मोदी और ट्रंप से प्यार और खार के द्वंद्व
व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी से अमेरिका में इन दिनों ठीक वैसी भावनाआें की तीव्रता उमड़ रही है जैसी पिछले एक दशक में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारत में अनुभव हुई है। वहां की तथाकथित ‘उदारवादी प्रेस’ ने ट्रंप के जीतने पर एक अंधकारमय, प्रलंयकारी परिदृश्य को चित्रित करने के लिए अपनी हदें पार कर दीं, जबकि ट्रंप समर्थक तथाकथित ‘रूढ़िवादी मीडिया’ - जिसकी अगुवाई एलन मस्क का सोशल मीडिया मंच एक्स कर रहा था–उसने अमीरों के कुलीन पहनावे वाले व्यक्ति (ट्रंप) की छवि चमकता बख्तरबंद पहने एक योद्धा के रूप में पेश की, जो बचाने आया है।
यह हैरानी भरा भाव है कि जिस प्रकार का भावनात्मक मिश्रण मोदी के प्रति भारत में दिखता है, उससे मिलता-जुलता ट्रंप के लिए भी दिखा। मोदी द्वारा 2014, 2019 और 2024 में पाई सफलता में चुनावी उल्लास बनाम उदासी भरा आक्रोश, तीनों बार एक पहचान रही। निश्चित रूप से, यह स्पष्ट है कि भारत में भी, अमेरिका की तर्ज पर ध्रुवीकरण करने वाले व्यक्तित्व -मोदी और ट्रंप - के वजन के तले खुशहाल मध्य वर्ग का हिस्सा काफी हद तक गायब हो गया है। बड़ा सवाल यह है कि क्योंकर मीडिया और चुनाव-पंडिताें, दोनों के अनुमान लगातार गलत निकल रहे हैं। क्या हमें मोदी और ट्रंप को खारिज करना इतना भाता है कि हम वास्तव में यह देखने और सुनने से इनकार कर रहे हैं कि जिन लोगों के विचारों, इच्छाओं और चिंताओं को हम व्यक्त करने का दावा करते हैं, वे वास्तव में क्या कहते हैं?
अमेरिका की तरह - जहां चुनाव-पंडितों ने दौड़ को बराबरी पर ला दिया था, और द न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अख़बारों ने तो फ्लोरिडा में ट्रंप द्वारा विजय-भाषण देने के बहुत बाद तक यह मानने से इनकार किए रखा कि वे जीत गए हैं - भारत में भी, हममें से कइयों ने अपने दिल को अपने दिमाग पर हावी होने दिया, संयोगवश दोनों दिशाओं में। साल 2014 और 2019 में, हम यह यकीन नहीं कर पा रहे थे कि भारतीय अपने दोनों हाथों से मोदी को वोट दे रहे हैं, साल 2022 में, हमने यह मानने से इनकार कर दिया कि योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में जीत हासिल की है – हमने कहा, क्या कोविड-19 के दौरान हुई हज़ारों मौतें इस बात का सुबूत नहीं हैं कि ईश्वर स्वयं उनके खिलाफ हो गए हैं? साल 2024 में, हमें उतनी ही हैरानी हुई जब उसी उत्तर प्रदेश ने खुद को पूरी तरह से भाजपा को सौंपने से इनकार कर दिया।
इन तमाम मामलों में, हमने खुद को मुगालतों में इतनी गहराई तक डुबो दिया कि ज़मीनी हकीकत पर ध्यान देने से आंखें मूंद लीं। इससे भी बदतर, एक बार जब ये जनादेश हमारे सामने थे, तब भी हममें से कई लोगों ने उन्हें सीधे तौर पर स्वीकार करने से इनकार कर दिया। हमने जोर देकर कहा कि मोदी और ट्रम्प के साथ कुछ तो गड़बड़ है - जो सच हो भी सकता है और नहीं भी। बदतर यह कि, हम राहुल गांधी या कमला हैरिस में से किसी पर भी वही सख्त पैमाना लागू करने से बचे।
तो आइए, आज तथ्यों का सामना करें। तथ्य यह है कि हैरिस इसलिए हारी क्योंकि उसने किसी भी मुद्दे पर डटने की कोशिश नहीं की– भले ही ट्रम्प का कई मामलों में नाम है, उनकी छवि यौन उच्छृंखलता के आरोपों वाली है या इससे भी अधिक बुराइयां होने की है, लेकिन कम से कम उन्होंने इमिग्रेशन बंद करके (जो भारत के लिए बुरी खबर है) अमेरिका में रोजगार की उपलब्धता बढ़ाने का वादा किया। जहां तक राहुल का सवाल है, तथ्य यह है कि मेरे जैसे लोग डिनर के दौरान सियासत पर चर्चा में बेशक उनके कई विचारों से दिल से सहमत होंगे, लेकिन संकोचपूर्वक यह भी स्वीकार करेंगे कि ऐसा कौन सा मुद्दा है, जिसके लिए वे लड़ मरने को तैयार हों।
