः चुपके-चुपके झाड़-फूंक, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र या झोलाछाप डाॅक्टरों की शरण में चले जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि बीमार व्यक्ति की दशा दिन-प्रतिदिन बदतर होती जाती है। कई बार तो अवसाद की चपेट में आए व्यक्ति की जान भी चली जाती है।
समाज में व्याप्त इन्हीं परिस्थितियों के विरुद्ध लोगों को शिक्षित और जागरूक करने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 10 अक्तूूबर को ‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ मनाया जाता है। वैसे देखा जाए तो मानसिक बीमारियों के शिकार आजकल केवल बड़े ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में बच्चे भी होने लगे हैं। यूनिसेफ की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 14 प्रतिशत बच्चे अवसाद की चपेट में हैं। बच्चों के अवसादग्रस्त होने का प्रमुख कारण उन पर कई तरह के और बेहतर परफॉर्मेंस का दबाव होना है। दरअसल, माता-पिता बच्चों से पढ़ाई-लिखाई के अलावा अन्य गतिविधियों यथा गीत, संगीत, नृत्य, खेल, अभिनय आदि में बेहतरीन होने की उम्मीद रखते हैं। अब तो डाॅक्टरों का भी मानना है कि बच्चों पर पीयर प्रेशर, सोशल साइट्स पर नए पोस्ट, वीडियो या फोटो डालने, स्टेटस अपडेट करने आदि का भी काफी दबाव रहता है, जिस कारण वे तनावपूर्ण स्थितियों में घिरे रहते हैं। आज के दौर में बच्चों के सामने अधिकाधिक विकल्पों और एक्सपोजर्स का होना भी उन्हें स्ट्रेसफुल बनाता है।
विशेषज्ञों की मानें तो स्ट्रेस-एंजाइटी से लेकर डिप्रेशन जैसी मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं संपूर्ण स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। इनका यदि समय पर निदान न किया जाए तो इसके कारण कई तरह की बीमारियां होने का खतरा भी बढ़ जाता है। तात्पर्य यह कि अच्छा मानसिक स्वास्थ्य हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए बेहद जरूरी होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में दुनिया भर में 97 लाख से अधिक लोग मानसिक स्वास्थ्य विकारों से पीड़ित थे, जिनमें चिंता और अवसाद जैसी बीमारियां प्रमुख थीं। ऐसी ही एक स्थिति ‘बर्नआउट’ भी होती है, जिसमें कार्यरत व्यक्ति की कार्य-क्षमता और गुणवत्ता तो प्रभावित होती ही है साथ ही ये स्थिति मानसिक दबाव को भी बढ़ाने वाली मानी जाती है। बता दें कि पिछले कुछ वर्षों में कार्यालयों में कार्यरत लोगों में भी मानसिक स्वास्थ्य विकारों के मामले काफी तेजी से बढ़े हैं। वर्ष 2022 में किए गए एक सर्वेक्षण में 44 प्रतिशत नियोक्ताओं ने कर्मचारियों में कई प्रकार की मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं पाई थीं। रिपोर्ट के अनुसार लंबे समय तक या अनियमित कार्य करने, वर्क-लाइफ बैलेंस प्रभावित होने, कर्मचारियों पर कार्यों का अत्यधिक बोझ बढ़ने तथा नौकरी गंवाने की चिंता होने जैसी स्थितियां स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ा रही हैं। हाल की कुछ रिपोर्टों में कथित तौर पर इसी वजह से मौत के मामलों में भी वृद्धि पाई गई थी।
इंटरनेशनल जर्नल आफ सोशल साइकेट्री में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर चौथा व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, यथा- चिंता, तनाव, अवसाद, चिड़चिड़ापन आदि से ग्रस्त है। जाहिर है कि लगातार बढ़ रही इस समस्या के समाधान के लिए मानसिक स्वास्थ्य को लेकर देश भर में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है ताकि बीमार लोगों की उचित चिकित्सा कराई जा सके। हालांकि भारत में प्रति दस लाख आबादी पर केवल तीन मनोचिकित्सक ही उपलब्ध हैं, जबकि कॉमनवेल्थ देशों के नियम के अनुसार प्रति एक लाख की आबादी पर कम-से-कम 5-6 मनोचिकित्सक होने चाहिए।
वहीं, 2015-2016 में किए गए नवीनतम ‘राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ (एनएमएचएस) के अनुसार मनोचिकित्सकों के मामले में भारत की 0.75 की दर दुनिया के अन्य देशों की तुलना में बेहद खराब है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने 2023 में जारी रिपोर्ट ‘मानसिक स्वास्थ्य सेवा और समकालीन समय में इसका प्रबंधन’ में बताया है कि एनएमएचएस के अनुसार 2015-2016 में भारत में 9,000 मनोचिकित्सक कार्यरत थे। रिपोर्ट के अनुसार प्रति एक लाख जनसंख्या पर तीन मनोचिकित्सक रखने के डब्ल्यूएचओ द्वारा सुझाए गए लक्ष्य को प्राप्त करने में लगभग 27 वर्ष और लगेंगे, क्योंकि फिलहाल प्रत्येक वर्ष लगभग 1,000 मनोचिकित्सक ही कार्यबल में शामिल होते हैं। जाहिर है कि इस लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त करने हेतु पर्याप्त प्रोत्साहन एवं नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

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