कसौटी पर स्कूली शिक्षा की उपलब्धियां
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूल शिक्षा एवं साक्षरता विभाग ने हाल ही में देश की स्कूली शिक्षा के बारे में जो विहंगम दृष्टिपात किया है, वह देश की शिक्षा के भाग्य-विधाताओं द्वारा शिक्षा क्रांति के दावों की पैरवी करने के बावजूद करोड़ों नौनिहालों के लिए विशेष आस नहीं बंधा रहा। बेशक यह महसूस कर लिया गया कि देश की नई पीढ़ी को नवजागरण की आवश्यकता है। यह भी कि अमृत महोत्सव तक आते-आते राष्ट्र विकास का कितना पथ तय कर गया और अगले 25 साल में स्कूली नौनिहालों ने प्रगति की धुरी बनकर उसे कहां से कहां ले जाना है। इसीलिए देश में शिक्षा के प्रसार के लिए समय-समय पर अनेक कार्यक्रम और अभियान चलाए जाते हैं।
इस चुनावी साल में राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडे में दो ही बातें प्रमुख हैं। एक स्कूली शिक्षा का विकास और दूसरा प्राथमिक चिकित्सा एवं सही उपचार की उपलब्धता। निश्चय ही देश के उत्तरी हिस्से यानी पंजाब, हरियाणा और हिमाचल में शिक्षा-प्रसार को लेकर चलाए गए अभियान दावा करते हैं कि नई पौध का बहुत बड़ा हिस्सा अब शिक्षा के दायरे में आ गया है। हाल ही में जारी किये गये एक परफॉरमेंस ग्रेडिंग सूचकांक रिपोर्ट में स्पष्ट कर दिया गया है कि पंजाब और केन्द्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़ में स्कूली शिक्षा के प्रचार-प्रसार की बहुत अच्छी स्थिति है। स्कूल शिक्षा के लिए मूलभूत ढांचे का विकास किया गया है।
शिक्षा के इस नये मॉडल में नया सिद्धांत लागू करते हुए निजी स्कूलों के वर्चस्व को सरकारी स्कूल, मैरिट स्कूल और स्कूल ऑफ एमिनैंस भी चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में पंजाब और चंडीगढ़ गर्वित हो सकते हैं कि स्कूली शिक्षा की उपलब्धि के मामले में वे शीर्ष पर हैं। लेकिन यह शीर्ष कैसा है? असल में यदि इसकी गुणवत्ता जांचें तो पाते हैं कि इस जांच-पड़ताल के लिए पहले पांच कसौटियां थीं, अब दस कसौटियां बना दी गई हैं। लेकिन ये राज्य जो नौनिहालों की शिक्षा के मामले में शीर्ष पर बैठे हैं, पहली पांच कसौटियों को भी पूरा ही नहीं करते। बाकी पांच कसौटियों के मामले में वे इन्हें आंशिक रूप से पूरा करते हैं।
बता दें कि साल 2017 में प्रदर्शन ग्रेडिंग सूचकांक के दस ग्रेड तय किए गए थे। शिक्षा में निवेश तो किया गया। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब का दावा है कि उन्होंने शिक्षा-प्रसार के लिए पिछले वर्ष से 50 प्रतिशत अधिक खर्च किया है। कसौटी तो यह भी है कि देश के नौनिहालों को नई शिक्षा नीति के अधीन रोजगार उन्मुख और शोधपरक शिक्षा देने के लिए सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत व्यय करना चाहिए लेकिन वास्तविकता यह है कि यह चाहे आधुनिकता का दम भरने वाला पंजाब हो या चंडीगढ़ यहां शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं किया जाता है। वहीं परिणाम की बात की जाये तो शिक्षा का यह प्रभाव कई प्रतिमानों पर पूरा नहीं उतरता। शिक्षा प्रदान करने के वार्षिक खाते को निरंतर सुधारा नहीं जा रहा है। बेहतर साधनों को साझा नहीं किया जा रहा अर्थात सरकारी और गैर-सरकारी स्कूलों को एक ही कड़ी मानकर शिक्षा प्रदान करने की डिजिटल सुविधाओं को लागू नहीं किया गया।