अमेरिका और भारत जैसे प्रदूषित लोकतंत्र में बल्कि ट्रम्प और मोदी जैसी श्ख्सियतों को चुनना पसंद करेंगे क्योंकि वे इसकी गिरावट या रूपांतरण से समाज को मिली अराजकता का सरलीकरण करने में सक्षम हैं। जिन लोगों को हम चुनते हैं उनके जीवन के स्याह पक्षों को अनदेखा कर देते हैं–चाहे यह 6 जनवरी, 2021 को अमेरिका के सत्ता केंद्र यानि व्हाईट हाउस पर ट्रंप समर्थकों का हमला हो या फिर 2002 में गुजरात में घटा दु:स्वप्न हो- क्योंकि हम उनके वर्तमान आश्वासनों में यह सुकून ढूंढ़ते हैं कि वे हमारे मौजूदा कठिन जीवन को बेहतर बनाएंगे। वे हमें सहज ढंग से यह पेश करते हैं। उनके विरोधियों पर यकीन करने से अधिक हमें उन पर अविश्वास कम होता है। मतदाताओं ने ट्रंप को वोट देने की एक वजह यह बताई – यहां तक कि डेमोक्रेट पार्टी के रिवायती समर्थक दक्षिणी अमेरिकी राज्य जॉर्जिया के अश्वेत लोगों की बहुलता वाले जिले भी लगभग पूरी तरह से उनके पक्ष में चले गए, इसके अलावा उनके लेटिन वोट में 14 प्रतिशत का इजाफा हुआ - क्योंकि उनका मानना था कि डेमोक्रेट्स अपने मतदाताओं को हल्के में लेने लगे हैं।
यह कुछ सुना-सुना सा लगता है न? निश्चित रूप से यह राहुल की कांग्रेस की तरह है, खासकर वे जो शिकायत कर रहे हैं कि हरियाणा में ईवीएम में धांधली थी। मतदाताओं ने हैरिस के खिलाफ रुख दिखाया, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के मामले में किया, जब उन्होंने अपनी पार्टी के कुमारी सैलजा, रणदीप सुरजेवाला और बीरेंद्र सिंह जैसे नाराज़ नेताओं को साथ लेकर चलने से इनकार कर दिया। हरियाणा के हर निर्वाचन क्षेत्र के अपने माइक्रो-मैनेजमेंट से गैर-जाट वोटों पर ध्यान केंद्रित करने वाली भाजपा की तरह, डाटा दिखाता है कि ट्रंप ने पिछले 40 वर्षों में किसी भी अन्य रिपब्लिकन उम्मीदवार की तुलना में अधिक गैर-श्वेत वोट जीते हैं।
बदतर कि जब यूपी में भाजपा ने 29 सांसद गंवाए और इसके परिणामवश लोकसभा में बहुमत, तो कांग्रेस इसका राग अलापना नहीं छोड़ा, वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी ने जल्द बूझ लिया कि आधे-अधूरे नीतिगत निर्णयों जैसी कोई अवस्था नहीं होती इसलिए वे बतौर प्रधानमंत्री वह सब करने में सक्षम हैं जो पूर्ण बहुमत के साथ करते। लिहाजा अपनी सत्ता को मजबूत करने और यूपी का बदला चुकाने का एकमात्र रास्ता आने वाले प्रांतीय चुनावों को जीतना है-हरियाणा हो या महाराष्ट्र या फिर झारखंड।
हालांकि, ऐसा लगता है कि पंजाब पर अलग नियम लागू किए जा रहे हैं - एक ऐसा राज्य जो मोदी के सामने डटकर खड़ा हुआ और उन्हें तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर किया। पिछले कुछ हफ्तों में धान की खरीद में भारी मुश्किल के बारे में बहुत सारे सवाल पूछे जा रहे हैं - क्या इसे टाला नहीं जा सकता था, इस परिप्रेक्ष्य में कि पंजाब एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य है, जो कृषि पर काफी हद तक निर्भर है? क्या केंद्र को समझदारी से पंजाब से अन्य राज्यों को धान की निकासी नहीं करवानी चाहिए? ऐसा क्यों है कि इस साल ही भारतीय खाद्य निगम ने यह खोज की कि पंजाब ने जो चावल अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक को भेजा, वह खराब है? शायद, सोशल मीडिया पर वायरल हो रही नकारात्मकता की बू इसमें कुछ सही लगे। इन उलझे सवालों का जवाब देने का अन्य तरीका यह है कि मोदी –और हिम्मत कर कहूं कि ट्रंप भी - सत्ता की प्रकृति को समझते हैं। राजनीति कोई किटी पार्टी या एनजीओ नहीं। यदि मतदाता आपको एक निश्चित संख्या से अधिक वोट नहीं देते हैं - उदाहरण के लिए, 2024 के लोकसभा चुनावों में पंजाब में भाजपा ने 18.3 प्रतिशत से अधिक वोट पाए - तो अन्य उपाय किए जाने की जरूरत है। उनमें से, फूट डालो और राज करो – किताबों में दिया सबसे पुराना सूत्र।
अब जबकि ट्रंप अमेरिका की सत्ता पर काबिज हो गए हैं, यह समय है घर पर ध्यान केंद्रित करने का। महाराष्ट्र के साथ-साथ, आइए शुरुआत करें 20 नवंबर को पंजाब में होने वाले चार उपचुनावों से। खेल शुरू हो।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।