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बूंद-बूंद सहेजने की मानसिकता बनाए देश

08:08 AM Mar 27, 2024 IST
बूंद बूंद सहेजने की मानसिकता बनाए देश
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पंकज चतुर्वेदी

इस बार भी अनुमान है कि मानसून की कृपा देश पर बनी रहेगी। ऐसा बीते दो साल भी हुआ उसके बावजूद बरसात के विदा होते ही देश के बड़े हिस्से में बूंद-बूंद के लिए मारामारी शुरू हो जाती है। मानना चाहिए कि जल स्रोत तो बारिश ही है और जलवायु परिवर्तन के कारण साल दर साल बारिश का अनियमित होना, बेसमय होना और अचानक तेजगति से होना घटित होगा ही। आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
यह सवाल देश में हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि के किसान प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते हैं। दरअसल, लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। लेकिन हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित हो पाता है। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है। वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप ने खेतों में स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। थेाड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान दुखी दिखता है।
देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि देश में आठ महीनों में पानी का जुगाड़ ना तो बारिश से होता है और ना ही नदियों से।
दुखद है कि बरसात की हर बूंद को सारे साल जमा करने वाली गांव-कस्बे की छोटी नदियां बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ के चलते या तो लुप्त हो गई या गंदे पानी के निस्तार का नाला बना दी गईं। देश के चप्पे-चप्पे पर छितरे तालाब तो हमारा समाज पहले ही चट कर चुका है। कुएं तो बिसुरी बात हो गए। बाढ़-सुखाड़ के लिए बदनाम बिहार जैसे सूबे की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा। गत तीन दशक के दौरान राज्य की 250 नदियां लुप्त हो चुकी हैं। बिहार में पानी के लिए हत्या का आंकड़ा देश में सर्वाधिक है।
झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाइलों में तो दर्ज है लेकिन उनकी चिंता किसी को नहीं । नदियों का जीवनस्थल कहा जाने वाला उत्तराखंड हो या फिर दुनिया की सबसे ज्यादा बरसात के लिए मशहूर मेघालय, छोटी नदियों के लुप्त होने का सिलसिला जारी है।
प्रकृति तो हर साल कम या ज्यादा, पानी से धरती को सींचती ही है। लेकिन असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खंीचना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलीचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब -वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है।
निस्संदेह, प्रकृति जीवनदायी संपदा पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना।

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