राजनीतिक अविश्वास से उपजा सत्ता पलट
बिहार के सहरसा में जन्मे गिरिजा प्रसाद कोइराला नेपाल में चार बार प्रधानमंत्री रहे। मई, 2008 में जब वह अंतरिम सरकार के कार्यकारी प्रधानमंत्री थे, तब भी अपनी इकलौती संतान सुजाता कोइराला को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते थे, लेकिन उनका यह सपना उनके साथ ही चला गया। नेपाली कांग्रेस की राजनीति आज भी स्वर्गीय गिरिजा प्रसाद कोइराला को केंद्र में रखकर की जाती है। उसका उदाहरण मंगलवार को तब देखने को मिला, जब कोइराला की 100वीं जयंती के अवसर पर एक फोटो प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। ‘क्रांति से शांति तक’ नामक फोटो प्रदर्शनी नेपाली कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय, सानेपा, ललितपुर में आयोजित किया गया था, जहां वर्तमान प्रधानमंत्री प्रचंड आये, और इसके प्रकारांतर ‘पीएम इन वेटिंग’, केपी शर्मा ओली भी पधारे। उस अवसर पर प्रचंड का नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा से क्या संवाद हुआ, वह सार्वजनिक नहीं हुआ है। मगर, बुधवार सुबह प्रचंड ने घोषणा की, कि पहले संसद में विश्वास मत करा लेते हैं, फिर मैं कुर्सी छोड़ूंगा।
एक साल 180 दिनों से प्रचंड सत्ता में हैं। तीसरे टर्म प्रधानमंत्री पद पर बने रहना कितना कठिन होता है, उसे यों समझा जाये कि अब तक उन्हें चार बार विश्वास मत हासिल करना पड़ा है। आखिरी बार 20 मई, 2024 को प्रचंड को विश्वास मत हासिल करना पड़ा था, तब उपेन्द्र यादव के नेतृत्व वाली जनता समाजवादी पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। बुधवार शाम एमाले ने समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। उसके आठ मंत्री सरकार में थे, उन्होंने भी त्यागपत्र दे दिया। एमाले ने चौबीस घंटे के भीतर प्रचंड से प्रधानमंत्री पद छोड़ने को कहा है। प्रचंड ने सुबह ही मना कर दिया था कि फ्लोर टेस्ट के बाद ही सब तय होगा। संविधान के अनुच्छेद 100 (2) में कहा गया है कि यदि गठबंधन में कोई राजनीतिक दल अपना समर्थन वापस ले लेता है, तो प्रधानमंत्री 30 दिन के भीतर विश्वास मत के लिए प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पेश करेंगे। अब सबको लग गया है कि प्रचंड आसानी से पद छोड़ने वाले नहीं।
सोमवार को जब ‘सूर्य अस्त, नेपाल मस्त’ था, तब रात सवा बारह बजे काठमांडो के बूढ़ा नीलकंठ स्थित चपली हाइट रिसोर्ट में नेकपा-एमाले (यूएमएल) और नेपाली कांग्रेस ने सत्ता परिवर्तन का समझौता किया था। चपली समझौते में तय हो गया कि बचे हुए टर्म के आधे कालखंड में केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री रहेंगे, और शेष समय शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालेंगे।
लिखित सहमति के अनुसार, ‘ओली नेपाली कांग्रेस और अन्य सीमांत दलों के समर्थन से नई सरकार का नेतृत्व करेंगे। संविधान संशोधन किया जायेगा। समानुपातिक चुनाव प्रणाली बदली जाएगी, नेपाली कांग्रेस गृह सहित 10 मंत्रालयों का नेतृत्व करेगी। यूएमएल को वित्त सहित नौ मंत्रालय मिलेंगे। कांग्रेस और यूएमएल तीन-तीन प्रांतीय सरकारों का नेतृत्व करेंगे, मगर मधेश में सरकार का नेतृत्व एक क्षेत्रीय पार्टी करेगी।’ चपली हाइट रिसोर्ट से ही सन्देश जारी किया गया कि इस समझौते का अनुमोदन हम मंगलवार से करने जा रहे हैं, राष्ट्रीय सहमति की सरकार में माओवादियों को छोड़कर, जो शेष दल आना चाहते हैं, उनका स्वागत है। ‘चपली समझौते’ को सत्ता पलट का प्रयास कहा जाये, तो अनुचित नहीं होगा।
