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रिश्तों की मिठास

06:49 AM Aug 06, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

विमल कालिया
एक वक्त की बात है। बहुत पुरानी नहीं, पर बहुत हाल की भी नहीं है। कुछ दो-तीन पीढ़ियों पुरानी बात है। क्यों सुना रही हूं तुम्हें इतना पुराना किस्सा यह तो किस्सा फरोशी के बाद ही पता चलेगा। सो ध्यान से सुनना बच्चो।
तीन बच्चों की मां थी मैं। दो बेटे और एक बेटी थी मेरी। मेरी जान बसती थी अपने बच्चों में सारा-सारा दिन और सारी-सारी रात उन्हीं की चिंता खाये जाती थी। जाने उन्होंने टिफिन खाया होगा कि नहीं? कहीं दोस्तों को तो नहीं खिला दिये होंगे परांठे और खुद भूखे रह गये होंगे, कहीं, शरारती बच्चे तो नहीं खा गये होंगे उनका टिफिन चुरा कर सुबह की पहली क्लास में ही? सुना था क्लास में शरारती बच्चे भी होते हैं। बच्चे मेरे तो गऊ सरीखे थे। भोले भाले डपोरशंख। कभी पेंसिलें, कभी रबड़ और कभी तो पूरा का पूरा ज्योमैट्री बॉक्स ही गंवा आते थे। फाड़ लाते थे कापियों के कवर, जूते फाड़ लाते थे और कभी लड़ाई में कमीज की जेब। मेरा जी बड़ा हलकान हुआ रहता था सारा दिन। ऊपर से स्कूल की डायरी में मैडम जी पता नहीं कितनी शिकायतें लिख देती थीं। कभी बच्चों से पूछा तक नहीं कि प्यास तो नहीं लगी, उन्होंने खाना-नाश्ता कर लिया, बस यूं ही धूप में दौड़ाते रहते थे पी.टी. और खेल पीरियड के नाम पर। मैंने तो कभी शिकायत नहीं लिखी।
नम्बरों से मेरा कभी कोई लगाव ना था। मेरे कौन से कभी नम्बर आते थे स्कूल में। बस थोड़ी लिखाई सुंदर थी और लाला जी हर हफ्ते मास्टर जी के घर दुकान से राशन भिजवा देते थे सो पास हो जाती थी। मां-बाप की लाडली थी- लाला जी यानी मेरे पिता जी की कुछ ज्यादा। पांच भाइयों की इकलौती बहन। कोई कुछ नहीं था कहता- सो नम्बर कौन पूछता। बस नम्बरों का इतना ही महत्व था कि बीजी यानी मेरी मां के छह बच्चे थे और मैं तीन बच्चों की मां थी। बस इतना समझ आया था कि मैं एक गृहिणी हूं और अन्नपूर्णा भी। बच्चों का, पति का, गाय, कुत्ता और पंछी का कौर सभी की जिम्मेवारी मेरी ही है। मेरा फर्ज है। यह एक कर्ज है जो रोज तीन बार चुकाना पड़ता है।
अब तो आप लोग बाहर कैफे-रेस्तरां में जाकर सहज ही खाना खा लेते हो या फिर जोमैटो आदि से मंगा लेते हो, पर तब ऐसा कहां था। दिमाग को सारा दिन खुजाना पड़ता था यह सोचने के लिए कि क्या बनाना है अगले डंग के लिए। खाना खजाना की खाना बनाने की एप नहीं थी ना तब। उस पर, मौसम की भाजी तरकारी ही बनानी पड़ती थी नये-नये ढंग से, और मौसम के ही फल थे। कोल्ड स्टोरेज नहीं था। हां यह किस्सा जरूर तुम समझो कोल्ड स्टोर से निकाल कर लायी हूं।
कहां थी मैं- हां ऽऽऽ! तीन बच्चों की मां थी मैं और गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों समेत मायके जाने का प्रचलन था। वही समर हालिडे था उन दिनों में। सो मैं चली आयी थी अपने जन्म स्थान पर। पहुंचते ही पूर्ण आराम हो जाता था और साल भर की थकान का पूर्णविराम। कोई काम करने नहीं देता था। बस अपने शहर की सैर थी, पुरानी सहेलियों से मिलना मिलाना, भाई-भाभियों के साथ गप्पें, भतीजे-भतीजियों के साथ मस्ती और था पुराने चाट वाले भइया के गोलगप्पे, सीताराम की टिक्कियां और बहुत सा सैर सपाटा। बीजी तो अपने कमरे में रहती थीं ज्यादातर पर लालाजी के साथ दुकान पर बैठ दुनिया-जहान की बातें साझा कर लेती। वो भी तो इकलौती बेटी के ठौर में रहते कि कब आयेगी और पिता का आंगन ठण्डा करेगी।
