देश की खुशहाली के सूचकांक में भी हो वृद्धि
सुरेश सेठ
हम पांचवीं आर्थिक महाशक्ति से तीसरी और फिर दुनिया की पहली आर्थिक महाशक्ति 2047 तक बनने का सपना भी संजोए हैं। खबर है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर पांच वर्ष तक चीन से तेज रहेगी। 2028 तक 8 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर भारत हासिल कर सकता है। यह बात अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने कही है। भारत ने विश्वव्यापी आर्थिक मंदी को छका दिया। देखते ही देखते भारत न केवल डिजिटल हो गया बल्कि इंटरनेट की ताकत में उसका कोई जवाब नहीं। वे दिन गए जब भारत को अल्पविकसित देश मानकर उपेक्षित कर दिया जाता था। आज भारत उच्च मध्यवर्ग की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है।
साक्ष्य के लिए कहा जाता है कि पिछले एक-दो साल के लोगों का उपभोग तेवर देख लीजिए। सबसे अधिक खरीदारी बड़ी कारों और बड़े फ्लैटों की हो रही है। चाहे इसके बरक्स देश की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए मांग कम प्राप्त हो रही है। शायद इसका कारण यह है कि देश की बहुत बड़ी आबादी जीवन निर्वाह से भी निचले स्तर पर जीती है और महंगाई की वजह से वह अधिक मांग करने के काबिल नहीं। लेकिन निजी क्षेत्र की अभूतपूर्व तरक्की के कारण सारी मांग उच्च मध्यवर्ग की वस्तुओं पर केन्द्रित हो गई है। हमारे विचार में यह एक असंतुलित मांग का पैमाना है। लेकिन इस कृषि प्रधान देश में कृषि की विकास दर उत्साहजनक नहीं है। इसके अलावा मूलभूत आर्थिक ढांचे के विकास के लिए बुनियादी उद्योगों के विकास की जरूरत होती है। नये आंकड़े बता रहे हैं कि बुनियादी उद्योगों की तरक्की में वह चमक नजर नहीं आ रही है जो स्थाई रूप से विकसित एक देश में होनी चाहिए। हम जो भी तरक्की देख रहे हैं, उसके मूल में तीन क्षेत्र हैं : सेवा क्षेत्र, पर्यटन क्षेत्र और इसके अतिरिक्त आईटी सॉफ्टवेयर क्षेत्र। लेकिन वहां तरक्की के आसार नहीं बल्कि छंटनी के अवसर पैदा हो रहे हैं। और सेवा क्षेत्र में भी सुस्ती नजर आ रही है। जबकि सेवा क्षेत्र से ही हमें मिलता है रोजगार। बार-बार घोषणा करने के बावजूद हम अपने देश में लघु और कुटीर उद्योगों का विकास नहीं कर पाए जो कि रोजगारपरक उद्योग होते हैं।
इसके साथ ही हम खेतीबाड़ी को फसलों के फिनिश प्रोडक्ट्स यानी विनिर्माण उद्योग के साथ भी जोड़कर कस्बों में एक नई औद्योगिक दुनिया नहीं बसा पाए, जो छोटे उद्योगपतियों की दुनिया हो और बहुत लोगों को रोजगार दे। अब सेवा क्षेत्र की यह सुस्ती खेतीबाड़ी में अपेक्षित वृद्धि का न होना और बुनियादी उद्योगों के विकास में चमक का अभाव किसी आसन्न संकट की ओर इशारा भी कर सकता है कि यह 8 प्रतिशत विकास दर स्थायी नहीं। कहा जा रहा है कि हमने 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया। यह भी कहा जा रहा है कि बेरोजगारी का आंकड़ा कम होकर 3.1 प्रतिशत पर आ गया है लेकिन नई शिक्षा प्राप्त युवकों को सेवा क्षेत्र और आईटी क्षेत्र में छंटनी का सामना करना पड़ रहा है। उद्योग क्षेत्र का प्रदर्शन भी इस वर्ष की तीसरी तिमाही में उत्साहजनक नहीं। यदि देश के मूल धंधे कृषि में अपेक्षित विकास प्राप्त नहीं कर पाते, उद्योगों में वह तरक्की नहीं मिलती कि जो बेकारों को रोजागर दे सके।
आज भी भारत आयात आधारित अर्थव्यवस्था है, निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था नहीं बन पाया। इसलिए जरूरी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की आर्थिक प्रवृत्ति की पहचान की जाए। यह समझा जाए कि हमारा मूल धंधा खेतीबाड़ी है। आज भी देश की 50 प्रतिशत जनसंख्या खेतीबाड़ी में लगी हुई है लेकिन सकल घरेलू उत्पादन या जी.डी.पी. में इसका योगदान घटकर केवल 17 प्रतिशत क्यों हो गया, यह बात सोचने योग्य है। इसका कारण यह है कि आज भी जोतें 2 एकड़ से नीचे और अनार्थिक हैं। हमने सहकारी खेती का वह मूलमंत्र अभी तक सीखा नहीं, जिसने इसराइल में कायाकल्प कर दिया था। सवाल है श्रमशक्ति का उचित इस्तेमाल देश में क्यों नहीं होता? क्यों इस श्रमशक्ति का एक बड़ा हिस्सा विदेशों में पलायन को विवश है।
जरूरत देश को अपनी प्राथमिकताएं बदलने की हैं। केवल आर्थिक विकास दर के ऊंचा होने के परिणाम ही देश के जन-जन का संकट नहीं हरेंगे। यहां खेतीबाड़ी और छोटे उद्योगों को भी पूरा प्रोत्साहन देना होगा। खेती के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं हुआ। किसान फसलचक्र की गुलामी से निजात नहीं पा सका और फसलों का विविधीकरण उसके लिए अभी तक लाभप्रद नहीं। इसीलिए किसान अपनी जमीन से उखड़ता जा रहा है। उद्योग-धंधे या हमारे निवेशक वह प्रतिदान नहीं कर पा रहे जिसकी उम्मीद किसी भी विकासशील देश को होनी चाहिए। देश की सबसे बड़ी शक्ति उसकी युवा पीढ़ी है। देश की आधी जनसंख्या युवा है। इसे असमय बूढ़ा न होने दिया जाए। सबको यथोचित काम-धंधे का प्रबंध ही हमारी आर्थिक नीति की वह प्राथमिकता होगी, जिसे अपनाने के बाद हम खुशहाली के सूचकांक में वास्तव में दो कदम आगे बढ़ जाएंगे।
लेखक साहित्यकार हैं।