मानवता के उत्थान को समर्पित अलौकिक अवतार
सुदर्शन
गुरु नानक देव जी अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा और अलौकिक चमत्कारी शक्तियों से संपन्न थे। वे भारतीय समाज की संत परंपरा में अपना विशेष स्थान रखते हैं। हमारी संस्कृति की मूल भावना पर दुख कातरता अर्थात् दूसरे के दुख को बांटना। सूर्य के प्रचंड तेज से जब जल स्रोत सूखने लगते हैं, धरा में उष्णता बढ़ने से मानवता बेचैन हो जाती है, पशु-पक्षी भी इस तपन को महसूस करते हैं और हरी-भरी प्रकृति भी झुलसने लगती है, तब सबकी आंखें ताकती हैं, व्योम में उमड़ते-घुमड़ते बादलों की ओर और फिर बरसती है शीतल पावन धार, जिसकी फुहार सबके संताप को हर लेती है। इसी तरह जब समाज में क्रूरता, अत्याचार और अन्याय प्रधान हो जाता है तब ऐसे में कोई दिव्य-शक्ति किसी संत या महामानव के रूप में इस धरा पर अवतरित होती है और देश को, समाज को, धर्म को इनसे निजात दिलाती है। भारत में एक समय ऐसा भी आया जब विदेशी हमलावरों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि मची थी, बहू-बेटियों का घर से निकलना दुश्वार था। धर्म पाखंड और अंधविश्वास के आडम्बर में जकड़ रहा था। ऐसे में जन्म हुआ सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी का।
गुरु नानक देव जी का जन्म विक्रमी संवत् 1526 वैशाख मास में राय भोएं की तलवंडी ग्राम में हुआ जो अब पाकिस्तान में श्रीननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। पारम्परिक तौर पर इनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है और प्राय: विद्वान इससे सहमत भी हैं। जहां यह मसीहा शांति दूत बनकर आया, वैसे ही इनके जन्म का स्थान प्रकृति के अलौकिक स्वर्ग का स्वरूप था। बाल्यावस्था से ही यह आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण थे। एक बार बीमार हो जाने पर जब वैद्य जी ने दवा दी तो आपने वैद्य जी पूछा कि दवा देकर आप मुझे तो रोगमुक्त कर दोगे पर क्या आपने जो अपने अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का रोग पाल रखा है, उससे स्वयं निजात पा ली है।
पिता ने खेती व्यापार में लगा दिया परन्तु इसमें भी वह सांसारिक दृष्टिकोण से परे सत्य की खेती और सत्य का व्यापार करने लगे। इनकी बहन इन्हें अपने साथ सुल्तानपुर ले गई और दौलतखां लोध्ाी के मोदीखाने पर नौकरी में लगवा दिया। परन्तु इन्हें यहां भी नौकरी से कोई सरोकार नहीं था और वहां भी ‘तेरा-तेरा’ (सब परमात्मा का) में समर्पित रहे।
गुरु नानक देव जी ने अपने शिष्य मरदाना को साथ लेकर चारों दिशाओं की चार लम्बी यात्राएं कीं जिन्हें उदासियां कहा जाता है। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अंधविश्वास, छुआछूत, भेदभाव, ऊंच-नीच और पाखंड में फंसे लोगों को सत्य का रहस्य समझाया। उन्होंने तिब्बत, काशी, भूटान, जगन्नाथपुरी, हरिद्वार, रामेश्वरम्, मक्का-मदीना, काबुल, कंधार और बगदाद की यात्राएं कीं। मक्का में अल्लाह के उपासक मुल्ला को ज्ञान दिया। जहां-जहां भी यह गये इन्होंने सीधे-सरल उपदेशों से मानवता को ईश्वर-भक्ति का मर्म बताया।
गुरु नानक देव जी एक सच्चे संत थे और दीपक की तरह निर्विकार भाव से अंधकार को दूर करना चाहते थे। उन्होंने जो मूलमंत्र दिया वह सिख धर्म का आदि मंत्र है, उसमें भी ईश्वर एक है, का संदेश है। उनका कथन था कि सब ओर उसी परमपिता परमात्मा की ज्योति का नूर है। वही सब कुछ करता है और वही सब कुछ देखता है।
आपे रसिया आपि रसु आपे रावणहार
आपे होवै चोलड़ा आपे सेज भंतारु।
आपे गुण आपे कथै आपे सुणि वीचारू
आपे रतनु परखि तूं आपे मोल अपारु।
गुरु जी संप्रदाय से दूर थे। वे गरीबों के हमदर्द थे। इसलिए उन्होंने भागो के घर के पकवान ठुकराकर लालों का रूखा-सूखा भोजन स्वीकार किया। अपने सरल, सहज, और मधुर व्यवहार से सबका मन जीता। इसी कारण वे हिंदू और मुसलमान दोनों के प्रिय बने। जहां गुरु नानक देव जी ने कई मिथकों को तोड़ा, वहीं उन्होंने स्त्री को सम्मानजनक दर्जा दिया। औरतों पर होते जुल्मों को देखकर वे आहत हो जाते थे। उनका कथन था कि स्त्री एक जननी है, एक दिव्य-शक्ति है।
उन्होंने अपने समकालीन राजाओं की कुटिल नीतियों का जमकर विरोध किया। जब शासक बाबर ने हिन्दुस्तान पर हमला किया तो उसके घृणित अत्याचाराें को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा और उन्हाेंने बाबर को फटकार लगाई और कहा :-
खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराया,
आपै दोसु न देई कर्ता जमु करि मुगलु चढ़ाया।
एती मार पई करलाणै तैं की दरदु न आया
कर्ता तुं सभना का सोई
जे सकता सकते काेउ मारे ता मनि रोसु न होई।
सकता सीहु मारे पै वगै खस्मै सा पुरसाई।
इस तरह बाबर को भी पश्चाताप के दंश में जलने को मजबूर कर दिया।
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवनकाल में जो उपदेश दिये वे सब पवित्र ग्रन्थ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित हैं। जीवन के अंतिम पड़ाव में गुरु जी रावी के तट पर करतारपुर में रहने लगे। उन्होंने स्वयं खेती कर जीवन निर्वाह किया। वे दूसरों को भी स्वयं कर्म करने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी बनाया और गुरुगद्दी सौंपी। 7 सितंबर, 1539 ई. में यह चमकता सितारा रब्बी नूर में ज्योति जोत समा गया। वे अलौकिक अवतार थे। सिखों के प्रथम गुरु के रूप में मानव जाति को समर्पित महान संत थे।