सुपरमॉम: जिनमें जज्बा हर जिम्मा बखूबी निभाने का
डॉ. मोनिका शर्मा
सिर्फ मां होती है। जिम्मेदारी के निर्वहन का जज्बा उसके भीतर कहीं गहरे तक समाया होता है। सिंगल मदर्स भी मातृत्व के इस भाव-चाव को बखूबी जीती हैं। अकेले जिम्मेदारी निभाते हुए भी बच्चों को स्नेह और सम्बल से लबरेज़ भी रखती हैं। अपनी मर्जी से अकेले मां बनना हो, हालात के चलते पति से अलग हुई हों या खुद अपने दम पर परवरिश करने के लिए बच्चे को गोद लिया हो—आज के दौर में अकेली मांओं की छवि सशक्त और अपने फैसले आप लेने वाली महिलाओं की है। यह कोई बेचारगी नहीं बल्कि अपनी बेहतरी को लेकर हर दृष्टिकोण से सोचकर किया गया निर्णय माना जाने लगा है। मदरहुड को जीने का अपना फैसला। मां की जिम्मेदारी को हर तरह से निभाने की जिंदादिली। अपनी सोच-समझ से चुनी गई राह पर चलने का माद्दा।
ज़िम्मेदारी भरा जुड़ाव
बच्चों के लिए मां और पिता दोनों बनना आसान नहीं होता। हमारे सामाजिक-पारिवारिक माहौल में तो यकीनन यह मुश्किल काम है। घर-बाहर की हर जिम्मेदारी अपने हिस्से लेकर आगे बढ़ना एक कठिन जिम्मेदारी है। लेकिन सिंगल मदर्स का हौसला ही है कि वे हर परेशानी से जूझकर बच्चों को आगे बढ़ाती हैं। उनकी संभाल-देखभाल करती हैं। समर्पण और मन की शक्ति का यही मेल उन्हें सुपरमॉम बनाता है। आज की सिंगल मदर्स यह साबित कर रही हैं कि मातृत्व के सुखद अहसास को जीने के लिए दूसरों का सहारा नहीं, खुद अपना संबल बनना होता है। बच्चों का सम्बल बन रहीं आज की अकेली माएं ज़िन्दगी का सफर बेहद खूबसूरती से तय कर रही हैं। वे सामाजिक दायित्व भी निभाती हैं और फाइनेंशियल जरूरतों के लिए भागदौड़ भी करती हैं। बच्चों से उनके भावनात्मक जुड़ाव में कोई कमी नहीं है।
व्यावहारिक सोच
किसी तकलीफदेह रिश्ते को ढोने की कोशिश महिलाएं अब सिर्फ इसलिए नहीं करती कि उनके बच्चों का क्या होगा? ठीक इसी तरह समाज में ऐसी मांओं के उदारहण भी हैं जिन्होंने खुद अपने दम पर जिम्मेदारी निभाने की सोचकर ही बच्चे गोद लिए हैं। एक पॉजिटिव बदलाव है कि सिंगल मदर होना कोई मजबूरी नहीं बल्कि मन से चुनी गई राह है। सिंगल मदर्स के मामले में अब समाज में भी स्वीकार्यता आई है। खुद महिलाएं भी बहुत हद तक जिंदगी के उतार-चढ़ावों को लेकर व्यावहारिक सोच रखती हैं। यह अप्रोच रिश्तों से लेकर बच्चों की परवरिश तक, हर मोर्चे पर दिखती है। जागरूक सिंगल मदर्स बच्चों की अच्छी दोस्त और गाइड बन रही हैं। उन्हें आत्मनिर्भर बना रही हैं। सुखद यह है कि अब बच्चे भी चुनौतियों का सामना करने में उनके साथ खड़े हैं।
हिम्मत का निर्णय
एकल अभिभावक के रूप में अपने बच्चों की परवरिश से अब बेचारगी के भाव का कोई लेना-देना नहीं। सिंगल मदर्स वे महिलाएं हैं जिनके या तो पति नहीं रहे या पति के साथ रिश्ता नहीं रहा। या फिर वे अपने बच्चों के साथ अपनी मर्जी से अलग रहती हैं। कई महिलाएं बच्चा गोद लेकर खुद उसका पालन पोषण भी कर रही हैं। जिम्मेदारी यकीनन बहुत बड़ी है। लेकिन आज की एकल मदर्स इसका निर्वहन बखूबी कर रही हैं। सब कुछ अकेले संभालते हुए भी तनाव और भावनात्मक कठिनाइयां उनपर हावी नहीं होतीं। वे परेशानियों से जूझना और जज्बातों के जुड़ाव की सही दिशा तय करना जानती हैं। अकेले अपने बच्चों की परवरिश कर रही माओं के पास शिकायतें नहीं, भावी ज़िन्दगी के सफर का बाकायदा प्लान होता है। जो ना केवल अपनी बल्कि बच्चों की बेहतरी से भी जुड़ा होता है।
कानून का भी साथ
भारत में एकल माताओं को बच्चे को जन्म देने से लेकर गोद लेने और उनके संरक्षण तक का अधिकार हासिल है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ समय पहले सिंगल मदर्स के हक में एक अहम फैसला दिया था। इस निर्णय के मुताबिक़ कोई भी सिंगल अभिभावक या अविवाहित मां अपने बच्चे की अकेली अभिभावक बन सकती है। वह बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए आवेदन करे तो उसे वह जारी किया जाए। राजस्थान हाईकोर्ट ने भी एक फैसले में कहा है कि ऐसी तलाकशुदा महिला जिसे कोर्ट की तरफ से अपने बच्चे की कस्टडी मिली हो, उस मां के लिए भी बच्चे के फॉर्म में पिता की जगह केवल मां का नाम लिखकर जन्म प्रमाण पत्र जारी हो जिसे आधार बनाकर सरकारी या गैर सरकारी कामों में फॉर्म में केवल मां का नाम लिखने की छूट सरकार सुनिश्चित करे। एकल माताओं के लिए ऐसे निर्णय और सामाजिक सहयोग दोनों आवशयक हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि हमारे यहां करीब 4.5 फीसदी परिवार सिंगल मदर्स चला रही हैं। देश में लगभग 1.3 करोड़ सिंगल मदर्स पर उनका परिवार निर्भर है। वहीं 3.2 करोड़ सिंगल माताएं संयुक्त परिवार में रह रही हैं। हमारे यहां एकल माताओं की बड़ी संख्या है। बिखरते परिवारों के दौर में यह आंकड़ा तेज़ी बढ़ भी रहा है। जरूरी है कि उनकी इस भावनात्मक भूमिका को परिवार और समाज का भी सहयोग मिले।