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हरियाणा में चुनावी परिदृश्य के यक्ष प्रश्न

06:38 AM Oct 07, 2024 IST
द ग्रेट गेम
ज्योति मल्होत्रा

बीते सप्ताह गुरुवार की दोपहर की तीखी धूप में, हरियाणा के शाहबाद चुनावी क्षेत्र में जब विधानसभा चुनाव में प्रचार अभियान औपचारिक रूप से थमने में केवल कुछ घंटे बचे थे, भाजपा कार्यकर्ता उस सभा स्थल से बाहर निकलते वक्त कुछ मायूस लग रहे थे, जिसमें योगी आदित्यनाथ केवल 20 मिनट तक रुके। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के भाषण में तालियां कमज़ोर और छिटपुट रहीं, मानो उनके शब्दबाण चूक गए हों और प्रतिक्रिया में श्रोता हक्के-बक्के थे।
परंतु एक भाजपा कार्यकर्ता का मानना था कि पार्टी के कद्दावर नेता बिसात बदल देंगे और जोर देकर कहा : ‘यह तो फिर भी बाजी पलटेगा’, जबकि वे भाजपा के खिलाफ़ पड़ गये लग रहे हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं में हताशा के बावजूद, इस आखिरी क्षण में भी, उन्हें यकीन है कि उनका दल अपने किए सभी शानदार काम - सड़कें, सब्सिडी, पुरुष-महिला-किसान के लिए बनाई योजनाओं की बदौलत बढ़िया प्रदर्शन कर दिखाएगा।
लेकिन, भाजपा कार्यकर्ता और उनके दोस्त भी मानते हैं कि यह इतना आसान नहीं होने वाला है। मसलन, उन्होंने कहा कि शाहबाद में पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार से चिढ़े प्रतिद्वंद्वी ने खुलेआम जीत की संभावना को पलीता लगाया है। एक ने तो कहा : ‘वो उनके गले में मरा हुआ सांप डालकर भाग गया’। एक तीसरे व्यक्ति ने योगी की सभा में जुटी कम भीड़ की सफाई देते हुए कहा कि लोग निवर्तमान भाजपा विधायक के अहंकार से इतने नाराज थे कि वे इसके लिए वर्तमान उम्मीदवार को दंडित करने पर आमादा हैं। एक चौथे व्यक्ति ने कहा : ‘हमें भाजपा उम्मीदवार की गर्दन में अड़ा सरिया निकालना ही है।’
यदि शाहबाद को एक मॉडल मानें, तो हैरानी कम ही होगी कि हरियाणा की 90 विधानसभा सीटों पर भाजपा के लिए दांव काफी बड़ा है। ऐसा लगा कि शनिवार की खिली सुबह जैसे ही ईवीएम चालू हुईं, पानीपत की चौथी लड़ाई सरीखा युद्ध शुरू हो गया - इस बार यह संग्राम कांग्रेस पार्टी के अगुवा भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कार्यकारी मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के बीच है, जो अन्यथा काफी मिलनसार व्यक्ति हैं। जिन्हें अपने मार्गदर्शक एवं संरक्षक मनोहर लाल खट्टर की जगह मार्च में मुख्यमंत्री बनाकर छह महीने का कार्यकाल देने की बजाय काफी पहले यह बदलाव किया जाना चाहिए था।
वर्ष 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार जादू की छड़ी घुमाई, हरियाणा का राजकाज सख्ती से चलाने वाले मनोहर लाल को साढ़े नौ साल तक कोई छू नहीं सका,क्योंकि इन दोनों का नाता बहुत पुराना है, जैसा कि खुद मोदी ने इस वर्ष की शुरुआत में एक रैली में बताया था कि 1980 के दशक में वे और खट्टर दोनों अक्सर एक ही दरी पर सोते थे और पूरे हरियाणा में एक ही बाइक पर सवार होकर बतौर आरएसएस प्रचारक दौरा किया करते थे। बताया जाता है कि सैनी भी उस समय भाजपा कार्यालय में काम करते थे और चिट्ठी-पत्री एवं प्रेस विज्ञप्तियां टाइप किया करते थे, तब से अपने उत्थान का श्रेय वे खट्टर को देते हैं।
