For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

मनुष्यता की पराजय का दंश न झेले देश

06:39 AM Oct 17, 2024 IST
मनुष्यता की पराजय का दंश न झेले देश
Advertisement
विश्वनाथ सचदेव

उत्तर प्रदेश के बहराइच में जो कुछ हुआ और हो रहा है वह कोई नई बात नहीं लग रही। सांप्रदायिकता की आग को हवा देकर मनुष्य को मनुष्य से दूर करने का ‘खेल’ हमारी राजनीति का आजमाया हुआ हथियार रहा है। आज़ादी से पहले और आज़ादी प्राप्त करने के बाद भी अक्सर हमारे यहां धर्म के नाम पर समाज को बांटने का काम राजनीतिक ताकतें करती रही हैं। यह खतरनाक ‘खेला’ कितना राजनीतिक लाभ देता है या दे सकता है, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। सच तो यह है कि सांप्रदायिकता और जातीयता के नाम पर वोटों की राजनीति सब कर रहे हैं। क्या यह सच्चाई नहीं है कि हमारे राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन का आधार ‘जीतने की संभावना’ को बताकर जातीयता या धर्म का ही सहारा लेते हैं। कौन-सा दल ऐसा है जो अपना उम्मीदवार तय करने के लिए यह नहीं देखता कि क्षेत्र विशेष में किस जाति या धर्म के लोग अधिक प्रभावशाली हैं? यह एक पीड़ादायक सच्चाई है कि विविधता में अपनी ताकत देखने वाला हमारा देश धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर भीतर ही भीतर लगातार बंटता जा रहा है? हमारे राजनेता कुछ भी कहें, पर राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित अक्सर इन्हीं आधारों पर तय होता है। यह एक शर्मनाक सच्चाई है। पर कितनों को शर्म आती है इस सच्चाई पर?
सच तो यह है कि हम इस सच्चाई से रूबरू होना ही नहीं चाहते। यदि ऐसा न होता तो कभी तो हम अपने राजनेताओं से पूछते कि उनकी कथनी और करनी में इतना अंतर क्यों है? क्यों अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए वे धर्म या जाति के नाम पर बंटने के खतरों को समझना नहीं चाहते?
आज भाजपा वाले कांग्रेस पर यह आरोप लगाते नहीं थकते कि वह तुष्टिकरण की राजनीति करती रही है, अब भी कर रही है, और दूसरी ही सांस में उनकी सरकारें एक तरफ बहुसंख्यकों को रिझाने में लगी दिखती हैं और दूसरी ओर अल्पसंख्यकों पर डोरे डालती! उत्तर प्रदेश में मदरसों की राजनीति का खेल हम अरसे से देखते चले आ रहे हैं। ‘मदरसों की राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों’ का हवाला देने से न थकने वाले जब महाराष्ट्र में चुनाव के मद्देनजर मौलवियों का वेतन बढ़ाते दिखते हैं, हां राजनीति का दोमुंहापन छिपाये नहीं छिपता। सवाल मौलवियों को उचित वेतन मिलने का नहीं है। सबको उनका उचित देय मिलना ही चाहिए, पर जब दूसरे द्वारा किया कोई काम ‘रेवड़ी बांटना’ लगे और स्वयं वही काम करना ‘न्याय देना’ तो इसे एक राजनीतिक विद्रूप के अलावा और क्या कहा जाएगा?
हाल ही में एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने यह आशा व्यक्त की थी कि धर्म को राजनीति से दूर रखा जायेगा। पर देश ने यह आशा कब नहीं की थी? और कब उसकी यह आशा पूरी हुई? जब बड़े-बड़े राजनेता चुनावी सभाओं में कपड़ों के आधार पर लोगों को पहचानने की बात करते हैं, मंगलसूत्र छीनने का हवाला देते हैं, मंदिर-मस्जिद के नाम पर राजनीति करते हैं, तो सवाल उठाना ही चाहिए कि यह सब कहने का अधिकार और अवसर उन्हें क्यों दिया जाये? जब हमने आज़ादी पायी थी तो अपने लिए धर्मनिरपेक्षता का रास्ता