पता ही नहीं था चलता कि तीन-चार हफ्ते का वक्त कैसे उड़न छू हो जाता और आ जाता लम्हा वापस जाने का। वही वापिस खाना बनाना, घर संवारना, कपड़े धोना, प्रेस करवाना, बच्चे संभालना और फिर करना इंतजार अगली गर्मियों की छुट्टियों का।
पर इस बार पांच हफ्ते की छुट्टियां मिल गयी थी मायके में रहने को। सो इत्मिनान से सभी के साथ वक्त गुजारने को मिल गया था।
बच्चे बड़े हो गये थे तो पास में टिकते ही नहीं थे। एक कमरे से दूसरे कमरे तक धमाचौकड़ी मचाये रहते। बीजी अब ज्यादा चल-फिर नहीं सकती थीं। बैठी रहती थी खिड़की में और चौबारे से देखती रहतीं बाजार नीचे। उनके आसपास पानी का जग, लेस से ढके गिलास, दवाइयों का ढेर, फल, मुरमुरे, नेलकटर, एक छुरी और एक कैंची भी पड़े रहते थे और वे उन सब के बीच पड़ी रहती थीं। एक डंडा भी रख छोड़ा था पास में, जो चलने में कम, लेकिन पोते पोतियों को हड़काने में ज्यादा काम आता था। छुप्पन-छुप्पाई खेलते बच्चे बीजी को सोने नहीं देते थे। कोई उनके पीछे छुपना चाहता, कोई उनकी गोदी के कोने में। यूं तो भाभियां सारा घर सम्भालती पर बच्चे कहां टिकते थे उनके पास। सो बीजी ही उन पर नज़र रखती थी। बीजी का राज सारे घर पर चलता था। क्या बनेगा? कौन क्या खायेगा, सब्जी राशन, सभी का ऑडिट उनकी जुबानी होता और उनकी आवाज बगैर इंटरनेट के सभी जगह और हर कान तक पहुंच जाती थी। और हर एक की जुबान से बस इतना ही निकलता था ‘जी, बीजी।’ बीजी बिजी रहतीं बगैर कुछ करे। अपना बुढ़ापा बुनती रहतीं। हाथों पर झुर्रियां, चेहरे पर सल्वट, बड़े बड़े दांत विरले विरले से थे। कलाइयां पतली हो गयी थीं पर कंगन बड़े-बड़े हो गये थे, अंगूठियों पर धागे बंध गये थे क्योंकि अंगुलियां कड़ने लगी थीं।
जैसे ही घर पहुंची तो बीजी के पास पहुंची। उन्होंने देखते ही अपनी पतली-पतली बांहें फैला दी और मुझे गले से लगा लिया। बूढ़ी आंखों में पानी भरा था, पर बहा नहीं। सर पर, चेहरे पर अपने खुरदरे हाथ फिरा-फिरा कहने लगीं।
‘छोरी, कितनी कमजोर हो गयी है तू। बच्चों ने लहू पी लिया है तेरा। बच्चे तेरे ठीक-ठीक लग रहे हैं। तेरा ही रंग सफेद हो गया है। कुछ खाया कर। अपना ख्याल रखा कर। सारा दिन इन्हीं का ख्याल रहता होगा तुझे। सूख गयी मेरी बिटिया।’
‘नहीं बीजी, सफर की थकान है। मैं ठीक हूं’ कह मैं भाभियों, भतीजों के बीच जा रम गयी। सैर-सपाटा, सिनेमा, खाना-पीना सब भाई - भाभियों के साथ होने लगा। बीजी अकेली खिड़की पर रह गयी। थोड़े वक्त के लिए ही उनके पास बैठना होता।
एक दिन बीजी की आवाज़ आयी।
‘राधा, सारा दिन सब के साथ गुजारती है। मेरे पास भी बैठ कुछ देर।’
दोपहर का वक्त था। बच्चे सो रहे थे, सो मैं बीजी के पास जाकर बैठ गयी। यूं ही बात छेड़ने को पूछा था मैंने,
‘आपको सब बीजी क्यों बुलाते हैं?’
‘राधा, जब ब्याह के आयी तो कोई नहीं था बुलाता बीजी। ये तो लाला जी दुकान से नौकर भिजवा देते थे कभी रसोई में हाथ बंटाने को, कभी घर से खाना मंगाने के लिए। वे सब बीबी जी, बीबी जी बुलाते थे। बीबी जी - बीबी जी का तुम बच्चों ने कब बीजी बना दिया, पता ही नहीं चला और बस मैं सारे जग के लिए बीजी ही बन कर रह गयी।’
और बीजी हंस दी।
बीजी ने तकिये के पास रखे लिफाफे में से एक लीची निकाली। बड़ी सी लीची। लाल रंग का छिलका सिंदूरी रंग लिये हुए था। लीची अभी-अभी डंडी से अलग हुई थी सो उसका रस बह निकला। बीजी ने अपनी गांठों भरी अंगुलियों और टेढ़े-मेढ़े नाखुनों से लीची छीली और मेरी ओर बढ़ा दी। गुद्देदार, मांसल, सुगन्धित लीची मैंने उनके हाथ से ली और मुंह के हवाले कर दी। लीची का रस मुंह में रिसने लगा ओर दांतों, मसूढ़ों, जीभ पर से फैलता हुआ गले को तर करता, हृदय को तृप्त कर गया। गर्मियों का फल, सारी गर्मी को शांत कर गया था। बीजी अपने ही ध्यान में थीं। बोलीं,
‘राधा, ध्यान से सुन। मैंने दो हीरे जड़ी नाक की लौंगें बनवाई हैं, लाला जी को बिना बताये। अब उनकी लाड़ली, उनको मत पढ़ देना। तेरी शादी के वक्त तेरा नाक तो छिदा नहीं था सो मैंने पेचवाली नथ दी थी। अब ये दो बनवाई हैं, एक अपने लिये और एक तेरे लिये। अब के छेद करवा लेना और यह हीरे की लौंग पहन लेना।’
मैंने सोचा, कोई गहने की डिब्बी मुझ तक पहुंचेगी पर छिली हुई एक लीची और मेरे सामने आ गयी। मैंने मुंह में डाली, इधर-उधर घुमाई और बीज बाहर की ओर करते हुए कहा,
‘जब नाक छिदवाऊंगी तो ले लूंगी आपसे।’ बीजी ने फिर कहा,
‘नहीं-नहीं, बहुओं वाला घर है। दे-दिला जाती हैं। तू तो साल भर बाद आती है। मेरे पास बैठती ही नहीं। अब चला नहीं जाता मुझसे। सो आज दे दूंगी तुझे तू अभी बैठ। अभी तू यह ले।’ कह कर एक लीची मुझे और दे दी। मैंने वह भी खा ली।
‘तेरी बेटी के सर को फरोल रही थी कल मैं। बड़ी खुश्की थी। जैतून का तेल, नारियल का तेल, बादामरोगन और नींबू का रस मिला कर, सर की चमड़ी में लगाया कर। और, जब बाल धोयेगी ना उसके, तो पानी चेहरे से पीछे की तरफ गिराना, नहीं तो दाने निकल आयेंगे मुंह पर।’
बीजी ने नुस्खा बताते-बताते, दो लीचियां और छील कर मेरे सुपुर्द कर दीं।
‘राधा, पता है। देख मेरा नाम मत लेना। तुम्हारा छोटा भाई और भाभी। तीन साल हो गये पहले बच्चे को। कोई दूसरे बच्चे के लिए इतना वक्त थोड़ी लगाता है। तुझे देख। पांच साल में तीन बच्चे जन्म दिये थे। मेरी ना तो सुनते हैं, ना मानते हैं।’
