भयानक चित्र यह भी
प्रभा पारीक
अब कैदी चुप हुआ, घूंट भर पानी पीकर कैदी ने जो कहा... उन शब्दों ने श्रीमान देवदत्त बाबू को एक ही पल में वापस देवदत्त चितेरे से भी निम्न अवस्था में ला खड़ा किया। कुछ ही समय के बाद कैदी ने मुड़ा-तुड़ा सा कागज अपनी जेब से निकाला व देवदत्त को देते हुए कहा, तुम्हारी सबसे सुन्दर रचना वाला बालक भी मैं ही था। समय भी क्या चीज है आज समय ने मुझे सबसे भयानक रूप वाला व्यक्ति बनाकर पुनः तुम्हारे सामने ला खड़ा किया है।
देवदत्त एक साधारण व्यक्ति था। आज से कुछ वर्षों पहले भी वह कूची का धनी व कला का महारथी था, पर वह और उसका परिवार दाने-दाने को तरसता था। कच्ची बस्ती की एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रहने को मजबूर, जब चित्रकारी का कोई काम मिल जाता तो उसे दिल लगाकर करता और परिवार के लिए दो नहीं तो एक वक्त की रोटी का इन्तज़ाम तो हो ही जाता। देवदत्त को देवदत्त चितेरा के नाम से सारा गांव पहचानता। जैसा देवदत्त शांत व संतुष्ट था ठीक वैसा ही उसका परिवार एक वक्त भोजन और दूसरे वक्त पानी पीकर अगले दिन की आस आंखों में दबाये सो जाता।
गुजरात का काजीपुर गांव। पत्नी मनोरमा ने उस दिन नीम के पेड़ की ठंडी छांव में बैठे-बैठे कहा था, अजी क्यूं न आप कोई ऐसा चित्र बनायें जो लोगों को बहुत पसंद आये और उस तरह के चित्रों की मांग बार-बार करें तो हमें भी दोनों वक्त का भोजन मिलने लगे। दुखी दम्पति भी शायद यह बात करके भूल चुका था पर कहते हैं कि हमारे चारों ओर योगिनियां घूमती रहती हैं और वे न जाने हमारी कही बातों या बोलों को चरितार्थ करने के लिये कब तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो जाती हैं। इसीलिये तो कहते हैं कि मुंह से सदा सकारात्मक बोल ही निकलने चाहिए। ऐसा ही कुछ तो उस दिन भी हुआ था। देवदत्त चितेरा अपनी पत्नी के साथ पेड़ की ठंडी छांव में बैठा था। पत्नी की बात को सुना और सोचने लगा काश! ऐसा ही होता मैं ऐसा कोई चित्र बनाऊं कि मेरे परिवार के दिन बदल जाएं। भूख मिट जाये, कोमल शिशु के लिए सुविधायें न सही, दो वक्त का भोजन तो जुट जाये।
और कब उसे नींद आई, शाम के शोर से जागा तो चेहरे पर मीठी नींद की ताज़गी थी। गुजराती कहावत है ‘राते सुता सपना जोता दिवसे कदी व पूरा थाता, पण आस छे तोज भास छे।’ इस विश्वास के साथ उसके दिमाग में पुनः पत्नी की बात घूमने लगी थी। गांव का चक्कर लगाकर घर में प्रवेश किया तो नन्हा कानुड़ा (बाल कृष्ण) वर्षभर का बालक आंगन में बैठा एक मकोड़े को पकड़ने के प्रयास में लगा था। भोलापन कितना निडर होता है। छोडी दे छोडी दे कानुड़ा कहते हुए देवदत्त को हंसी आ गयी बच्चे की भोली निडरता पर। उसने देखा, बच्चा जब मकोड़े को हाथ से पकड़ने में सफल हो जाता तो पुलक कर किलकारी मारने लगता। मकोड़े के काट लेने के भय से अनजान बालक के चेहरे पर अनोखा तेज़ नजर आया। म्हारू