आत्मघाती दबाव
सर्वोच्च अदालत की वह सारगर्भित टिप्पणी देश के हर अभिभावक की आंख खोलने वाली है कि परिवारों का दबाव व प्रतियोगी परीक्षाओं की भयावह स्पर्धा छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की बड़ी वजह है। निस्संदेह, यह टिप्पणी हमें आत्ममंथन के लिये भी विवश करती है कि बच्चे का इंजीनियर-डॉक्टर बनना जरूरी है या उसका परिवार में सहजता से जीवन-यापन करना। हाल के दिनों में परिवार की उम्मीदों का पहाड़ ढोते छात्रों की आत्महत्याओं में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। राजस्थान के एक चर्चित शहर के अलावा देश के कई महानगरों में छात्र लगातार कोचिंग के जरिये तकदीर बदलने की उम्मीद से पहुंच रहे हैं। मध्यम व निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के ये बच्चे अभिभावकों द्वारा किसी तरह जुटाए रुपयों के बूते इन कोचिंग संस्थानों में पढ़ने जाते हैं। लेकिन जब वे इस गलाकाट स्पर्धा में खुद को पिछड़ता पाते हैं तो आत्मघाती कदम उठाने से नहीं चूकते। एक ओर जहां उन्हें यह भय सताता है कि यदि वे असफल हुए तो परिजनों ने पेट काटकर जो पैसे उनकी पढ़ाई में लगाए हैं,कहीं वे जाया न चले जाएं। वहीं उनके डॉक्टर-इंजीनियर न बन पाने के भय का दबाव भी उन पर होता है। यही वजह है कि इस सदी के दूसरे दशक में विद्यार्थियों के आत्मघात के मामलों में सत्तर फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। जिसमें एक बड़े हिस्से लगभग तीस फीसदी की वजह परिवार का दबाव बताया जा रहा है। दरअसल, स्कूल की पढ़ाई खत्म करके सीधे कोचिंग्स संस्थानों में दाखिला लेने वाले ये छात्र पारिवारिक माहौल से दूर एक ऐसे वातावरण में जाते हैं, जहां एकाकी जीवन के अलावा परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने का दबाव उन्हें मुश्किल में डाल देता है। कुदरत हर बच्चे को एक विशिष्ट गुण देती है और उसके निमित्त उसकी रुचि के विषय में ही उसे शिक्षा दी जानी चाहिए। जरूरी नहीं है कि हर बच्चे में इंजीनियर व डॉक्टर बनने की क्षमता या गुण हों। लेकिन भेड़ चाल के चलते उसे अरुचिकर विषयों में अध्ययन करने को बाध्य होना पड़ता है।
दरअसल, एक चिकित्सक ने शीर्ष अदालत में दायर जनहित याचिका में आरोप लगाया था कि कोचिंग संस्थानों का वातावरण बेहद दबाव डालने वाला होता है। जिससे संवेदनशील व होनहार प्रतिभाएं बेहद दबाव में आकर बिखर जाती हैं। उनका आरोप है कि यह स्थिति संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार का अतिक्रमण है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आखिर बच्चों को कोचिंग संस्थानों में जाने की जरूरत क्यों पड़ती है। हमारे स्कूल-काॅलेज उन्हें इस योग्य बनाने में सक्षम क्यों नहीं हैं। जाहिर है जब स्कूल-काॅलेज उनकी प्रतिभा निखारने व मार्गदर्शन करने में समर्थ नहीं होते तो मजबूरी में छात्रों को कोचिंग संस्थानों की शरण में जाना पड़ता है। जिसकी वजह से देश में अरबों रुपये का कोचिंग का कारोबार फल-फूल रहा है। इन संस्थानों की फीस इतनी अधिक होती है कि निम्न मध्यमवर्गीय व गरीब तबकों के अभिभावक बच्चों को कोचिंग संस्थान भेजने में खुद को असमर्थ महसूस करते हैं। फिर वे अपने भविष्य के लिये रखी जमा पूंजी व बैंकों से महंगा लोन उठाकर किसी तरह इन कोचिंग संस्थानों की फीस चुका पाते हैं। नये शहर में उन्हें रहने व खाने-पीने का खर्च अलग से उठाना पड़ता है। इसके अलावा परिजन भी अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ छात्रों पर डाल देते हैं। जिसका दबाव कई संवेदनशील छात्रों को तनावग्रस्त कर देता है। अभिभावक व छात्र इस बात पर विचार नहीं करते कि डॉक्टर- इंजीनियर बनने के अलावा भी कैरियर के तमाम क्षेत्र आज मौजूद हैं। तमाम गैर-परंपरागत क्षेत्र में भी उद्यमी छात्र चमकीला कैरियर बना रहे हैं। ऐसे में सरकार व अभिभावकों की तरफ से बच्चों की काउंसलिंग करने की जरूरत है कि वे प्रतियोगिता के किसी दबाव से बिखरने के बजाय भविष्य की नई संभावनाओं पर भी विचार करें। साथ ही छात्रों को यह बताने की जरूरत है कि व्यक्ति को मुश्किल से मानव जीवन मिलता है। छात्रों का आत्मघात समस्या का समाधान नहीं है बल्कि यह अभिभावकों को जीवनभर न भुलाये जाने वाला त्रास दे जाता है। निस्संदेह, यह अभिभावकों के लिये आत्ममंथन का समय है।