प्रवासी भारतवंशियों की जटिल दास्तां
ज्योति मल्होत्रा
लगता है ऊषा चिलुकुरी वेंस पर लिख-लिखकर न्यूयॉर्क टाइम्स का दिल नहीं भर रहा। बात चाहे उनकी गैर-डिज़ाइनर पोशाकों की हो या वो चौरस हील पहनती हैं या फिर उनके बाल काले हैं जिसमें सफेद बालों की लटें साफ दिखाई पड़ती हैं– वास्तव में, पिछले पूरे हफ्ते उनके स्वरूप को लेकर चर्चाएं चलीं जब अमेरिकी रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में उनके पति जेडी वेंस ने डोनल्ड ट्रंप को उपराष्ट्रपति उम्मीदवार बनाए जाने की पेशकश को स्वीकार किया। उत्साह में आकर बहुत पुराने इस अख़बार ने तो उन्हें विश्व की भावी दूसरी सबसे ताकतवर महिला तक बता डाला। किंतु वे ट्रंप की पत्नी की तरह नहीं हैं, जो अपना पूरा वक्त ‘मर्दों की नज़रें पाने’ के लिए सजने संवरने में लगाती हैं।
व्यावसायिक लिहाज से ऊषा की उपलब्धि कम रोचक नहीं है, वे सान फ्रेंसिस्को की एक वकालत कंपनी ‘कूल, वॉक’ में कार्यरत हैं। जेडी वेंस से उनकी भेंट येल यूनिवर्सिटी में हुई और आगे चलकर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में उन्हें गेट्स फेलोशिप मिली। वर्ष 2014 तक, वे बतौर एक डेमोक्रेट पंजीकृत थीं। वेंस से उनकी शादी को तब सात साल हो चुके थे जब उन्होंने 2021 में ‘यूनिवर्सिटीस आर द एनिमी’ शीर्षक वाला भाषण दिया था।
अमेरिका में इन दिनों मतदाताओं का रुझान काफी बदल रहा है, वे पहले की तरह लाल (रिपब्लिकन पार्टी का रंग) और नीला (डेमोक्रेटिक दल का सूचक) से बंधे नहीं हैं। ट्रंप स्वयं अपनी आवाज़ तमाम अमेरिका की बताना चाह रहे हैं, न कि केवल आधे रिपब्लिकनों की। खुद वेंस, जो कभी ट्रंप को ‘कल्चरल हिरोइन’ कहा करते थे, अब उप-राष्ट्रपति पद के लिए ट्रंप की प्राथमिकता बन चुके हैं। और फिर दूसरी ओर कमला हैरिस तो हैं ही। यदि जो बाइडेन ने खुद को राष्ट्रपति पद की दौड़ से अलग किया, जैसा कि इस सप्ताह होने की उम्मीद है, तो क्या बिसराने लायक किंतु महत्वपूर्ण कमला हैरिस उनकी जगह लेंगी या फिर डेमोक्रेट पार्टी नेतृत्व करने के लिए कोई नया नेता ढूंढ़ लेगी।
जो लोग भारत में भारतीय-अमेरिकियों की बढ़ती महत्ता को लेकर खुश हो रहे हैं कि वे ताकत के ठीक केंद्र बिंदु में होंगे– तो तथ्य यह है कि अमेरिका में कमला हैरिस को बतौर एक ‘भूरी’ नहीं ‘काली’ की तरह लिया जाता है। ऊषा के मामले में भी, जो आज भी हिंदू और शाकाहारी हैं, इस बात की संभावना बहुत कम है कि अपने पति को भारत के पक्ष में नीतियां बदलने को राज़ी कर पाएंगी, भले ही एक समय उनके दादा के सगे छोटे भाई आंध्र प्रदेश में आरएसएस इकाई के प्रदेशाध्यक्ष रहे हों। चंडीगढ़ियों की आम बोली में कहें तो ये लोग नारियल की तरह हैं– बाहर से भूरे दिखते हैं, अंदर से हैं सफेद!
