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यादों की कसक में मंदिर बतौर एक जीत

08:35 AM Jan 08, 2024 IST
यादों की कसक में मंदिर बतौर एक जीत
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राजेश रामचंद्रन
जनवरी की एक बर्फीली सुबह को पड़ोस की श्रमिक कालोनी से आते ऊंचे नारों से नींद टूटी। नारे थे ‘जय श्री राम’ के और एक छोटा झुंड घर-घर जाकर अयोध्या में 22 जनवरी को राम मंदिर में राम लला की मूर्ति के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के बारे में सूचना दे रहा था। मैंने खुद को अन-आमंत्रित महसूस किया। क्या यह इसलिए कि मुझको भी वे मैकालेपुत्र मानकर या सटीकता से कहें तो चर्चिलपुत्र की तरह ले रहे हैं, जिसे किसी भी भारतीय चीज या हिंदू शब्द से चिढ़ थी या फिर मैं उनके आक्रामक हिंदू राष्ट्रवाद का साथ न देने वाला एक गांधीवादी अमनपसंद व्यक्ति हूं।
खैर, मैकालेपुत्र, गांधीवादी राष्ट्रवादी और हिंदू पुनर्जागरण कर्ता– सरल या प्राय: गाली जैसी शब्दावली में– ये तीनों मौजूदा भारतीय राजनीतिक चलन में प्रतिस्पर्धात्मक धाराएं हैं, जिसमें तीसरी किस्म ने अन्यों को पछाड़ दिया है। अयोध्या में राम मंदिर का बनना हिंदू पुनरुत्थानवादियों के लिए जीत का प्रतीक है। एक पूर्व ब्रिटिश औपनिवेशिक कालोनी में राष्ट्रवाद भारत की मुख्य राजनीतिक भावना बना रहा और यह जातीय, क्षेत्रीय और भाषाई भेदों पर भारी पड़ता है। हिंदू पुनरुत्थानावादियों की जीत के पीछे खुद को भारतीय राष्ट्रवाद का एकमात्र ध्वजवाहक होने की दावेदारी की सफलता है, जिसे उन्होंने आसानी से धार्मिक-राजनीतिक परियोजना में तब्दील कर डाला और यहां पर राजनीतिक चलन की अन्य दो धाराएं पस्त हो गईं।
पहली हार हुई गांधीवादी राष्ट्रवादियों की। जब तक इसका जोर रहा, हिंदू दक्षिणपंथी पुनरुत्थानवादी मुख्यधारा का राजनीतिक दल नहीं बन पाए। वास्तव में, जब भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ तो इसने गांधीवादी समाजवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत बताया था, जो भारतीय राष्ट्रवाद के इस शाश्वत प्रतीक को भुनाने का प्रयास था। इसी बीच, कांग्रेस में गांधीवादी राष्ट्रवाद के उत्तराधिकारियों ने इस विचार को हिंदू-मुस्लिम एकता और सौहार्द में तब्दील करते हुए प्रतिगामी इस्लामिक मौलानाओं का तुष्टिकरण करके, जिन्हें धार्मिक आधार पर अलगाववाद तक से गुरेज़ नहीं था, अपने मूल सिद्धांतों का मखौल बना डाला।
सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेस पर प्रतिबंध, शाह बानो मामले में अदालती फैसले को उलटना और जिन्ना की मुस्लिम लीग से पुराना गठबंधन कायम रखने वाले दोहरे चरित्र ने साम्प्रदायिक आधार पर राजनीति करके वाले सत्ता हथियाने के आरोपों को वैधता दे डाली। यदि इस्लाम का इस्तेमाल वोट पाने के लिए हो सकता है तो फिर हिंदुत्व क्यों नहीं? बदतर भूमिका रही नव-भारत के वामपंथी छद्म-बुद्धिजीवियों की, जिन्होंने पूर्व-आधुनिक युगीन इस्लामिक प्रतिगामिता को न्यायोचित सिद्ध करने में सारा जोर लगा दिया। भारतीय वामपंथ, जो खुद को उत्तर-आधुनिक युगीन लोकतंत्र की आवाज़ होने का दावा करता है, वह इस्लामिक धार्मिक अलगाववादियों और कश्मीर घाटी से हिंदुओं के धार्मिक आधार पर सफाए को न्यायोचित बताने का हर संभव प्रयास करता रहा।
द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत मैकाले की खोज न होकर चर्चिल की सनक अधिक था। तथापि, उत्तर-आधुनिक युगीन शिक्षाविद, लेखक और राजनेता खुद को ऐसा समूह बताते रहे जिसे ऐसे भारत की परिकल्पना स्वीकार्य नहीं, जिसमें हिंदू और मुस्लिम एक साथ रहें। जब पश्चिमी साहित्य पुरस्कार विजेता और पश्चिम-अनुमोदित शिक्षाविद साम्प्रदायिक अलगाववाद के शिकार बने लोगों की दयनीयता को नज़रअंदाज़ करने लगे या धार्मिक आधार पर देश के टुकड़े करने की बात करने वालों की बैठकों में भाग लेने लगे, और जब औपनिवेशिक शासकों की तरह उनका द्वि-राष्ट्रीय एजेंडा और प्रत्यक्ष होने लगा, तब उन्हें मैकालेपुत्र कहकर पुकारा जाने लगा।
आगे, इस प्रक्रिया में, भारतीय वामपंथ ने राष्ट्रवाद को अंधराष्ट्र की दुकान ठहराकर आलोचना करनी शुरू कर दी। इसने मजबूत मध्यमार्गी दल (कांग्रेस) का तोड़ करने को बेशर्मी से जातीयता और भाषाई आधार पर अलगाववाद को हथियार बनाया। इंदिरा गांधी जैसा नेता, जो पश्चिम-प्राधान्यता को चुनौती देने की कूवत रखता हो, कहीं ऐसा कोई और नेता न उभर आए, यह डर नव भारतीय वामपंथ में तारी रहा, जिसमें ज्यादातर गिनती पश्चिमी शिक्षाप्राप्त या पश्चिमी सोच से ओतप्रोत शिक्षाविदों, लेखकों और पत्रकारों की है। एक राष्ट्रीय पत्रिका के पहले संस्करण में दावा किया गया कि 70 फीसदी कश्मीरी भारत से अलग होना चाहते हैं, हालांकि किस सर्वे को आधार बनाया यह आज तक रहस्य है। यह 1990 के दशक की उथल-पुथल थी, जब दक्षिणपंथी हिंदुत्व इस नव-वामपंथ और पुरानी कांग्रेस के गांधीवादी राष्ट्रवाद के वारिस झंडाबरदारों से मुकाबले को बतौर एक मान्य ताकत बनकर उभरने लगा।
आज भी, राहुल गांधी मानते हैं कि जातिगत गणना हिंदू राष्ट्रवाद पर भारी पड़ेगी, क्या उन्हें अहसास है कि जिस अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए वे लगभग 40 प्रतिशत आरक्षण चाहते हैं, पहले स्वयं अपने संगठन में मुख्यमंत्री या पदाधिकारी चुनने में, या टिकट आवंटन करने में लागू कर दिखाना चाहिए। दरअसल, वंशवादी कांग्रेसी नेताओं ने जुगत लगाकर जातीयता और धार्मिक पहचान आधारित ऐसा हिंदू स्वरूप बनाना चाहा है जिसके लिए भगवान राम एक मिथक और आभासीय चरित्र हो। इसका तोड़ करने को, नव वामपंथियों ने मध्ययुगीन इतिहास को खंगालते हुए, यह सिद्ध करने की कोशिश की कि बाबर सही था, यह भूलते हुए कि भाजपा ठीक यही चाहेगी ताकि राष्ट्रवाद को बतौर एक राजनीतिक मंच हड़प सके।
हिंदू आमजन उस आक्रमणकारी के हिंदूओं के सबसे पवित्र नगर में मस्जिद बनवाने को सही कैसे मान लें? ऐसा कोई एक भी हिंदू परिवार न होगा जिसमें राम की पूजा न हो या रामायण पाठ या आराधना या रीतियों का पालन न हो। पश्चिमी सोच में रंगे बुद्धिजीवियों के हिंदू जनमानस के विरुद्ध मचाए शोर ने लोगों को उनसे विमुख किया, जिसे आरएसएस के एजेंडे ने स्वरूप देकर, राम मंदिर को हिंदू पुनरुत्थान समाज का प्रतीक बना डाला। साल 1977 में, भारतीय राजनीति में जब स्वतंत्रता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन), लोक दल और समाजवादी दल ने मिलकर इंदिरा गांधी से मुकाबला करने को जनता पार्टी बनायी तो बतौर एक घटक जनसंघ की हैसियत एक छोटे खिलाड़ी की थी। यहां तक कि 1989 तक भी, बोफोर्स रिश्वत प्रकरण पर खूब प्रचार करने के बावजूद भाजपा कांग्रेस और जनता दल से काफी पीछे थी।
फिर भी यह कहना गलत होगा कि भाजपा के उद्भव का श्रेय विशुद्ध रूप से राम मंदिर आंदोलन को जाता है, जिसकी वास्तविक परिणति 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस में हुई और इस पर कार्रवाई जारी रही। मस्जिद गिरते ही, जल्द ही आडवाणी युग का अंत तो मोदी युग का आरंभ हुआ, जब 2010 में कॉमनवेल्थ खेलों की पूर्व संध्या में दिल्ली में नव-निर्मित पुल के गिरने, तैयारियों में कोताही और भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर यह जगहंसाई का सबब बना।
भारत को सदा एक ऐसे मजबूत नेता की चाहत रही है जो अंतर्राष्ट्रीय नक्शे का पुनर्निर्धारण कर सके, नए इलाके मिलाए और एक महाशक्ति का इस्तेमाल दूसरी के विरुद्ध करे। इसकी बजाय, मंदिर निर्माण हिंदू जनमानस के इस डर को जीतने का पर्याय बन गया कि कहीं मुल्कों की भलमनसाहत में दूसरे दर्जे का नागरिक बनकर न रह जाए। मंदिर का उद्घाटन, जहां मध्ययुगीन यादों पर जीत की तरह है वहीं हिमालयी आक्रामकता के विरुद्ध युद्ध का सरल अहसास भी कराती है– एक तरह से हिंदू दृढ़ता का लक्षण।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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