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मनुष्यता को जीवित रखने की चुनौती

12:48 PM Aug 21, 2021 IST

देश की आजादी के अमृत महोत्सव की शुरुआत हो गई है। 75 साल पहले हमने आजादी पाई थी। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नियति से साक्षात्कार की याद दिला कर एक नये भारत के सपने को साकार करने के संकल्प को पूरा करने की दिशा में बढ़ने की घोषणा की थी। तब से हर साल 15 अगस्त को हम इस संकल्प को दोहराते हैं, उन शहीदों को याद करते हैं, जिन्होंने इसलिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया ताकि भावी पीढ़ी यानी हम आजाद हवा में सांस ले सकें। इन शहीदों में वे भी शामिल हैं जो आजादी के साथ मिली विभाजन की विभीषिका के शिकार हुए। लाखों देशवासियों के बलिदान से मिली है हमें यह आजादी। वह हमारा इतिहास है, उनके बलिदान को याद करके ही हम एक नया इतिहास रचने की दिशा में कुछ सार्थक कर सकते हैं।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्मृति को एक नये नारे से जोड़ दिया है–उन्होंने घोषणा की है कि अब हर 14 अगस्त को यानी आजादी मिलने से 1 दिन पहले देश विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाया करेगा। उन्होंने कहा है कि इससे एकता, सामाजिक सद‍्भाव और मानवीय संवेदनाएं मजबूत होंगी। उन्हें यह भी विश्वास है कि हर 14 अगस्त को इस आयोजन से सामाजिक विभाजन और वैमनस्य के जहर को दूर करने में भी मदद मिलेगी। आमीन।

लेकिन सवाल उठता है, क्या स्मृति दिवस मनाने से ही उद्देश्य पूर्ति हो जाएगी? उद्देश्य यह है कि 75 साल पहले जो हुआ था, वह फिर कभी न दोहराया जाए। देश के विभाजन के साथ जुड़ी हिंसा ने हमारे भीतर की अमानुषिकता को ही उजागर किया था। धर्म के नाम पर लगाई गई सांप्रदायिकता की आग में मानवीय संवेदनाओं की होली जली थी। पशुता की अभिव्यक्ति थी वह। न उसे भुलाया जाना चाहिए और न ही उसे क्षमा किया जाना चाहिए। तब जो कुछ हुआ था वह मनुष्यता को झुठलाने की कोशिश थी। अपराधी वे सब थे, जिन्होंने धर्म के नाम पर हिंसा की। अपराधी वह सोच थी, जिसने हमारे समाज को हिंदू और मुसलमान में बांट दिया। देश का बंटवारा तो समझ में आता है। उसके राजनीतिक कारण हो सकते हैं, नेतृत्व की कुत्सित महत्वाकांक्षा भी हो सकती है। लेकिन आदमी और आदमी के बीच धर्म के नाम पर उठाई गई दीवारों का तर्क समझ से परे है। धर्म के नाम पर हुई हिंसा न तब क्षम्य थी, और न ही आज उसे किसी भी दृष्टि से सही ठहराया जा सकता है। सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाले तब भी अपराधी थे, आज भी अपराधी हैं।

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इसलिए, जब आज विभाजन की विभीषिका को याद रखने के लिए आह्वान किया जा रहा है तो यह याद रखना भी जरूरी है कि 75 साल पहले जिन विचारों ने सांप्रदायिकता की आग लगाई थी, आज भी उन विचारों को आधार बनाकर मनुष्य को बांटने की कोशिश न हो। इसलिए आज उस विभीषिका को नहीं, उन कुत्सित विचारों को याद करके उनसे मुक्ति पाने की आवश्यकता है, जिन्होंने तब आदमी को वहशी बना दिया था। और आज भी हमारे भीतर की अमानुषिकता को उकसाते रहते हैं।

उस 14 अगस्त को हमारा वहशीपना ही सामने नहीं आया था, वह आशा की किरण भी दिखाई दी थी, जिसकी रोशनी में मनुष्यता फलनी थी। यह काम तब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किया था। उस दिन जब देश आधी रात को तिरंगा फहराने की तैयारी कर रहा था, गांधीजी राजधानी दिल्ली के उत्सवी माहौल से दूर कोलकाता में सांप्रदायिकता की आग बुझाने में लगे हुए थे। जब नेहरू, नियति से साक्षात्कार का आह्वान कर रहे थे तो गांधी देश की जनता को कांटों के ताज की याद दिला रहे थे। 24 घंटे का उपवास किया था तब उन्होंने। यह प्रायश्चित था उन सबके किये का जो सांप्रदायिकता की आग लगाने में लगे थे। उनका संदेश था, ‘आज से आपको कांटों का ताज पहनना है। सत्य और अहिंसा को बढ़ावा देने में लग जाना है। विनम्र बनो। सहिष्णु बनो। अब रोज आपकी परीक्षा होगी। सत्ता से सावधान रहो। सत्ता भटकाती है। सत्ता की शान-शौकत के जाल में मत फंसना। भारत के गरीबों की सेवा में जुट जाओ।’ यह संदेश उनके लिए था जो नये भारत की सत्ता संभालने वाले थे। देशवासियों के लिए राष्ट्रपिता का संदेश था— ‘सच्चा धर्म बांटता नहीं, जोड़ता है।’ तब कोलकाता ने गांधी के इस संदेश का मतलब समझा था। सांप्रदायिक हिंसा की आग बुझने लगी थी।

क्या वह आग बुझ गई?

इस सवाल का जवाब हमें अपने आप से पूछना है। क्या हमें याद भी है कि विभाजन की विभीषिका का कारण यही आग थी? विभीषिका को याद करने या याद रखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता यदि हम उसके कारण को नहीं समझते। समझना यह जरूरी है कि 75 साल पहले हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन क्यों बन गए थे और याद रखना यह जरूरी है कि निरपराध लोगों के शवों को ले जाने वाली रेलगाड़ी लाहौर से अमृतसर ही नहीं आई थी, अमृतसर से लाहौर भी गई थी। वैसा कभी कुछ फिर ना हो, यह याद रखना है हमें। लेकिन हम कर क्या रहे हैं? क्या यह हमारी आज की एक शर्मनाक सच्चाई नहीं है कि देश में जब-तब सांप्रदायिकता की आग भड़क उठती है? राजनीतिक स्वार्थों के चलते हम मनुष्यता को भुला बैठते हैं?

कौन जिम्मेदार है इस सबके लिए? वह कौन से तत्व हैं जो जंतर-मंतर पर सांप्रदायिक नारे लगाने का दुस्साहस करते हैं? क्यों उन्हें लगता है कि इस अपराध की कोई सजा नहीं मिलेगी? क्यों ऐसे तत्वों को लगता है कि ऐसा करना जरूरी है? इन और ऐसे सारे सवालों का जवाब वक्त हम भारत के लोगों से मांग रहा है। विभाजन की विभीषिका का स्मृति दिवस मनाने की नहीं, यह याद रखने की आवश्यकता है कि यह दायित्व हम पर है कि फिर कभी धर्म के नाम पर कोई हमें बरगला न सके। दुर्भाग्य से, हम यह याद रखना नहीं चाहते, जाने-अनजाने हम उन बरगलाने वालों के षड्यंत्र का शिकार बन जाते हैं। तब देश बंटा था। अब समाज बांटने की कोशिशें हो रही हैं। चुनौती हिंदू या मुसलमान या सिख या ईसाई को जीवित रखने की नहीं, मनुष्यता को जीवित रखने की है। मानवीय समाज का तकाजा है कि हम धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ साधने वालों के हाथ की कठपुतली न बनें। इसके लिए जरूरी है हम सतत जागरूक रहें। अच्छी लगती है यह बात कि हम विभाजन की विभीषिका को याद रखें, पर उन कुत्सित विचारों को भी याद रखना होगा जो ऐसी विभीषिका का कारण बनते हैं। जरूरत सदविचारों की है, नारों की नहीं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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