कह कर तीन लीचियां मुझे छील कर पकड़ा दी। सारा हाथ चासनी से लबरेज हो उठा। मैंने लीचियां मुंह में डाली और हां में सर हिलाया।
‘तू कहेगी तो मान जायेंगे। तू कहेगी ना। तू भी तो मेरी बात नहीं मानती। एक और बच्चा कर लेगी तो तेरा परिवार भी भरा-पूरा हो जायेगा। देख तीन भी तो पल रहे हैं। वहीं चौथा तो रुंगे में पल जायेगा। मुझे देख। मेरी बगिया तो भरी हुई है। तू लीची खा।’ कह कर बीजी ने छिली हुई लीचियां मुझे दीं, और मैं भी स्वाद लेकर खा रही थी।
लीचियों की एक खासियत होती है। पूरे पेड़ की लीचियां एक ही रात में सारी पक जाती हैं। लगा, बीजी की सारी बातें भी इकट्ठी पक गयीं थी जो तोड़-तोड़ मेरे हवाले कर रही थीं।
कुछ देर ऐसे ही चलता रहा। फिर मैं बड़ी जोर-जोर से हंसने लगी। मेरी हंसी रुक ही नहीं रही थी।
बीजी हतप्रभ थीं। पूछने लगी,
‘अब मैंने क्या किया?’
हंसते-हंसते मैंने कहा,
‘बीजी आपको क्या हो गया है?’
‘बीजी एक घण्टा हो गया। आपने छील-छील कर कोई बीस लीचियां मुझे खिला दीं। आप पूरा गुच्छा भी तो दे सकती थीं। मैं खा लेती। आप भी ना।’
बीजी की बूढ़ी आंखों में लीची के रस-से आंसू भर आये।
‘पता है राधा, मैंने ऐसा क्यों किया?
तीन बच्चों की मां हो गयी है तू। मेरे ही मन-सा, तेरा भी मन है। बच्चों में बसा हुआ। तू भी नहीं समझी मां का मन।
अगर मैं तुझे लीचियों का गुच्छा दे देती तो तूने दो-दो लीचियां अपने बच्चों को देनी थी, जब कि वे खा भी चुके होते तो भी, दो-दो अपने छोटे भाइयों और बच्चों को देती और तेरे हिस्से में दो ही रह जातीं।
बचपन में तुझे अपने हाथ से खिलाती थी नहीं तो तू भाइयों को खिलाने लगती। अब तू बच्चों के मोह में लिप्त है।
सच बता, कब खायी होंगी तूने लीचियां। मेरी इच्छा थी कि तू भर पेट और मन भर लीचियां खा ले, तुझे पसंद भी हैं बहुत। सो अपने हाथ से छील-छील कर तुझे खिला दीं। अब मेरा मन तृप्त है। कुछ दिनों में तू वापस अपने घर चली जाएगी। कौन खिलायेगा लीचियां तुझे।’
मैं चुप थी। द्रवित।
एक दिन, खबर यह आयी कि बीजी नहीं रहीं। मैं झट बस में बैठ कर निकल पड़ी। रास्ते भर वो बीस लीचियां याद आती रहीं। हाथ में चीनी की चिपचिपाहट महसूस होती रही। आंखों में जैसे कोई लीची के छिलके मल रहा हो- आंसू बहते ही जा रहे थे।
यह किस्सा इसलिए सुनाया है, कि सबको सबक हो, कि मां को समझना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। सो, मां के पास बैठा करो। लीचियां मिलती हैं और यादें बनती हैं- जो बार-बार याद आती हैं- गर्मियों के मौसम में लीचियों की तरह।

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