चुना था। आज भी कुल मिलाकर देश की जनता सर्वधर्म समभाव के आदर्श में ही विश्वास करती है लेकिन, आज भी कुछ लोग हैं हमारे देश में जो बंटवारे के समय रह गए कथित काम को अब पूरा करने की दुहाई दे रहे हैं! क्या अर्थ है इसका? आखिर वे चाहते क्या हैं? और क्यों ऐसी बात कहने वालों को बेनकाब नहीं किया जाता? बहुसंख्यकों को एकजुट होने के समय का हवाला देने वालों को यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि विश्वास, भगवान और राजनीति के बीच रेखाएं क्यों मिटायी जा रही हैं?
जीवन में विश्वास और धर्म का अपना स्थान है–इन्हें राजनीतिक नफे-नुकसान के तराजू पर नहीं तोला जाना चाहिए। पर दुर्भाग्य से ऐसा करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। और यह काम बिना किसी हिचकिचाहट के हो रहा है! कहीं कोई मुख्यमंत्री अपने राज्य में मंदिरों के विकास का आश्वासन दे रहा है तो कहीं चुनावी सभाओं में बड़े राजनेता धार्मिक नारे लगवाना ज़रूरी समझने लगे हैं। हद तो तब हो जाती है जब ‘ईश्वर-अल्लाह तेरा नाम’ कहना भी किसी राजनेता को खटकने लगता है! उनकी शिकायत यह है कि राष्ट्रपिता बापू के प्रिय भजन के यह शब्द तो मूल भजन में थे ही नहीं! इसे बीमार मानसिकता के अलावा और क्या संज्ञा दी जा सकती है?
यह देश 140 करोड़ भारतीयों का है, हम सबका है। इसकी पहचान को किसी धर्म विशेष के नाम से जोड़े जाने की कतई आवश्यकता नहीं है। हम किसी भी धर्म को मानने वाले क्यों न हों, मूलत: हम सब भारतीय हैं। हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हम सब धर्मों को आदर की दृष्टि से देखते हैं। ईश्वर एक है, धर्म उस तक पहुंचने का मार्ग है। मार्ग भले ही अलग-अलग हों, पर सब पहुंचाते एक ही लक्ष्य पर हैं। महात्मा गांधी जब ‘सबको सन्मति दे भगवान’ वाली बात कहते थे तो मनुष्य मात्र के कल्याण का सोच था इसके पीछे। सर्वे भवंतु सुखिनः वाले आदर्श में विश्वास करने वाली चेतना वाले देश में जब कोई राजनेता ‘अंजाम बुरा होगा’ या ‘ज़ुबान काट ली जायेगी’ जैसी बातें कहता है तो यह सवाल भी मन में उठता है कि ऐसी बातों को हम सहते क्यों हैं?
नहीं, हमें यह सब नहीं सहना। ऐसी बातों पर चुप्पी का मतलब एक मौन समर्थन ही हो सकता है। ग़लत बातों का ऐसा समर्थन अपराध भी है और पाप भी। धर्म के नाम पर समाज में दीवारें खड़ी करने वाले, चाहे वे किसी भी धर्म को मानते हों, उस समाज के दुश्मन हैं जो दुनियाभर को बंधुत्व का मंत्र देने वाला है। यह वह मानवीय समाज है जिसके आंगन में धर्म या जातीयता की दीवारें खड़ी करना अपने आप में एक गंभीर अपराध है। विवेकशील नागरिक का कर्तव्य है कि वह ऐसे अपराध करने वालों को सही राह पर चलने की प्रेरणा दे। ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसी बात का सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है– हम सब मनुष्य बने रहें। इसका और कोई भी अर्थ मनुष्यता को कलंकित करने वाला है। अपने भीतर के मनुष्य को जागृत रखना ही हमारे अस्तित्व की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। उत्तर प्रदेश के बहराइच में भी यह जागृति ज़रूरी थी और बिहार के सीतामढ़ी में भी। ध्यान रहे, कोई ‘बहराइच’ या ‘सीतामढ़ी’ हमारे भीतर मनुष्यता की पराजय का ही प्रतीक है। यह पराजय किसी भी शर्त पर स्वीकार्य नहीं हो सकती।

Advertisement

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement