देख ले
राजेंद्र कुमार कनोजिया
ज़िंदगी जब भी
मुझे आवाज़ देगी,
जिस जगह तकलीफ़ होगी,
मैं तुम्हें फिर भी मिलूंगी।
ज़िंदगी तेरी बचाती,
तू जो शर्मिंदा नहीं, तो
देख ले, सोच ले।
जिस जगह पैदा हुआ था,
उस जगह भी मैं ही थी।
लेके आई थी तुझे जहां में,
जब बचाना था ज़रूरी तेरी मां को।
तू जो शर्मिंदा नहीं, तो
देख ले, सोच ले।
कल वहां भी मैं मिलूंगी,
जिस जगह पर सांस लेने के लिए
तड़फेगा तू, और मैं
तेरी सांसों की राहत की
नियामत, ज़िंदगी लेकर
वहीं मिल जाऊंगी।
तू जो शर्मिंदा नहीं, तो
देख ले, सोच ले।
तेरी बच्ची देखती होगी तुझे इस रूप में,
कौन है तू, जो किसी
की ज़िंदगी को छीनता है।
कौन है तू, जो अस्मत को
लूटता है, कब तक
छुपता फिरेगा, देख ले।
तू जो शर्मिंदा नहीं, तो
देख ले, सोच ले।
मैं तुम्हें फिर भी मिलूंगी।
अब लौट चलें
मैं जब भी कोशिश करता हूं
ईश्वर की सर्जित दुनिया में
कुछ दखलंदाजी करने की
सब निरर्थक हो जाता है।
आदत जैसा जब जीवन था
जैसे पशु-पक्षी, पेड़ सभी
प्राकृतिक ढंग से जीते हैं,
मैं भी कुछ सोचे बिना
उन दिनों सहज भाव से जीता था।
पर जब से शुरू विकास किया,
चीजों का आविष्कार किया,
तकलीफें कम हो गईं,
जिंदगी अधिकाधिक
आरामदेह बन गई।
सहजता भी लेकिन हो गई खत्म,
पहले की तरह प्रकृति की या
मानव से इतर प्राणियों की,
अब समझ नहीं पाता भाषा,
बेसुरा स्वयं को लगता हूं।
पहले जैसा अज्ञानी तो
अब नहीं दुबारा बन सकता,
पर जान-बूझकर भी सब कुछ
पहले जैसा ही सहज चाहता हूं बनना,
संकेत समझना ईश्वर के,
प्राकृतिक ढंग से ही चलना
मुझको अब अपनी बनावटी
दुनिया से खुद डर लगता है।
हेमधर शर्मा