सृजन विरोधी सफलता के सपनों का कारोबार
जैसा कि होता है, यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम मीडिया और लोगों का ध्यान खींचते हैं, ‘टॉपर्स’ के दमकते चेहरों की फोटो चहुंओर दिखने लगती है– ब्रांड बन चुके कोचिंग सेंटरों की ओर से जारी विज्ञापनों से शहरों में बिल बोर्ड्स से लेकर अग्रणी अखबारों के मुखपृष्ठ तक पट जाते हैं। यही कुछ विभिन्न शिक्षा बोर्डों से संबद्ध स्कूलों के परीक्षा परिणाम आने पर होता है, तब भी यह प्रक्रिया दोहराई जाती है– अर्थात् भौतिकी, रसायन, गणित और जीव-विज्ञान में शानदार प्रदर्शन कर दिखाने वाले ‘टॉपर्स’ किशोर-किशोरियों की ‘सफल’ छवि का निर्माण करना!
ऐसी ‘सफलता गाथाएं’ सुन-सुनकर मैं थक चुका हूं, बल्कि, मेरी रुचि व्यवस्था की वह नब्ज़ पकड़ने में है, जो चुनींदा ‘सफलता’ की चकाचौंध फैलाकर वास्तव में ‘असफलता’ का निर्माण कर रही है। गौरतलब है, भारत भर में यूपीएससी कोचिंग उद्योग का सालाना कारोबार लगभग 3000 करोड़ है। यदि दिल्ली के मुखर्जी नगर और करोल बाग की छोटी-बड़ी गलियों में जाएं और युवा अभ्यर्थियों से बात करें जो भविष्य के इंजीनियर, डॉक्टर, पीएचडी, यूनिवर्सिटी विद्यार्थी बनना चाहते हैं तब आपको महसूस होगा ‘सफलता के सपने’ की ताकत का, जिसके जरिये कोचिंग सेंटरों के नामचीन गुरुओं ने अपने नोट्स, लेक्चर, गाइड पुस्तकों, इंटरव्यू रणनीति और यहां तक कि अपने प्रेरणास्पद भाषणों से इन चाहवानों को फांस रखा है।
बहरहाल, यह सपना खूब बिक रहा है क्योंकि हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जो ‘ताकत’ की पूजा करता है– जरूरी नहीं वह ताकत ज्ञान और अक्ल की हो, वह राजनीतिक-प्रशासनिक एवं आर्थिक भी हो सकती है। छोटे शहरों और गांवों के असंख्य मध्यवर्गीय अभिभावकों के लिए, यह बहुत मायने रखता है यदि उनका बेटा या बेटी जिला उपायुक्त या पुलिस कप्तान बन जाए, क्योंकि इस पद के साथ ताकत, विशेषाधिकार और ग्लैमर स्पष्ट रूप से जुड़े हैं। इससे स्थानीय समाज में उनका रुतबा और हैसियत ऊंची हो जाती है। बेशक, यूपीएससी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने की मिथकीय सफलता का अपना सम्मोहन है। हालांकि, अनुपात के हिसाब से ‘सफल’ होने वालों की संख्या बहुत कम है (मसलन, 2023 में 13 लाख अभ्यर्थी यूपीएससी की प्री-लिम परीक्षा में बैठे थे लेकिन आखिर में 1016 ही चुने गए), फिर भी यह धंधा फल-फूल रहा है। जहां हम ‘सफलता गाथाओं’ की महिमा गाते हैं, वहीं कोचिंग की ये दुकानें असफल रहे उम्मीदवारों का कितना मानसिक एवं बौद्धिक नुकसान कर रही हैं, उस पर गौर करने में विफल रहते हैं।
जरा सोचिए, यह मिथकीय सफलता पाने को अधिकांश प्रत्याशी पांच से छह साल लगातार प्रयासरत रहते हैं, इस बीच इतिहास, भूगोल, समाज विज्ञान, मनोविज्ञान व सामान्य ज्ञान के नोट्स रात-दिन रटते हैं, भारी मात्रा में पैसा लगता है, फिर भी बारम्बार असफल होते हैं! हां, यह अमानवीय और मशीनी तंत्र उन्हें खत्म कर रहा है– मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक रूप से। इनमें कइयों के लिए, असफलता के आघात से जख्मी हुए स्वाभिमान से उबरना, उम्मीद एवं रचनात्मकता के साथ जीवन को पुन : परिभाषित करना मुश्किल हो जाता है।