आपको एक दलीप सिंह याद हैं? दो साल पहले वे अमेरिका के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे– वे उन दलीप सिंह सौंध के भाई के पोते हैं, जो अमेरिका की संसद में पहली बार चुने जाने वाले भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक थे– उन्होंने मोदी सरकार को दोटूक चेतावनी दी थी कि यदि भारत ने यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई के संदर्भ में लगाए अमेरिकी प्रतिबंधों को नहीं माना और रूस से सस्ती दर पर तेल खरीदने की कोशिश की, तो इसका अंजाम भुगतना पड़ेगा। तब दलीप सिंह के इन बोलों को लेकर भारत वाकई असहज हुआ था। भारतीय अधिकारियों को अमेरिकियों को कहना पड़ा कि यदि उन्हें बेलाग बोलना है, तो बंद कमरे में कहा कहें। इस हिसाब से दलीप सिंह को वाकई उच्च गुणवत्ता वाला नारियल कहा जा सकता है– चेहरे-मोहरे से अपने लोगों जैसा किंतु उनके प्रति संवेदना-शून्य।
बेशक हमें भारतीय मूल के अनिवासियों की उपलब्धि पर खुश होना चाहिए– यह स्वाभाविक भी है। जब 1917 में एशियाटिक बार्ड ज़ोन एक्ट बनाकर अमेरिका में भारतीयों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। पिछले कोई 100 सालों में अमेरिका में बाहर से आकर बसने वालों से भारतवंशी सबसे अधिक सफल समुदाय है। जिनकी गिनती लगभग 50 लाख है। एक्स एप्प पर@दरैबिटहोल84 नामक हैंडल की एक पोस्ट बताती है कि भारतीय मूल के अमेरिकी परिवार की औसत वार्षिक आय 119,858 डॉलर है, जो कि किसी भी अन्य एशियाई समुदाय में सबसे अधिक है, फिर चाहे यह चीनी, जापानी और पाकिस्तानी क्यों न हों। खुद एलन मस्क ने इस पोस्ट को आगे शेयर किया है। आज अल्फाबेट के सुंदर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सत्य नडेला अमेरिका की सबसे बड़ी 10 बड़ी कंपनियों में से दो के सर्वेसर्वा हैं। भारतीय मूल के अनिवासी समुदाय की कहानी जटिल है। मूल मातृभूमि के प्रति प्यार और चाव ‘परदेस’ में भी सदा बना रहता है, हालांकि ‘देस’ में भी उन्होंने अपने समृद्ध पांव अच्छी तरह जमा रखे हैं। इनमें अधिकांश अपनी दोहरी पहचान और भावुकता को आसानी से अदलने-बदलने में सक्षम हैं– करण जौहर की अनेक फिल्में इसकी गवाह हैं। समस्या तब पैदा होती है, जब यहां वाले भारतीय खुद की पहचान विदेशों में बैठे अनिवासी भारतीयों से जोड़ने लगते हैं और कल्पना करते हैं कि ‘अपने वह बंदे’ अभी भी उन गांव का हिस्सा हैं, जिन्हें वे कब का पीछे छोड़ आए हैं– भले ही वह गांव भारत के किसी भी कोने में या किसी काल में उनके पुरखों का घर क्यों न रहा हो।
यह ठीक वैसा है जब कोई नासमझ देहाती शहर में आकर कहे कि एक ही गांव से होने के नाते अपने ‘जात-भाई’ के घर में टिकना उसका नैसर्गिक हक है। तथ्य तो यह है, ऊषा वेंस या कालांतर में कमला हैरिस को लेकर बना दीवानगी भरा लगाव– क्योंकि आदत के अनुसार पत्रकार भारत में उनके पुश्तैनी रिश्तेदारों को खोद-खोदकर निकाल लेते हैं–ठीक उसी तरह का भाव जैसा है जो एक नासमझ देहाती अपने शहरी ‘जात-भाई’ के लिए पाल लेता है। इतना पक्का है हम लोग भावुक हैं, और जीवन संवेदना और लगाव के बिना क्या, लेकिन समस्या तब बनती है जब हम अपनी राय पर भावुकता को हावी होने देते हैं।
यही कुछ लंदन में ‘अपना बंदा’ ऋषि सुनक के बारे था, हालांकि उनके दादा-दादी बहुत पहले भारत छोड़कर कीनिया जा बसे थे और वहां से परिवार इंग्लैंड पहुंचा। सिंगापुर के राष्ट्रपति थर्मन शनमुगरत्नम का भी भारत से विशेष नाता है– भले ही वे कभी श्रीलंका के जाफना में जा बसे तमिलों के वंशज हैं। इसी प्रकार आयरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री लियो वराडकर हैं, अरे वही जो ‘अामची मुम्बई’ के बस एक कदम ही तो दूर है! कई बार यह भावना कुछ ज्यादा विषम हो जाती है। किसे परवाह है मोहम्मद इरफान अली की जो गुयाना के राष्ट्रपति हैं या सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिकाप्रसाद संतोखी की या फिर सेशल्स के राष्ट्रपति वेवल रामकलावन की– इन सबके पुरखों को ब्रिटिश हुक्मरान कभी अपनी अन्य औपनिवेशिक कालोनियों में मजदूरी करवाने के लिए ले गए थे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारतीय मूल के लगभग 3.2 करोड़ अनिवासी विदेशों में रहते हैं, इनमें दक्षिण एशियाई मुल्कों की गिनती नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि हमारा मुख्य ध्यान अधिकांशतः पश्चिम जगत में सफलता या उपलब्धि पाने वालों पर केंद्रित रहता है।
इसका एकदम उलट भी उतना ही सच है। अपनी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता के गौरव को हथियार बनाते हुए हमें विदेशियों की हेठी करना बहुत पसंद है, खासकर गोरों की–बिना इस बात की परवाह किए कि वास्तव में ऐसा करके हम विश्व में अपनी स्थिति को लेकर बनी असुरक्षा को उजागर कर रहे होते हैं। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक बार हमारी इस सम्मिलित भारतीय मन:स्थिति को सटीक किंतु व्यंग्यात्मक तरीके से परिभाषित किया था ‘येंकी गो होम, बट टेक मी विद यू’ (हे अमेरिकी चलो फूटो यहां से, लेकिन मुझे साथ लेते जाओ)।
कहानी से शिक्षा? ऊषा वेंस और कमला हैरिस के प्रति अतिशय अनुराग दर्शाना असंगत है, लेकिन हम उन्हें उनके परिप्रेक्ष्य में देखने में असमर्थ हैं।
लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।