सही मायनों में रचनाओं का मूल्यांकन होना अभी भी बाकी
अशोक भाटिया
भारतीय भाषाओं के शीर्ष व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का साहित्य स्वतंत्र भारत के लगभग पांच दशकों के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ का विश्वसनीय और कलात्मक दस्तावेज़ है। बाईस अगस्त, 1924 को होशंगाबाद (म.प्र.) के जमानी गांव में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे हरिशंकर परसाई स्कूली छात्र थे जब इनकी मां चल बसीं और पिता को असाध्य बीमारी हो गई। यहां से परसाई का जीवन संघर्ष की राह लेता है। हिंदी में एम.ए., टीचिंग डिप्लोमा तक शिक्षा पाकर पहले जंगल विभाग में वर्ष 1942 में नौकरी, फिर 1957 तक अनेक स्कूलों में अध्यापन के बाद वे स्वतंत्र लेखन में उतर आए। निबंध, कहानी, उपन्यास तथा रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण व लघुकथा आदि विधाओं में करीब दो दर्जन लोकप्रिय पुस्तकें देने वाले परसाई 10 अगस्त, 1995 को जब संसार से विदा हुए तो व्यंग्य का सम्मान बढ़ गया था। अब हरिशंकर परसाई और व्यंग्य एक-दूसरे के पर्याय मान लिए गए हैं।
परसाई का कथा-साहित्य सन पचास-पचपन की ‘नयी कहानी’ और ‘नयी कविता’ की नव-रूमानियत के समानान्तर क्रांतिकारी यथार्थवाद की मिसाल कायम करता है। अपनी कहानियों में वे निष्क्रिय ईमानदारी और चतुर सक्रियता- दोनों को बेनकाब करते हैं। ‘सदाचार का ताबीज़’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘जैसे उनके दिन फिरे’ कथा-संग्रहों के शीर्षक ही यथार्थ और व्यंग्य के रासायनिक मिश्रण का असर बता देते हैं। कुछ और कहानियों के नाम इसी तासीर के हैं–‘एक मध्यवर्गीय कुत्ता, निठल्लेपन का दर्शन, गांधीजी का शाल, दो नाकवाले लोग, हनुमान की रेल-यात्रा व इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ आदि। इसी प्रकार ‘अपनी-अपनी बीमारी’, ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ आदि निबंध-संग्रह अपने समय की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। निंदा रस, प्रेम-प्रसंग में फ़ादर, एक अशुद्ध बेवकूफ व परमात्मा का लोटा आदि निबंधों से लेखक की अपने समय के यथार्थ पर पकड़ का पता चलता है। अपने निबंधों में वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए विषय के साथ हर लिहाज़ से न्याय करते हैं। नये रूप में उभर रही लघुकथा को भी वे अभिव्यक्ति की सामर्थ्य से समृद्ध करते हैं। जो समीक्षक लघुकथा को सन सत्तर से प्रारंभ हुई बताते हैं, वे इनकी ‘भगवान को घूस’, (1950), ‘बात’ (1954), ‘संस्कृति’ (1956) जैसी श्रेष्ठ लघुकथाएं पढ़कर अपनी धारणा बदल सकते हैं। अपनी पुस्तक ‘नींव के नायक’ में मैंने इनकी बारह ऐसी लघुकथाएं संकलित की हैं। वर्ष 1985 में प्रकाशित ‘परसाई रचनावली’ (छह भाग) के दूसरे खंड में इनकी करीब 80 लघुकथाएं इन्हें हिंदी-लघुकथा की वरिष्ठ त्रयी- रावी, विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई- में प्रतिष्ठित करती हैं। शासन-प्रशासन के छल-छद्म को यहां भी वे निर्ममता से उघाड़ते हैं।
परसाई सामयिक विषयों पर भी नियमित रूप से स्तम्भ लिखते रहे। साल 1947 से 60 तक वे ‘प्रहरी’ (जबलपुर, साप्ताहिक) में ‘नर्मदा के तट से’ स्तम्भ अघोर भैरव नाम से लिखते रहे। ‘परिवर्तन’ में ‘अरस्तू की चिट्ठी’ नाम से, ‘सारिका’ में ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ नाम से, ‘कल्पना’ पत्रिका में ‘और अंत में’ नाम से तथा ‘करंट’ में ‘माटी कहे कुम्हार से’ नाम से लिखे स्तम्भ बहुत लोकप्रिय रहे। लेखन के साथ उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता भी निरंतर बनी रही। साठ के दशक में ‘प्रहरी’ में लेखन-सम्पादन का सहयोग, जबलपुर ‘साहित्य संघ’ के महासचिव और 1956-58 तक ‘वसुधा’ का संपादन-प्रकाशन आदि दायित्व इन्होंने बखूबी निभाए।
कबीर, निराला और मुक्तिबोध की परम्परा में ही परसाई की रचनाशीलता भी आलोचना के बने-बनाए सांचों को चुनौती देती है। वे विविध विषयों पर लिखते समय विधा की सीमा को अपनी सीमा नहीं बनाते, बल्कि विषय की जरूरत के मुताबिक उस विधा के चौखटों को तोड़ते हैं। अपनी शुरुआती कथा-रचनाओं ‘तट की खोज’, ‘रानी नागफनी की कहानी’ आदि में वे संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज की मिली-जुली शैली का प्रयोग करते हैं। आज विधाओं की अंतर्भुक्ति का आयाम चर्चा में है, वह काम परसाई बहुत पहले कर चुके थे। लेकिन उनका साहित्य आरम्भ से ही उपेक्षा का शिकार रहा है। रूढ़िवादी लेखकों को परसाई के साहित्य से परेशानी होना स्वाभाविक था। यहां तक कि प्रगतिशील लेखकों ने भी आरम्भ में उनसे दूरी बनाए रखी। शुरू से ही उनको ‘व्यंग्यकार’ कहकर विभिन्न विधाओं के खांचे से बाहर रखने के प्रयत्न होते रहे। उनकी रचनाएं गुणवत्ता के कारण पाठ्यक्रमों में शामिल की जाती हैं।
परसाई वर्तमान की कलात्मक चीर-फाड़ करते हुए भी अपने समय का अतिक्रमण करते हैं। ज्ञानरंजन का कथन है-‘उनकी रचना बताती है कि समय जो आने वाला है, वह कितना भयानक हो सकता है।’ परसाई की वैचारिकता और साहित्य में भेद नहीं मिलता। वे कहते हैं, ‘जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता, वह अनंतकाल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है।’ और एक रचना में वे लिखते हैं, ‘शाश्वत साहित्य दो पंक्तियों में आ जाता है– सदा सच बोलो, हिंसा न करो, पराई स्त्री को माता समझो।’
भारतीय आचार्यों ने वक्रोक्ति की मारक क्षमता को पहचाना था; परसाई ने व्यंग्य के सटीक-सार्थक प्रयोग द्वारा उसे कलात्मक सृजन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति के स्तर तक पहुंचाया। बालमुकुन्द गुप्त की निबंध-परम्परा की मजबूत कड़ी बने हरिशंकर परसाई का वास्तविक मूल्यांकन होना अभी शेष है।