जहां तक शिक्षा प्रबंधन का संबंध है, उसमें भी कमियां हैं। कहा जाता है कि स्कूली छात्रों और अध्यापकों का अनुपात 1 और 40 से अधिक नहीं होना चाहिए लेकिन हकीकत में कई ग्रामीण स्कूलों में 1 या 2 अध्यापक ही सभी प्राइमरी कक्षाओं को संभालते हैं। शिक्षकों को नियमित करने की भी एक समस्या है। शिक्षक के तौर पर चयनित हो जाने के बाद उन्हें नियुक्ति पत्र पाने के लिए भी अनावश्यक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
शिक्षा का मूलभूत ढांचा तो शिक्षण संस्थानों के परिसर बनाकर खड़ा कर दिया गया लेकिन उनमें जो शोध, पुस्तक संस्कृति और रोजगारपरक योग्यता के विकास का माहौल होना चाहिए, वह नहीं पाया जाता। पंजाब की तो स्थिति यह है कि यहां विज्ञान विषयों और शोध प्रयासों से बचकर छात्र कला संकाय की ओर भागते हैं। मुख्य मकसद डिग्री हासिल करना और ‘बैंड’ बनाकर विदेशों की ओर पलायन करना रहता है। बेशक देश में शिक्षा की हालत में सुधार के लिए लम्बे समय से प्रयास हो रहे हैं। सरकारी स्तर पर यह भली भांति ज्ञात है कि शिक्षा के बिना देश में ठोस विकास नहीं हो सकेगा। इसलिए नये-नये कार्यक्रम संचालित करते हुए उनकी गुणवत्ता में व्यावहारिकता लाने की नई कवायद होनी चाहिए, जो नहीं हो पाती है। पिछले कई सालों से स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता को जब एक अनिवार्य कसौटी पर कसा जाता है तो उसके यही परिणाम निकलते हैं कि शिक्षा से समझ और ज्ञान के विकास में वह वृद्धि नहीं हो पा रही जो होनी चाहिए।
रिपोर्ट के मुताबिक, स्कूलों में पांचवीं, छठी या उससे ऊपर की कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे भी दूसरी या तीसरी कक्षा की किताबें भी ठीक से नहीं समझ पाते। वहीं बड़ी कक्षाओं में भी उनका हाल बेहतर नहीं है। स्कूलों में वाचनालय या तो हैं नहीं, या उन्हें निरंतर नये प्रकाशनों से अपडेट नहीं किया जाता है। विद्यार्थी तो मोबाइल पर गेम्स को पुस्तक संस्कृति से अधिक प्राथमिकता देते हैं।
ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं हो गया कि निचली कक्षाओं के बच्चों के बीच सीखने की प्रक्रिया को एक नये तरीके से संचालित किया जाए। उनमें नये-नये प्रयोगों और आचरण को बढ़ावा दिया जाए। यह भी जांचा जाए कि अध्यापक जो शिक्षण दे रहा है, वह छात्रों तक पहुंच भी रहा है या नहीं। क्यों ऐसी खबरें आ रही हैं कि परीक्षाओं में नकल का धंधा अब एक संगठित तरीके से उभर रहा है? क्यों प्राइमरी स्तर से ही नौनिहाल बगैर ट्यूशन के चल नहीं सकते? क्यों आज भी ‘तोता रटंत’ सफलता का रास्ता है? शिक्षा क्रांति से दुनिया बदल देने की बातें बहुत हो गईं लेकिन क्या कारण है कि वह क्रांति केवल ऊपरी लीपापोती तक ही ठिठक जाती है?
शिक्षा का उद्देश्य है छात्र के अंतस में एक नये ज्ञान का उजास भर देना। यह नया ज्ञान पुस्तकों से, प्रयोगों से और लीक से हट कर व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने से ही होगा। लेकिन अगर अध्यापकों के मन में ही अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को बार-बार ताजा करने की ललक नहीं है तो वे अपने छात्रों को पढ़ाई-लिखाई के नये रास्ते पर चलाकर उनकी शिक्षा से प्राप्त होने वाली समझ को कैसे सुधार सकेंगे? ऐसे में तो हालत वही रहेगी कि आठवीं कक्षा का बच्चा भी 3 या 4 अंकों के गुणा-भाग में ही अटकने लगता है। पुस्तकों को अपने जीवन का अनिवार्य अंग नहीं मानता। खेल भावना और नैतिक मूल्य तो उसके चरित्र का हिस्सा ही नहीं बन पाते। बेशक पंजाब और चंडीगढ़ ने देश के शिक्षा परफॉरमेंस ग्रेडिंग सूचकांक में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया लेकिन सवाल उठता है कि यह शीर्ष स्थान पहले पांच ग्रेडों से अछूता रहकर छठे ग्रेड से क्यों शुरू हो रहा है?
लेखक साहित्यकार हैं।