For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

नीतीश के दांव से तेजस्वी को छांव

11:38 AM Aug 11, 2022 IST
नीतीश के दांव से तेजस्वी को छांव
Advertisement

राजन कुमार अग्रवाल

बिहार में पहले लिखा गया अध्याय फिर से दोहराया जा चुका है। या कहें कि पुराना अध्याय ही फिर से खोल दिया गया है। नीतीश कुमार 8वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गये हैं। महागठबंधन के नेता के रूप में उन्होंने पद और गोपनीयता की शपथ ली है। इस महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, हम और सीपीआईएमएल शामिल हैं। नीतीश कुमार ने 8वीं बार मुख्यमंत्री बनने के लिए 164 विधायकों के समर्थन वाला पत्र राज्यपाल को सौंपा। राष्ट्रीय जनता दल के नेता और लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने भी उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है।

Advertisement

अब यह जो ‘बिहार हित’ की बात है, यही वो वजह है जो नीतीश कुमार को 8वीं बार मुख्यमंत्री बनाने में वजह साबित हुई। 2020 का चुनाव भी नीतीश कुमार ने बिहार हित में ही भाजपा के साथ गठबंधन में लड़ा था, और कम सीटें आने के बावजूद भाजपा ने उन्हें बिहार की गद्दी सौंप दी थी। तब यह भी कहा गया कि कम सीटों की वजह से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे, लेकिन भाजपा ने जोर देकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। हालांकि उससे पहले 2015 का चुनाव उन्होंने महागठबंधन के साथ ही लड़ा था और सरकार बनाई थी, लेकिन 26 जुलाई 2017 को उन्होंने अचानक राजभवन पहुंच कर इस्तीफा देकर सबको ऐसे ही चौंका दिया था, जैसे इस बार चौंकाया है। इस्तीफे के अगले ही दिन 27 जुलाई को उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली थी। 2020 का चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन में लड़ा गया लेकिन चिराग पासवान की वोट कटवा राजनीति की वजह से नीतीश कुमार की पार्टी ऐसी कई सीटें हार गई, जो वे जीत सकते थे। यह बात भी नीतीश को बाद में समझ में आई कि चिराग पासवान भाजपा के एजेंडे के तहत काम कर रहे थे। इससे नीतीश सहयोगी दल से आहत भी हुए, लेकिन फिर भी 2 साल निकाल दिये।

बहरहाल, नई सरकार बनी है तो इसके भी सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। नये समीकरण के क्या मायने होंगे, यह समझना भी बेहद जरूरी है। तो सबसे पहले बात करते हैं बिहार में भाजपा की। सरकार से बाहर होना भाजपा के लिए बड़ा झटका है। बिहार में पार्टी के पास बड़ा चेहरा नहीं होने की वजह से पशुपति पारस, चिराग पासवान और आरसीपी सिंह के साथ संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर हो चुके रविशंकर प्रसाद और राजीव प्रताप रूड़ी का कद वैसे ही छोटा किया जा चुका है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे एक इलाके भर के नेता हैं। पूरे प्रदेश में कोई असर डाल पाएंगे, इसकी संभावना कम है।

Advertisement

नये समीकरण राष्ट्रीय जनता दल और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं। एक तो पार्टी की सत्ता में वापसी से कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा वहीं दूसरी तरफ युवा उपमुख्यमंत्री के तौर पर तेजस्वी के पास खुद को साबित करने का मौका है। वे युवा हैं और उनके पास वक्त है। अगर नीतीश केंद्र की तरफ रुख करते हैं तो स्वाभाविक रूप से वे अगले मुख्यमंत्री हो सकते हैं।

कयास लगाये जा रहे हैं कि नये सियासी समीकरणों में महागठबंधन की सरकार पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत और लालू यादव से नीतीश कुमार की करीब-करीब 45 साल पुरानी दोस्ती की वजह से ज्यादा टिकाऊ साबित हो सकती है। सहयोगी दलों में वैचारिक समानता भी है, लेकिन जो सबसे अहम है, वह है राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार की संभावनाएं। नीतीश कुमार देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का सपना देखते रहे हैं। जदयू और भाजपा का गठबंधन जब पहली बार 17 साल बाद टूटा था, तब भी इसकी कसक दिखाई दी थी। और जब उन्होंने 8वीं बार बिहार के सीएम पद की शपथ ली तब भी। उन्होंने बिना नाम लिए सीधा निशाना भाजपा पर साधते हुए कहा कि कुछ लोगों को लगता है कि 2024 तक विपक्ष खत्म हो जाएगा, लेकिन 2014 वाले रहेंगे तब ना? और तेजस्वी ने भी इस बात की तसदीक कर दी कि मुख्यमंत्री ठीक बोल रहे हैं।

छात्र आंदोलन से बिहार विधानसभा और फिर संसद तक का सफर तय कर चुके नीतीश कुमार ये जानते हैं कि तोड़ना जितना आसान है, बिखरे हुए को जोड़ना उतना ही मुश्किल। इसीलिए उन्होंने कहा है कि विपक्ष ‘मन’ से एकजुट हो जाए। विपक्षी दलों में स्वीकार्यता की कमी बड़ी वजह है जो किसी भी एक नाम पर मुहर नहीं लगने देती। नहीं तो दिल्ली पहुंचने का अरमान तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी रखती हैं। कांग्रेस के स्वनामधन्य बड़े नेताओं की इच्छाएं भी अनंत हैं। सबको साध कर, सही रणनीति ही किसी भी क्षत्रप का दिल्ली पहुंचने का सपना साकार कर सकती है। वो भी तब, जबकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बिहार की राजधानी पटना में ही कहा था- ‘जैसे कांग्रेस खत्म हो गई है, वैसे ही सभी क्षेत्रीय दल भी खत्म हो जाएंगे’।

यही बात नीतीश कुमार को चुभ गई सी लगती है। पिछले कुछ महीनों से जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। लेकिन जेपी नड्डा के बयान ने जैसे आग में घी का काम किया। लालू यादव की तबीयत खराब होने पर नीतीश कुमार उनसे मिलने दिल्ली के अस्पताल तक पहुंच गये थे। उससे पहले भी राबड़ी देवी के आवास पर इफ्तार पार्टी में शामिल हुए थे। बताते हैं कि इस टूट की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। विधानसभा अध्यक्ष से अनबन और भाजपा कोटे के मंत्रियों की बयानबाजियां भी नीतीश सरकार को अस्थिर करने के लिए ही थीं। भाजपा का रवैया भी नीतीश को लेकर बहुत आशावादी नहीं रहा था, नीतीश सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात करना चाहते थे लेकिन भाजपा ने कभी भूपेंद्र यादव तो कभी जेपी नड्डा को मध्यस्थ बना दिया। इससे भी नीतीश कुमार के अहमzwj;् को ठेस लगी।

अग्निपथ योजना पर बिहार में प्रदर्शन होता रहा और नीतीश कुमार चुप्पी साधे रहे। एक शब्द नहीं कहा। भाजपा ने देश में जातीय जनगणना कराने से इनकार किया तो बिहार सरकार ने जातीय जनगणना के लिए कानून ही पास कर दिया। नीतीश कुमार की जेडीयू ने नागरिकता संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान तो किया, लेकिन नीतीश कुमार ने प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी एनआरसी का विरोध करते हुए विधानसभा में एक प्रस्ताव भी पारित करवाया। बिहार में हुए कार्यक्रमों में नीतीश कुमार की फोटो नहीं लगाए जाने पर उन्होंने भी सीधे तौर पर केंद्र से टकराव मोल ले लिया। वे न राष्ट्रपति के भोज में पहुंचे, न उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान दिखे और न ही नीति आयोग की बैठक में शामिल हुए।

सियासी गलियारों में एक बात बार-बार कही जाती है – दिल्ली की सत्ता का रास्ता बिहार और उ.प्र. से होकर ही जाता है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जबकि बिहार में 40। ये 120 सीटें दिल्ली पहुंचने का रास्ता तैयार करती हैं। ऐसे में मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में तेजस्वी यादव भी यही चाहेंगे कि नीतीश दिल्ली का रुख करें ताकि उनका रास्ता साफ हो सके और नीतीश भी नई राहों के अन्वेषी बनने के लिए पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण की हवाओं का रुख जरूर भांपेंगे, ताकि सपनों के आसमान की तरफ उड़ान भरी जा सके।

लेखक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×