बात-बेबात, घात-प्रतिघात और सत्ता आत्मसात
प्रदीप मिश्र
जयंतियों और पुण्यतिथियों पर अनुभव बाबू महापुरुषों के पदचिह्नों पर चलने का आह्वान करते हैं। कहते हैं कि महापुरुष चाहे पौराणिक हों या ऐतिहासिक, वे पूजनीय हैं। आदरणीय और स्मरणीय हैं। ये परिव्राजक पुण्यात्माएं रमणीय भी हैं। वे देखती रहती हैं कि उनके मंतव्य को कितनी श्रद्धा, विश्वास और आत्मविश्वास के साथ पूरा करने का प्रयत्न किया जा रहा है। बोलना उनकी पुरानी आदत है। चुप्पी से उनकी अदावत है। बोलते जरूर हैं। अपने और दूसरों के राज खोलते जरूर हैं। उनके पास फर्जी और मर्जी का खजाना भरपूर है। दिल से दिमाग दिल्ली जितना ही दूर है।
जब दिवस विशेष आता है। अनुभव बाबू का मन हर्षाता है। वह बात करते हैं। बेबात घात-प्रतिघात करते हैं। चाहते हैं कि हर बात को आत्मसात किया जाए। आखिरकार, जीवन की सार्थकता और अगली पीढ़ी की प्रगति के लिए पथ प्रशस्त करना सबकी जिम्मेदारी है। सब उन्हें ध्यान से सुनते हैं। कुछ ही देर के लिए, उन्हीं जैसे सपने बुनते हैं। दिक्कत यह कि अनुभव बाबू आत्मप्रशंसा के प्रवाह में न तो पुरखों के पदचिह्न बताते हैं और न ही मार्ग दिखाते हैं। पता करना पड़ता है कि महापुरुष क्यों विख्यात थे। हालांकि दिन विशेष तो उन्हें भी पहले से ज्ञात थे।
धीरे-धीरे सब जानने लगे कि उन्हें बताया जा रहा मार्ग दुष्कर और दुरुह है। सुलभ न्याय, संस्कार और समरसता के लिए जीवन समर्पित करने वालों के आदर्श को किस सीमा तक आत्मसात किया जाए। स्वतंत्रता, संप्रभुता, अस्पृश्यता, विषमता, विपन्नता, स्वास्थ्य सुरक्षा और स्वच्छता को कैसे समझा जाए। सामूहिकता, संपन्नता, कुटिलता, धृष्टता, दुष्टता और कटुता से किस तरह निपटा जाए। सोचो, हर बात को आत्मसात करने का सुफल प्राप्त नहीं होने पर पदचिह्न कैसे बनेंगे। हर शपथ को कर्तव्य पथ पर आत्मसात नहीं किया जा सकता। जागते हुए सोने और सक्षम के अक्षम को ढोने का पाप नहीं किया जा सकता।
अनुभव बाबू ने इस मानसिकता को समझ लिया है। इसलिए एक और जिम्मेदारी का बोझ लिया है। कह दिया है कि बेबात घात, आघात, प्रतिघात, भितरघात और विश्वासघात करिए। विपरीत हालात में बात न बने तो आयात-निर्यात करिए। ज्यादा जरूरी है, जो बता रहे हैं उसे हर हाल आत्मसात करिए। हमारे आक्रोश से मानिए। अपने जोश से मानिए। रोष से मानिए। खुद को फिर जानिए। यशस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी और तपस्वी बन जाएंगे, पक्का मानिए।
बात अनादि काल से सही थी। पहले कम महानुभावों ने जोर देकर यही बात कही थी। उम्मीद है हम बदलेंगे। देश बदलेगा। युग बदलेगा। कुछ न कुछ काम होगा। फिर अपना नाम होगा। अब अनुभव की अगली नसीहत की प्रतीक्षा है। भले स्थिति विकट है। अवसर निकट है। फिर भी सुनते-देखते हैं, सब प्रभु की इच्छा है।