ओली ने यह ब्रह्मास्त्र चलाया क्यों, उसके पीछे की वजह अविश्वास है। प्रचंड अलग-अलग ठिकानों पर नेपाली कांग्रेस के नेताओं से बात कर रहे थे, यह खबर केपी शर्मा ओली को थी। एमाले के नेता प्रदीप कुमार ज्ञावाली ने बुधवार को कहा, ‘पीएम प्रचंड राष्ट्रीय सर्वसम्मति वाली सरकार बनाने के लिए पिछले एक महीने से नेपाली कांग्रेस के नेताओं के साथ बातचीत कर रहे थे, जिससे अविश्वास की स्थिति पैदा हो गई। इसने अंततः हमें नेपाली कांग्रेस के साथ बातचीत शुरू करने के लिए मजबूर किया।’ लेकिन केवल यही बात नहीं थी, राजदूतों की नियुक्तियों में भी दोनों नेताओं में तू-तू, मैं-मैं हुई थी।
पांच टर्म प्रधानमंत्री रह चुके शेर बहादुर देउबा 26 दिसंबर, 2022 को सत्ता से बाहर हुए थे, उसी दिन केपी शर्मा ओली की पार्टी ‘नेकपा-एमाले’ की मदद से प्रचंड प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन, ओली से पटरी बैठना प्रचंड के लिए भी आसान नहीं था। मंत्रालयों की फाइलें और राजदूतों की नियुक्तियां मतभेद का कारण बनती चली गईं। देश आर्थिक रूप से जर्जर और ज़रूरी वस्तुओं से अभावग्रस्त होने लगा। इंडस्ट्री धड़ाधड़ बंद होने लगी, मगर दोनों नेताओं में अहं का टकराव चरम पर था। ओली और दाहाल के बीच दरार की सबसे बड़ी वजह नेपाल प्रतिभूति बोर्ड (सेबन) में अध्यक्ष की नियुक्ति, झापा स्थित गिरीबन्धु चाय बगान भूमि स्केंडल में फंसे ओली, और भूटानी शरणार्थियों की कबूतरबाज़ी का मामला भी रहा है। तीन महीने से अधिक समय से सेबन चेयरमैन का पद ख़ाली है, जिससे अरबों रुपये के प्रतिभूति के आवेदन अटके पड़े हैं। दोनों नेता अपने भरोसे के आदमी को शिखर पर बैठाना चाह रहे थे। पांच उम्मीदवार शॉर्टलिस्ट किए गए। लेकिन जब कोई निष्कर्ष नहीं निकला, तो शुक्रवार को वित्त मंत्रालय ने ‘सेबन’ में अध्यक्ष की नियुक्ति को रद्द करने की घोषणा कर दी।
नेपाल में भूटानी शरणार्थियों को अमेरिका भेजने वाले रैकेट पर कोई भी खुलकर बोलने से परहेज कर रहा है, जिसमें कई दलों के नेता-दलाल-नौकरशाह फंसे हैं। इसमें एक शख्स बेचन झा का नाम आया था, जिसकी गिरफ्तारी टल रही थी। बेचन झा नेपाली कांग्रेस का आदमी बताया जाता है, जिसे कंचनपुर में 30 जून को दो करोड़ के चेक के साथ गिरफ्तार किया गया। कंचनपुर पूर्व परराष्ट्रमंत्री व कांग्रेस नेता नारायण प्रकाश सऊद की कांस्टिचुएंसी है, जिसने जांच एजेंसियों की दुविधा बढ़ा दी है।
नेपाल में अगली सरकार दुरभिसंधि से ही चलेगी, यह तो स्पष्ट है। लेकिन संविधान संशोधन और समानुपातिक प्रणाली समाप्त करने का जो संकल्प ‘चपली समझौते’ में किया गया है, उसके लिए दो-तिहाई मत कहां से जुटा पाएंगे? 2008 से नेपाल में मिश्रित चुनावी प्रणाली लागू है, जिसमें 60 प्रतिशत प्रतिनिधि प्रत्यक्ष चुनाव से, और 40 प्रतिशत समानुपातिक प्रतिनिधित्व के ज़रिये चुने जाते हैं। यदि संविधान बदलना है, तो संशोधन के लिए निचले और ऊपरी सदन, दोनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता है। निचले सदन में नेपाली कांग्रेस के 88, और एमाले के 78 सभासदों से बात बनेगी नहीं। इन्हें दो-तिहाई बहुमत के लिए 18 और सांसदों के समर्थन की आवश्यकता होगी। और 59 सदस्यीय उच्च सदन में भी दो-तिहाई (40 वोट) बहुमत हासिल करने के लिए नेकपा-माओवादी सेंटर को छोड़कर, हर पार्टी के समर्थन की आवश्यकता होगी। यह आकाश कुसुम तोड़ने जैसा है। ओली के लिए फिलहाल तो मिशन प्रचंड है। लेकिन, नेपाल के एक करोड़ 80 लाख वोटर क्या ठगा सा महसूस नहीं कर रहे होंगे?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।