मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

संविधान की मूल भावना हो आरक्षण की कसौटी

06:21 AM May 23, 2024 IST
Advertisement
के.पी. सिंह

वर्तमान लोकसभा चुनावों के प्रचार में आरक्षण को लेकर, विशेषकर एक समुदाय के आरक्षण पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। विपक्षी दल कह रहे हैं कि सत्तासीन पार्टी यदि पुनः सरकार बनाने में सफल हो गई तो आरक्षण समाप्त कर देगी। वहीं सत्ता-पक्ष कुछ राज्यों में मुसलमानों को दिए जा रहे आरक्षण पर सवाल खड़ा करके उसे संविधान विरुद्ध बता रहा है। राजनीति को दरकिनार करके यदि देखा जाए तो आरक्षण ऐसी संविधान प्रदत्त गारंटी है जिसके सहारे एक समतामूलक और समावेशी समाज की परिकल्पना की गई थी, और यह तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विषमताएं और भेद-भाव जनित परिस्थितियां दूर नहीं होतीं।
आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान संविधान में चार अलग-अलग स्थानों पर वर्णित हैं। अनुच्छेद 330 से 335 तक में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन-जातियों के लिए लोकसभा, विधानसभाओं तथा सरकारी नौकरी में आरक्षण के प्रावधान हैं। एंग्लो-इंडियन समुदाय के दो सदस्यों का लोकसभा में मनोनयन और रेलवे तथा डाक विभाग में दस वर्षों तक आरक्षण का आधार भी इन्हीं अनुच्छेदों में है। यहां महत्वपूर्ण है कि अनुसूचित जातियों के लिए छुआ-छूत जनित भेदभाव, जनजातियों के भौगोलिक एक सांस्कृतिक अलगाव तथा एंग्लो-इंडियन स मुदाय की सीमित संख्या उन्हें आरक्षण एवं मनोनयन का आधार प्रदान करती है।
दूसरे, संविधान के अनुच्छेद 15(3), 15(4) एवं 15(5) में महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा सामाजिक एवं श्ौक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी एवं निजी शिक्षण संस्थानों में दाखिला पाने को आरक्षण दिया है। वर्ष 2019 में संविधान संशोधन कर आर्थिक पिछड़ेपन को मान्यता देकर इस वर्ग के लिए दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
तीसरे, ऐसे पिछड़े वर्गों, जिनका सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं, के लिए संविधान के अनुच्छेद 16(4), 16(4ए) एवं 16(4बी) में पद आरक्षित किए गए हैं। वर्ष 2019 में संविधान में नया अनुच्छेद 16(5) जोड़कर आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए भी दस फीसदी नौकरियां आरक्षित की गई। चौथे, पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लिए आरक्षण प्रावधान अनु. 243डी तथा 243टी में दिए हैं।
अनुसूचित जातियों और जनजातियों के राजनीतिक आरक्षण का आधार मूलतः कुछ वर्गों के प्रति छुआछूत बरतना और नागरिक अधिकारों का हनन बना था, सरकार और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के माध्यम से पीड़ित वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके इन सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन की अवधारणा संविधान में स्थापित की गई। क्योंकि छुआ-छूत का प्रसार केवल हिन्दू समाज में ही है, इसलिए अनुसूचित जातियों में मुसलमानों का उल्लेख नहीं है।
शुरुआत में आरक्षण के प्रावधान केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए थे। पिछड़े वर्गों का आरक्षण सर्वोच्च न्यायालय में श्रीमती चम्पक दोराईराजन प्रकरण (1951) के दौरान केन्द्र बिन्दु में आया, अदालत ने कहा कि यद्यपि अनुच्छेद 16(4) पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण का उल्लेख करता है, अनुच्छेद 15 में इसका जिक्र तक नहीं है। इसके बाद संविधान में पहला संशोधन किया गया और अनुच्छेद 15(4) जोड़कर सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश संबंधी आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया।
वर्ष 1953 में पिछड़े वर्गों की दशा का अध्ययन करने के लिए पहला पिछड़ा वर्ग आयोग काका कालेलकर की अध्यक्षता में बनाया गया। दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बीपी मंडल की अध्यक्षता में वर्ष 1979 में गठित किया गया जिसकी रिपोर्ट 1990 में लागू की गई थी। मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट ही मुसलमानों को पिछड़े वर्गों में सम्मिलित कराती है। रिपोर्ट में कहा गया था कि दो प्रकार की मुसलमान जातियां पिछड़ी जाति मानी जाएंगी, पहली, वे जो धर्म परिवर्तन से पहले हिन्दू अछूत जातियां थी और, दूसरी, वे हिन्दू पिछड़ी जातियां जिन्होंने धर्म परिवर्तन के बाद भी अपना परम्परागत व्यवसाय जारी रखा हो। इसके बाद अनेक राज्यों ने मुसलमानों की कुछ पिछड़ी जातियों को आरक्षण लाभ देना श्ाुरू कर दिया था।
आरक्षण की संवैधानिक व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर की जाती रही है। इंदिरा साहनी प्रकरण (1992) में न्यायालय द्वारा व्याख्या दी गयी थी कि पिछड़े वर्ग की ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण लाभ नहीं मिलना चाहिए, पदोन्नति में आरक्षण नहीं हो और 50 प्रतिशत से अधिक भी नहीं होना चाहिए। इसके तुरन्त बाद संविधान संशोधन करके सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण का आधार बरकरार रखा था। एक प्रकरण में 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मैरिट व गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक दस वर्ष उपरान्त आरक्षण की समीक्षा करनी चाहिए।
संविधान में आरक्षण की अवधारणा उन लोगों के मुख्य धारा में समावेश का आधार बनी थी जो ऐतिहासिक अथवा अन्य कारणों से पीछे छूट गए थे। इसका अभिप्राय है, जो लोग पिछड़ेपन से बाहर आ गए हैं उन्हें आरक्षण लाभ नहीं मिलना चाहिए, ताकि अन्य पात्र पिछड़ों को आरक्षण दिया जा सके। अतः आरक्षण की सामयिक समीक्षा जरूरी है परन्तु वोटबैंक राजनीति के चलते ऐसा नहीं हो पाया। आरक्षण सरकार की सकारात्मक उपायों की समावेशी अवधारणा का प्रतिबिम्ब है। इन नीतियों को संविधान की मूल भावना के आलोक में ही लागू किया जाए, न कि सियासी हित-साधना के एक तंत्र के रूप में।

लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement