समावेशी लोकतंत्र के विचार को संबल
विश्व में लोकतंत्र की जननी के रूप में जाना जाने वाला भारत राष्ट्र न केवल सबसे पुराना लोकतंत्र है बल्कि एक परिपक्व लोकतंत्र भी है। भारत में लोकतंत्र की जड़ें चौथी शताब्दी से ही देखी जा सकती हैं। तंजावुर के पत्थर के शिलालेख इसका जीवंत प्रमाण हैं। कालिंगा और लिच्छवि काल के दौरान मौजूद सामाजिक व्यवस्थाओं के साक्ष्य भी भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के बारे में बहुत कुछ बताते हैं।
भारत में ‘एक राष्ट्र - एक चुनाव’ का विचार चुनाव-चक्र को इस तरह से संरचित करने का है कि लोकसभा, राज्य विधानसभाओं, नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव ‘समकालिक’ व ‘समक्रमिक’ हों जिससे चुनी हुई सरकारें एक साथ बैठें और देश को साधनों-संसाधनों और धनशक्ति-श्रमशक्ति के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक परिणाम प्राप्त करने हेतु दूरदर्शितापूर्ण योजना को व्यवस्थित रूप से लागू करने के लिए सकारात्मक विचार करें।
वर्ष 1947 में आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। इसके बाद कुछ राज्यों की विधानसभाएं पहले भंग होने के चलते यह व्यवस्था टूटती चली गई। ध्यानाकर्षण बात यह है कि वर्तमान ‘एक राष्ट्र - एक चुनाव’ का प्रस्ताव लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के साथ ही नगरपालिकाओं व पंचायतों के चुनाव कराए जाने की बात का अंगीकृत करने का उल्लेख कर रहा है। इस परिदृश्य मे यहां यह उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जर्मनी, हंगरी, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, स्पेन, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम और स्वीडन जैसे देशों में आज भी एक ही बार चुनाव कराने की परंपरा है।
वर्तमान में, जब भी सरकार का कार्यकाल समाप्त होता है या जब भी विभिन्न कारणों से सदन भंग होता है तो चुनाव का बोझ राजकोष पर पड़ता है। हर साल देश में औसतन 4 से 6 विधानसभा चुनाव होते हैं जिससे प्रशासनिक, नीतिगत मामले प्रभावित होते हैं। अगणनीय वित्तीय लागत के चलते लगातार चुनाव करना ‘सफेद हाथी’ को पालने जैसा शौक साबित हो गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक चुनाव के दौरान सरकारी-तंत्र चुनावी प्रक्रिया और संबंधित कार्यों के कारण अपने नियमित कर्तव्यों से चूक जाता है। चुनावी बजट में इन लाखों मानव-घंटे की लागत की गणना की ही नहीं जाती। चुनावों के चलते ‘आदर्श आचार संहिता’ सरकार की कार्यप्रणाली को भी बुरी तरह से प्रभावित करती है, क्योंकि चुनावों की घोषणा के बाद न तो किसी नई महत्वपूर्ण नीति की घोषणा की जा सकती है और न ही क्रियान्वयन। इससे हर कुछ महीनों बाद, विकास कार्य बाधित होते हैं। प्रशासनिक लागत पर एक नज़र डालें तो सीमा-सुरक्षा को खतरे में डाल संवेदनशील क्षेत्रों से सुरक्षा बलों को हटाने और चुनावों में बार-बार तैनाती के कारण शंका व आशंका से भरी अदृश्य लागत का भुगतान किया जाता है।
सवाल है कि मतदाताओं को बार-बार चुनाव चाहिए या विकासात्मक दृष्टिकोण? लगातार चुनाव राजनीतिक स्थिरता कैसे प्रदान कर सकते हैं? सरकारें क्रियात्मक दृष्टि से आगे बढ़ें या हमेशा चुनावी शंखनाद के बिगुल में उलझी रहें? जब चुनावी प्रक्रिया में कोई बदलाव ही नहीं हो रहा तो संघीय-ढांचे पर प्रभाव कैसे पड़ेगा? एक साथ चुनाव की अवधारणा लोकतंत्र और संघवाद के मूल सिद्धांतों पर चोट कहां और कैसे है? प्रश्न उठता है कि लगातार चुनाव के माध्यम से ‘आदर्श आचार संहिता’ होनी चहिए या एक राष्ट्र - एक चुनाव के ज़रिये ‘आदर्श लोकतांत्रिक विचार’? समय-समय पर ‘एक राष्ट्र - एक चुनाव’ के मसले पर चुनाव-आयोग, नीति-आयोग, विधि-आयोग, संसदीय स्थायी समिति और संविधान समीक्षा आयोग गहन चिंतन कर चुके हैं।
सर्वविदित कानूनी प्रक्रिया के अनुसार भारतीय चुनाव आयोग पंजीकरण तो राजनीतिक दलों का करता है लेकिन राजनीतिक दलों के लिए कोई अधिकतम चुनाव व्यय सीमा निर्धारित नहीं है। भारत में चुनावी कानून, सिर्फ चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए ही अधिकतम चुनाव व्यय सीमा प्रदान करता है। वजह है कि तमाम राजनीतिक दल देश के किसी न किसी हिस्से में लगातार होने वाले चुनाव लड़ रहे होते हैं और इस प्रकार उनके द्वारा किए जाने वाले चुनावी खर्च पर सीमा निर्धारित करना न केवल मुश्किल है बल्कि असंभव भी। कहने की जरूरत नहीं है कि ‘एक राष्ट्र - एक चुनाव’ की अवधारणा से चुनावों में चल रहे काले धन के इस्तेमाल और भ्रष्टाचार पर काफी हद तक अंकुश लाएगा।
एक भारत की परिकल्पना के चलते जब माल एवं सेवा कर 1 जुलाई, 2017 से सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में ‘एक राष्ट्र - एक कर’ के सिद्धांत के रूप में प्रणालीबद्ध व सफ़लतापूर्वक स्थापित हो गया है तो चुनावी सुधार और जीर्णोद्धार के लिए इस प्रस्ताव से परहेज़ क्यों? बार-बार होने वाले चुनाव राजनीतिक दलों और राजनेताओं को सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने व सामाजिक समरसता को भंग करने का मौका देते हैं जिसके कारण अनावश्यक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक चुनाव की सोच में सामाजिक समरसता का भाव टपकता है।
यह स्पष्ट है कि ‘एक राष्ट्र - एक चुनाव’ को लागू करने के लिये संविधान और अन्य कानूनों में संशोधन की आवश्यकता होगी। इस दिशा में कानूनी पहलुओं की जांच के लिए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के जाने माने अधिवक्ता रहे, भारत के पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय समिति बनाई है।
निर्विवाद सत्य यह है कि लोकतंत्र भारत की आत्मा है, जो भारतीयों की सांसों और मूल्यों में बसी हुई है। ‘एक राष्ट्र - एक चुनाव’ समावेशी लोकतंत्र की धारणा को बढ़ावा देगा और निश्चित रूप से आदर्श लोकतंत्र की मिसाल पेश करेगा।
लेखक पीयू के विधि अध्ययन संस्थान में कानून के प्रवक्ता हैं।