आगे, समूचा तंत्र उच्चतर शिक्षा के मूल उद्देश्य को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है। अवश्य ही, यदि कोई आईआईटी-कानपुर से इंजीनियर अथवा नई दिल्ली के एम्स से डॉक्टर बनकर निकले या पुलिस अफसर या टैक्स कमिश्नर बने, तो यह ‘देवत्व’ पाने जैसा नहीं है। इसी प्रकार, यदि किसी अग्रणी यूनिवर्सिटी से इतिहास का छात्र सिविल परीक्षा की तैयारी के चक्कर में, अपनी सामान्य कक्षाएं लगातार न लगाए, एरिक हॉब्सबॉम या इरफान हबीब जैसों को भूल जाए, और मुख्य ध्यान सिर्फ कोचिंग सेंटरों के रणनीतिकारों द्वारा दिए नोट्स या कुंजियों पर केंद्रित रखे (हां, यू-ट्यूब पर ऐसे कइयों के लाखों की संख्या में फॉलोवर्स हैं), यह संकेतक है नुकसान की उस तीव्रता का जो कोचिंग सेंटरों के धंधेबाजों ने हमारे विश्वविद्यालयों में खोजपरक अध्यापन और अनुसंधान की प्रगति का कर डाला है। हम यह भूल चुके हैं कि एक जीवंत राष्ट्र को जरूरत है महान भौतिक विज्ञानी, राजनीतिक दर्शनशास्त्रियों, समाज शास्त्रियों और साहित्य आलोचकों की– न कि केवल जिला आयुक्तों और पुलिस कमिश्नरों की।
अफसोस कि सामाजिक-डार्विनवाद के सिद्धांत से पनपी इस किस्म की परम-प्रतिस्पर्धात्मक मानसिकता स्कूली विद्यार्थियों तक की आत्म-धारणा में बदलाव ला रही है। उन तरीकों को देखिये, जिस तरह बिल बोर्डों पर बोर्ड परीक्षा के ‘टॉपर्स’ की छवियां चस्पां की जाती हैं या मानक बना दिए गए जेईई एवं नीट जैसे टेस्टों का निर्माण किया गया है, यह तरीका है लड़के-लड़कियों को रातों-रात ‘सितारा’ बनाने का और ‘विशेष’ होने का यकीन करवाने का खेल है। पुनश्चः, सफलता का महिमामंडन करने के तरीके में हम असफल रहे हजारों-हजार युवाओं के मानस को पहुंची पीड़ा, ठेस, शर्मिंदगी की तीव्रता को नज़रअंदाज कर देते हैं। कब जाकर हम यह समझेंगे कि हमारी स्कूली शिक्षा में सब कुछ सही नहीं है? कब हमें अहसास होगा कि स्कूलों में लागू पाठ्यक्रम, तकनीकी निगरानी और एकल आयामी, परीक्षा-आधारित, किताबी ज्ञान वाली प्रणाली अक्सर उन विद्यार्थियों को उचाट कर देती है जो स्कूली पढ़ाई से परे, कुछ कल्पनाशील और अधिक रोमांचक करने के पीछे ‘पागल’ हैं। अपने प्रामाणिक अध्ययन में, जॉन होल्ट (हाऊ चिल्ड्रन फेल) और कर्स्टन ऑल्सन (वूंडेड बाई स्कूल) शिक्षा पद्धति के घातक परिणामों के बारे में याद दिलाते हैं, जिसमें सृजनात्मकता से ज्यादा ढर्रे को अधिमान है, जो छात्र की रुचियों का दमन करती हैं और जिसे सीखने-सिखाने वाले में फर्क की शिनाख्त नहीं है। वास्तव में, यहां वह व्यवस्था है जो कुछ अलग करने की ललक रखने वालों में बहुतों का मजाक उड़ाकर उनके चाव को खत्म और कल्पनाशीलता को कुंद कर देती है।
इस नाजुक उम्र में बहुत से युवाओं के लिए असफलता के कलंक से उबर पाना आसान नहीं होता। अफसोस कि हम उनकी सृजनशील सामर्थ्य का फायदा नहीं उठा पाते। लिहाजा थकावट, ऊबाऊपन और एकाकीपन की भावना से उनकी कल्पनाशीलता और अर्थपूर्ण जीवन के प्रति उत्साह बुझ जाता है। इस ‘सुरक्षा-आसक्त’ दुनिया में, उनका दर्द समझने की परवाह किसे है। इस बीच, हमारे ‘सफल’ युवा खुशी-खुशी बने-बनाए ढर्रे में ढल जाते हैं, कोई हैरानी नहीं कि उनके लिए अपने ‘सुरक्षित’ और ‘स्थाई’ पेशे से परे जीवन की राह सोच पाना मुश्किल हो– मसलन, नव-उदारवाद के बाजार के विस्तार के लिए दिन-रात खटता कोई टेक्नो-मैनेजर या कोई प्रशासक अथवा नौकरशाह जो यथास्थिति बनाए रखने वाले प्रशासन की हां में हां मिलाने वाला हो। इस दौरान, राजस्थान के कोटा से लेकर दिल्ली के मुखर्जीनगर तक कोंचिग उद्योग ने अपना मुनाफादायक धंधा फैला लिया है और ‘सफलता’ का सपना जमकर बेच रहे हैं, भविष्य को लेकर चिंता-ग्रस्त मध्य वर्ग पर डोरे डाल रहे हैं और युवा दिमाग के सृजनशील बागीपन को कुचल रहे हैं।
लेखक समाजशास्त्री हैं।