हरियाणा के साथ समस्या यह है कि इतिहास की गूंज इतनी तेज रहती है कि इसमें वर्तमान का शोर दब जाता है। सैनी खट्टर के शागिर्द हैं, जो आगे मोदी के करीबी हैं - तीनों बेहतरीन दोस्त, एक साथ मिलकर जूझने को कृत-संकल्प। फिर आपको पासा फेंकने की आवाज़ सुनाई देती है। धीरे से अंगुली से ईवीएम का बटन दबाया और निकली बीप की आवाज़ से हरियाणा ने अपना फैसला दर्ज करवा दिया है। अब यह किसी सैनी-खट्टर-हुड्डा या यहां तक कि मोदी को लेकर नहीं रहा। यह तो अहंकारी व्यक्ति के गर्दन से 'सरिया' निकालने के वास्ते है। हरियाणवियों ने शनिवार को मतदान अपने नेताओं के अहंकार को दंडित करने के लिए किया।
मोदी के लिए,दांव इससे बड़ा और कुछ नहीं हो सकता। सच तो यह है कि केवल 90 सीटों वाला छोटा राज्य हरियाणा ही वह जगह है जहां से सब शुरू हुआ। वह भूभाग जहां पर सत्ता की इबारत सर्वप्रथम सिंधु-गंगा क्षेत्र के मैदानों में लोगों के सामूहिक अवचेतन पर अंकित हुई। वफ़ादारी, दोस्ती, प्यार, विश्वासघात, हिंसा, घृणा -हर भावना का उतार-चढ़ाव– इन सबकी परख सबसे पहले यहीं,इसी हरियाणा की धरती पर हुई,कुरुक्षेत्र की लड़ाई से पहले-उसके दौरान –और बाद में।
ताज़ के हीरे के रूप में दिल्ली सदा अफ़गान कबीलों और मुगल शासकों के निशाने पर रही- लेकिन दिल्ली की हार और लूटपाट तभी हो पाई जब हरियाणा ने ताकतवरों को अपनी मर्जी करने की छूट दी। हरियाणवी समझता है कि उसकी शक्ति ताकतवर की ताकत का आकलन करने में निहित है। क्या वह उसे अपनी मर्जी चलाने दे? और अगर हां, तो किस कीमत पर?
इस बात को आज भारत के किसी भी अन्य राजनेता से बेहतर मोदी समझते हैं। मोदी को यह भी भान है कि यदि भाजपा हरियाणा हार जाती है, तो उनके दुर्ग की एक महत्त्वपूर्ण ईंट हिल जाएगी, जिससे आगे की ईंटें ढीली पड़ती जाएंगी। आम आदमी पार्टी के राज वाले दिल्ली और पंजाब के मध्य हरियाणा है और यहां पर मिली हार या जीत से बनने वाला मनोवैज्ञानिक असर पहले ही अन्य जगहों के लिए जादुई गोली का रूप धर चुका है। फिर कश्मीर का नतीज़ा भी आना है। और आगे नवंबर में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं।
हरियाणा अब केवल 90 विधानसभा सीटों वाला सूबा भर नहीं रहा– यह इस बात पर निर्भर करता है आपका नज़रिया क्या है, क्या यह उत्तर प्रदेश का आगामी मंज़र बनेगा या इसका विस्तार। इस साल गर्मियों में हुए लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को 29 सीटों का नुकसान हुआ, जिसने लोकसभा में भाजपा की विराटता की हवा निकाल दी, जिसकी टीस अभी तक सालती है। शनिवार को हरियाणा ने जो किया है, वह या तो इस चुभन को दर्द में बदल देगा या कुछ राहतभरी खुशी में।
हुड्डा और कांग्रेस के लिए, हरियाणा का नतीज़ा भाजपा का विकल्प बनने का मौका देगा। भाजपा अजेय नहीं है, उसे उसके खेल में, उसके ही मैदान में, उसी के तरीकों से हराया जा सकता है। कौटिल्य की साम-दाम-दंड-भेद वाली कूटनीति हरेक साहसी एवं संभावित शासक के लिए गुरुमंत्र सरीखी है। देश के इस हिस्से में यही नुक्ता बरता जाता रहा है।
गुरुवार शाम को पानीपत में अभियान की आखिरी चुनावी सभा में से भूपेंद्र हुड्डा अपने कार काफिले में शामिल 22 एसयूवी से उठती धूल के गुबार के साथ बाहर निकलते हैं और उत्साह छा जाता है। बैनर और होर्डिंग्स भी ‘चिल्ला’ रहे हैं ः ‘आ रही है कांग्रेस’। हुड्डा के समर्थकों का व्यवहार ऐसा था मानो चंडीगढ़ में उनकी ताजपोशी पहले ही हो चुकी हो।
शायद पानीपत की मिट्टी में कुछ ऐसा है जो इस किस्म के व्यवहार को सहन करती है। कदाचित हरियाणा जानता है कि भले ही वह दिल्ली जितना मूल्यवान न हो, लेकिन उसके हाथ में वह कुंजी है जिससे पता चले कि दिल्ली का चमकदार ताज कैसे जीता जाए। इसके बिना, दिल्ली अपनी आधी आभा खो देगी।

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लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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