कानुड़ो.. असीम प्यार उमड़ पड़ा लालू के लिये। वैसे भी खुशी में मानव का सौन्दर्य अपने चरम पर पहुंचता है। बस उसी वक्त देवदत्त ने निर्णय ले लिया कि वह एक शिशु का चित्र बनायेगा पर बालक उसका नहीं होगा। नज़र लगने का डर मां को ही नहीं, पिता को भी साहस करने से अटकाता है। किसी बालक के कोमल सौन्दर्य को चित्रित करता अनेक कानुड़ों के विभिन्न भावों को अपनी तूलिका से चित्रित करेगा। फिर चाहे उसे उसका कोई भी मूल्य मिले। अब देवदत्त ने अपनी कल्पना के शिशु की तलाश आरम्भ की। अपनी कल्पना के अनुरूप बालक की तलाश, अधीरता और भूख और कुछ ही दिनों में देवदत्त चितेरे ने एक ऐसा बालक ढूंढ़ ही लिया। अपने ही गांव के एक मजदूर परिवार का पुत्र बालक क्या था एक दैवीय रूप था।
उस बालक का चित्र उसने पूरी तन्मयता से बनाया। बीच-बीच में बालक को मनाने, ध्यान हटाने के लिये कानुड़ा ने माखन भावे रे जैसे गीत की कड़ी गाता, बालक खिल-खिला कर हंस पड़ता। चित्र पूरा होने पर उसकी स्वयं की आंखें भी उस चित्र पर से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी।
उत्साह से अपने गांव से चलकर किसी तरह पास के छोटे शहर तक उस चित्र को संभालकर ले गया और बीच बाज़ार में एक दुकान के सामने चित्र को रखकर बैठ गया। न जाने उस दिन उसकी कब आंख लगी और आंख खुलने पर उसने देखा,दस-बारह लोग एकटक उसके चित्र को निहार रहे थे।
सभी उससे उस चित्र की कीमत पूछ रहे थे। देवदत्त चितेरे को इसका अंदाज़ा ही नहीं था। मुंह से कोई कीमत निकल ही नहीं पा रही थी। हक्का-बक्का, किसी ने हज़ार दिखाये, किसी ने दो हज़ार, किसी ने उससे भी अधिक और अंत में एक जोरावर से दिखने वाले व्यक्ति ने सबको धकेलते हुए दस हजार रुपये उसके हाथ में थमाये और चित्र लेकर चला गया। देवदत्त हक्का-बक्का देखता ही रहा। कुछ सूझ ही नहीं रहा हो जैसे। जब कुछ सूझा तो शांत मन से देवदत्त ने सामने खड़े लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा, भाइयो यदि आपको भी ऐसा ही चित्र चाहिए तो दस दिनों के बाद, यहीं इसी जगह पर आप अपना-अपना चित्र ले जा सकते हैं। सबका आभार मानता हुआ देवदत्त चितेरा उन रुपयों को सुरक्षित मुट्ठी में थामे तेज गति, प्रफुल्लित मन से घर की ओर चल दिया। दिल इतना पुलकित था कि घर की डगर लंबी लगने लगी थी। घर पहुंचते ही अपने बालक का माथा चूमा, पत्नी को रुपये पकड़ाता अपनी मां से बोला-मां मुझे जल्दी ही वैसे दस चित्र बनाकर देने हैं।
आज घर में बहुत दिनों के बाद उस बालक के चित्र के कारण घरवालों ने भरपेट भोजन किया था। दूसरे दिन से ही देवदत्त चितेरे ने उसी बालक के सोकर उठने से शाम तक के कार्यकलापों के मनोहर चित्र बनाना शुरू कर दिया। देवदत्त के चित्रों की मांग बढ़ने लगी, मुंहमांगे दामों पर भी चित्र बिकने लगे। देवदत्त चितेरा अब पूरे देश में मशहूर हो चुका था और उसके गांव काजीपुर का नाम भी तो चित्रकार श्रीमान देवदत्त बाबू के नाम से ही तो जाना जाने लगा था। देवदत्त बाबू अब अपने आलीशान बंगले में बैठ कर चित्र बनाने लगे। सरकार द्वारा प्राप्त अनेक पुरस्कारों से घर के मेहमान कक्ष, शयन कक्ष, आराम कक्ष की शोभा में चार चांद लगे थे।
