अंग्रेजों से सीधी टक्क र लेने वाले झज्जर में लड़ी जा रही ‘चौधर’ की जंग
दिनेश भारद्वाज/ट्रिन्यू
झज्जर, 20 सितंबर
यहां मोहब्बत के किस्से भी हैं और देशभक्ति के तराने भी। बुआ-हसन की पाक मोहब्बत को लोग याद करते हैं। नवाबी शहर झज्जर के अंतिम नवाब अब्दुर्र रहमान की बगावत के किस्से भी पुराने लोगों में चर्चाओं में रहते हैं। अंग्रेजी हुकुमत से लोहा लेने वाले चंद नवाबों में शामिल रहे अब्दुर्र रहमान को चांदनी चौक पर फांसी दी गई थी। स्वतंत्रता सेनानियों और अब सैनिकों की धरती झज्जर के लोगों ने गुलामी के बीच 1922 में दो दिन के लिए आजादी की सांस ली थी।
राजनीतिक तौर पर भी इस इलाके को बड़ा जागरूक माना जाता है। पूर्व मुख्यमंत्री व नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र हुड्डा का गढ़ कहे जाने वाले पुराने रोहतक से अलग होकर अस्तित्व में आए झज्जर जिले में भी हुड्डा की अच्छी पकड़ मानी जाती है। इस सीट पर एक बार फिर ‘चौधर’ का नारा चर्चाओं में है। 10 वर्षों तक सत्तासुख भोग चुके इस एरिया में फिर से सरकार के नाम पर वोट मांगे जाने लगे हैं।
अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित इस विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के टिकट पर पूर्व शिक्षा मंत्री गीता भुक्कल लगातार चौथा चुनाव लड़ रही हैं। 2019 में जीत की हैट्रिक लगा चुकी भुक्कल अब जीत का चौका लगाने उतारी हैं। हालांकि, वे अभी तक चार बार विधायक बनी हैं। पहली बार 2005 में एससी के लिए आरक्षित कलायत सीट से वे विधायक बनी थीं। 2008 के परिसमीन में कलायत सीट सामान्य वर्ग के लिए ओपन हो गई। ऐसे में उन्होंने कलायत से झज्जर को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया। वे झज्जर के मातनहेल की बेटी हैं। उनके के सामने भाजपा ने इस बार भी नया चेहरा मैदान में उतारा है। भाजपा हर चुनाव में इस सीट पर प्रत्याशी बदलती रही है। कहीं न कहीं इसका नुकसान भी भाजपा अभी तक उठाती आई है। 2009 में जब गीता भुक्कल ने झज्जर से पहला चुनाव लड़ा तो भाजपा ने अपने 2005 के प्रत्याशी रमेश कुमार की जगह नये चेहरे के रूप में आजाद सिंह को टिकट दिया। आजाद सिंह को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा और वे महज 2539 वोटों पर सिमट गए। 2014 में केंद्र में मोदी की सरकार बनने के बाद हरियाणा के चुनावों में झज्जर सीट पर भाजपा ने फिर प्रयोग किया। इस बार पूर्व विधायक दरियाव सिंह राजौर को टिकट दिया गया। दरियाव सिंह को 20178 वोट मिले। वहीं, गीता भुक्कल ने 51697 वोट लेकर इनेलो के साधुराम को 26584 मतों से शिकस्त दी। भाजपा तीसरे पायदान पर पहुंच गई तो भाजपा ने फिर से नया चेहरा तलाशना शुरू कर दिया। 2019 में भाजपा ने एसएमओ (सीनियर मेडिकल ऑफिसर) के पद से वीआरएस लेकर राजनीति में आए डॉ़ राकेश कुमार को उम्मीदवार बनाया। राकेश कुमार को भी गीता भुक्कल ने 14999 मतों से हराकर झज्जर सीट से जीत की हैट्रिक लगाई।
डॉ़ राकेश कुमार इस बार भी भाजपा टिकट की दौड़ में थे। भाजपा ने उनका टिकट काटकर एक बार फिर नये चेहरे को मैदान में उतारा है। झज्जर जिला परिषद के चेयरमैन कप्तान सिंह बिरधाना इस बार भाजपा के उम्मीदवार हैं। झज्जर में आमने-सामने की टक्कर दिख रही है। जजपा व इनेलो-बसपा गठबंधन यहां अपने वजूद के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। वहीं, आम आदमी पार्टी झज्जर में अच्छे प्रदर्शन की कोशिश में है। जजपा ने नसीब वाल्मीकि ‘सोनू मातनहेल’ को टिकट दिया है। 2019 में भी सोनू वाल्मीकि जजपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। हालांकि, उनके भाजपा में जाने की चर्चाएं भी थीं, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। बसपा-इनेलो गठबंधन से दरोगा धर्मबीर सिंह और आम आदमी पार्टी ने महेंद्र दहिया चुनाव लड़ रहे हैं।
ज्वाइंट पंजाब में भी थी सीट
झज्जर विधानसभा ऐसा क्षेत्र है, जो ज्वाइंट पंजाब के समय भी अस्तित्व में था। देश के जहाजरानी मंत्री रहे चौधरी चांदराम 1952 के पहले चुनाव में यहां से जीते थे। इसके बाद 1957 में शेर सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर यहां से जीत हासिल की। पहली नवंबर, 1966 को पंजाब से अलग होकर अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए हरियाणा में विधानसभा के पहले चुनाव यानी 1967 में निर्दलीय उम्मीदवार एम सिंह ने जीत हासिल की थी।
जब भगवत दयाल और देवीलाल में ठनी
1987 के चुनावों में पूर्व मुख्यमंत्री पं. भगवत दयाल शर्मा और चौ़ देवीलाल में ठन गई थी। किसी बात को लेकर राजनीतिक तौर पर दोनों आमने-सामने हो गए। उस समय लोकदल के टिकट पर मीर सिंह बरानी ने चुनाव लड़ा था। मीर सिंह, पं. भगवत दयाल शर्मा के साथ जा खड़े हुए। ऐसे में निर्दलीय चुनाव लड़ रहीं माधवी कीर्ति को देवीलाल ने समर्थन दिया और वे निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब रहीं।
1922 में आजाद हुआ था झज्जर
झज्जर शहर का एक बड़ा इतिहास यह भी है कि 1922 में ही यह शहर दो दिन के लिए आजाद हो गया था। उस समय स्वतंत्रता सेनानी पंडित श्रीराम शर्मा ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर घंटाघर पर तिरंगा फहरा दिया था। अंग्रेजी हुकुमत के समय यह इतनी बड़ी घटना थी कि पूरी सरकार हिल गई थी। उस समय के अंग्रेज अधिकारियों ने गोली मारने की भी धमकी दी थी, लेकिन वे पंडितजी के हौसलों को तोड़ नहीं सके।
नया रिकार्ड बना चुकी गीता भुक्कल
जगजीवन राम की पोती ऐसे बनीं विधायक
मूल रूप से बिहार की रहने वाली मेधावी कीर्ति का चुनाव भी उस जमाने में पूरे उत्तर भारत में चर्चाओं में रहा था। 1987 में देवीलाल की लहर के बीच मेधावी कीर्ति ने झज्जर से निर्दलीय चुनाव लड़ने के लिए पर्चा भरा। पूर्व उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की पोती मेधावी कीर्ति ने इसे वापस उठाने का मन बना लिया। लेकिन वे नामांकन वापसी के समय नहीं पहुंच पाईं। ऐसे में उन्हें चुनाव लड़ना पड़ा और देवीलाल के समर्थन से वे चुनाव जीत गईं। इसके बाद देवीलाल सरकार में शिक्षा व स्वास्थ्य मंत्री रहीं। मेधावी कीर्ति की बुआ मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष रह चुकी हैं।