देवदत्त बाबू की मेहनत रंग लाई, अच्छे दिन आये और कब समय ने फिर अपना एक नया रूप दिखलाने की ठान ली। एक दिन देवदत्त बाबू को लगा कि मैंने अनेक सुन्दरता से मन मोह लेने वाले चित्र बनाये हैं। क्यों न मैं अब ऐसा कोइ चित्र बनाऊं जिसमें मानव का अत्यन्त डरावना चेहरा नजर आये। इसी सोच को साकार रूप देने के लिये श्रीमान देवदत्त बाबू ने अब एक डरावने चेहरे की तलाश आरंभ कर दी। सुन्दरता की तलाश करना और उसे ढूंढ़ पाना उतना कठिन नहीं है जितना कि भयानकतम चेहरे को खोज निकालना। वक्त निकलता गया पर मनचाही सफलता अभी दूर नजर आ रही थी कि देवदत्त बाबू के एक मित्र ने सलाह दी-भयानक चेहरे के लिये क्यूं न आप एक चक्कर जेल का लगा आयें। देवदत्त बाबू को सलाह जंच गयी, सोचा क्या हर्ज है। अंततः जेल में उन्हें वह भयानक चेहरा मिल गया जिसकी उनको लम्बे समय से तलाश थी। देवदत्त बाबू को जहां अपनी तलाश पूरी होने का संतोष था, वहीं उसे देख कर डर भी मन में समाया था। ऐसा जघन्य अपराधी जिसके सामने कुछ पल खड़े रहना मुश्किल था। उस पर जेलर ने देवदत्त साहब को सावधान रहने व उनकी सुरक्षा के निर्देश भी दे ही दिये थे।
जेल में देवदत्त बाबू के लिए सारी व्यवस्थाएं कर दी गयी थीं। श्रीमान देवदत्त बाबू के मन में डर तो था ही पर उन्हें अपने पर व जेल के सुरक्षा कर्मचारियों पर विश्वास भी था। सभी कैदियों को यह पता लग चुका था कि मशहूर चित्रकार देवदत्त बाबू आज अपनी नई कलाकृति बनाने आये हैं। काश! वह हमारा चेहरा पसंद करते। एक हसरत-सी सभी के दिलों में जागी थी। धीर-गंभीर मुद्रा में काम आरंभ किया था देवदत्त बाबू ने। सावधानी, भय जब मन में जगह बना लें तो काम की कुशलता में सफलता की आशंका अपना स्थान ले लेती है। सामने बैठा कैदी आराम से बैठा था जैसे सब बातों से निर्लिप्त हो, कुछ समय बाद कैदी ने देवदत्त बाबू पर अपनी नजरें गड़ाते हुए पूछा- तुम क्या कर रहे हो? धीर-गंभीर वाणी में देवदत्त बाबू ने संक्षिप्त जवाब दिया-चित्र बना रहा हूं, तुम आराम से बैठे रहो! कैदी जैसे सयाना बालक हो आराम से बैठ गया। अभी कुछ और समय बीता तो कैदी ने पूछा, तुम मेरा चित्र क्यों बना रहे हो? ऐसा क्या है मुझ में? कुछ असमंजस में स्वतः ही बोला था, मैं भयानक दिखता हूं इसलिये? अब देवदत्त बाबू की बारी थी, स्वीकृति से चेहरा भर हिलाया था। कैदी शायद रुआंसा-सा हुआ था और चित्र का अब थोड़ा हिस्सा ही बाकी था कि कैदी खड़ा हो गया। सीधा-सपाट सवाल देवदत्त बाबू पर कर डाला- क्या तुम काजीपुर गांव के देवदत्त चितेरे हो? उसके सवाल दागने के भाव व लाल भयानक आंखों को देखकर देवदत्त बाबू की तुलिका वहीं जड़वत् हो गयी, हाथ वहीं थम गये। आने वाला समय कितना भयानक अथवा सामान्य होगा इसका अंदाजा लगाने में असमर्थ देवदत्त जी कुर्सी पर धम्म से बैठ गये और अचानक कैदी जोर-जोर से रोने लगा। उसका रुदन इतना भयानक हृदय द्रावक था कि पल भर में जेल की सारी व्यवस्था सजग हो गयी। अनेक प्रयास करने पर भी नाकाम, उसे चुप कराने में सफलता न मिलते देख एक बुजुर्ग की तरह देवदत्त जी ने उसे अपने सीने से लगाया। संभवतः देवदत्त चितेरे का वह उष्माभरा आलिंगन उस दुःखों से संतृप्त कैदी के दिल पर थोड़ा मरहम लगा पाया हो। अब कैदी चुप हुआ, घूंट भर पानी पीकर कैदी ने जो कहा... उन शब्दों ने श्रीमान देवदत्त बाबू को एक ही पल में वापस देवदत्त चितेरे से भी निम्न अवस्था में ला खड़ा किया। कुछ ही समय के बाद कैदी ने मुड़ा-तुड़ा सा कागज अपनी जेब से निकाला व देवदत्त को देते हुए कहा, तुम्हारी सबसे सुन्दर रचना वाला बालक भी मैं ही था। समय भी क्या चीज है आज समय ने मुझे सबसे भयानक रूपवाला व्यक्ति बनाकर पुनः तुम्हारे सामने ला खड़ा किया है। तुम मेरे ही कारण देवदत्त चितेरे से यहां तक का सफर तय कर पाये और मैं तुम्हारे ही कारण जीवन के बाईस वर्षों के बाद यहां खड़ा हूं- तुम्हारे सामने एक भयानक चेहरे वाले व्यक्ति के रूप में। अचरज से देवदत्त बाबू की आंखें झपकना बंद कर चुकी थीं। मुंह से कोई बोल ही नहीं निकाल पा रहे थे कि कैदी ने आपबीती सुनाई। कैसे मेरे मजदूर पिता को तुमने मेरा चित्र बनाने के लिये मनाया था। पैसों का प्रलोभन और फिर मुक्त हाथों से तुमने जो पैसे देना शुरू किया तो पिता को कामकाज में रुचि ही नहीं रही। चित्र से मिले वह पैसे शराब की भेंट चढ़ने लगे और नहीं मिलने पर मेरे फटे होंठ, सूजे गालों के भी अनेक चित्र तुमने बनाये हैं। जीवन के अठारह वर्ष मां को मार खाते, भूखा सोते देखता रहा, शिक्षा से दूर, मजूरी, भीख के अलावा करता भी क्या? सभी तो पिता के नशे की भेंट चढ़ चुका था।
एक दिन पिता के संतापों से दुखी मां ने स्वयं को जला कर मुक्ति पा ली और मैं न जाने कब सारे जीवन का आक्रोश एक ही बार में पिता, चाचा, पड़ोसी की निर्मम हत्या करके निकाल कर घर से निकल पड़ा। अंजान रास्ते न जाने कितनी हत्याएंं की, पाप किये, सब तुम्हारे कारण।
जब तक तुमने चित्र नहीं बनाया था पिता काम करके घर तो चला रहे थे। देवदत्त चितेरे के मुंह से इतना ही निकला... पानी। तब से आज तक मशहूर चित्रकार देवदत्त बाबू ने अपनी तुलिका को हाथ भी नहीं लगाया। उनके ही सधे हाथों से चित्रित अधूरा भयानक चेहरा अब उनके चेहरे पर आ लगा है। ग्लानि भाव ने उनके जीवन में इतनी गहरी जगह बना ली है कि परिवार-प्रतिष्ठा किसी की चाह नहीं है। अपने अनजाने अपराधों के लिये क्षमा की गुहार कहां जाकर लगाये कि उन्हें मानसिक शांति मिले।
कभी-कभी अनजाने में ही सही, मनुष्यों से वह कृत्य हो जाता है जिसका निर्णय हम मनुष्यों द्वारा करना अन्याय कहलाता है।