आत्मघाती निष्क्रियता
यह जानते हुए भी कि आम भारतीयों को आनुवंशिक रूप से गैर-संक्रामक रोग मसलन हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर व मोटापा शेष विश्व के लोगों के मुकाबले कई साल पहले हो जाता है, देश में आधे वयस्कों की शारीरिक निष्क्रियता की रिपोर्ट परेशान करती है। विश्व विख्यात मेडिकल पत्रिका लांसेट ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की मार्गदर्शिका का हवाला देते हुए बताया था कि भारतीय जींस इन गैर संक्रामक रोगों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। हमें ये रोग अन्य देशों के मुकाबले दस साल पहले हो सकते हैं। लेकिन नियमित शारीरिक श्रम से हम इन रोगों को टाल सकते हैं। विश्व जनसंख्या समीक्षा का निष्कर्ष है कि हमारा देश विश्व फिटनेस रैंकिंग में 112वें स्थान पर आता है। यही वजह है कि भारत के आधे वयस्क सामान्य शारीरिक निष्क्रियता की वजह से कई गैर संक्रामक रोगों से जूझ रहे हैं। छोटे से देश ताइवान की शारीरिक सक्रियता के प्रति जागरूकता देखिए कि फिटनेस में वह शीर्ष दस एशियाई देशों में शुमार है। दरअसल, देश में शारीरिक सक्रियता व सेहत के प्रति राष्ट्रीय सोच विकसित करने की जरूरत होती है। जिन देशों, मसलन सिंगापुर, जापान व दक्षिण कोरिया ने फिटनेस रैंकिंग में अव्वल स्थान पाया है, वहां की सरकारों ने इसके लिये विशेष प्रोत्साहन योजनाएं क्रियान्वित की हैं। जिसके फलस्वरूप सेहत को लेकर सक्रियता ने जन-आंदोलन का स्थान लिया है। कमोबेेश, योग को लेकर ऐसा अभियान प्रधानमंत्री मोदी की पहल से पूरी दुनिया में शुरू हुआ, लेकिन हमने उसे 21 जून विश्व योग दिवस के आसपास सीमित कर दिया। योग हमारी दैनिक जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लांसेट की रिपोर्ट चौंकाती है कि आधे वयस्क भारतीय शारीरिक रूप से निष्क्रिय हैं। यह प्रतिशत वर्ष 2000 में करीब बाइस फीसदी था। एक विरोधाभासी तथ्य यह है कि तब भारत वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के हिसाब से तेरहवें स्थान पर था और आज जब भारत पांचवें स्थान पर है तो उसकी शारीरिक निष्क्रियता दुगुनी से अधिक हो गई है।
ऐसे में जीडीपी वृद्धि के साथ शारीरिक सक्रियता में गिरावट का क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि हम संपन्नता के साथ आलसी हो गए हैं? यानी आय बढ़ने के साथ हम शारीरिक गतिविधियों के प्रति उदासीन हो गए हैं? क्या भारतीयों की जीवन शैली शारीरिक सक्रियता के विमुख होती जा रही है? यह एक हकीकत है कि जैसे-जैसे हमारे जीवन स्तर में वृद्धि हुई और हमारा खान-पान समृद्ध हुआ, हमने प्रमाद की राह चुन ली। हम दफ्तर कार-स्कूटर से जाते हैं, आराम कुर्सी पर काम करते हैं, घर आकर सोफे पर पसर जाते हैं, टीवी,लेपटॉप व मोबाइल में डूब जाते हैं। लेकिन पैदल चलने की जहमत नहीं उठाते। हम सीढ़ी चढ़ने के बजाय लिफ्ट या एलीवेटर को तरजीह देते हैं। सब्जी मंडी कार से जाते हैं। ऑन लाइन मार्केटिंग के जमाने में हम घर बैठे ही सब कुछ हासिल कर लेते हैं। खाना ऑनलाइन मंगा लेते हैं। तभी बड़े बाजारों की रौनक गायब है। घर का काम हमने कामवाली और नौकर-चाकरों पर छोड़ दिया है। शरीर के स्वस्थ रहने का अपना नियम है। जितने हम चलेंगे, जीवन उतना लंबा चलेगा। हमारे पूर्वजों ने तमाम तीर्थ विकट भौगोलिक स्थितियों वाले स्थलों व पर्वतों पर स्थापित किए थे, ताकि शारीरिक श्रम से हम स्वस्थ रह सकें। हम बड़े तीर्थस्थल वाहनों या हैली सेवाओं से पहुंच रहे हैं। सुविधा सेहत की दुविधा पैदा करती है। जब शरीर से पसीना निकलता है तो शरीर में बीमारी पैदा करने वाले विजातीय द्रव्य भी बाहर निकलते हैं। शरीर के रोम-रोम पसीने से साफ होते हैं और शरीर हमारी त्वचा से भी ऑक्सीजन ग्रहण कर लेता है। योग व प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धांत है कि शरीर के जिस भी हिस्से में ऑक्सीजन की कमी होती है, वह रोगग्रस्त हो जाता है। यही वजह है कि हम प्राणायाम के जरिये शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाकर स्वस्थ रहते हैं। हम नियमित रूप से आसन, प्राणायाम व ध्यान के जरिये तंदुरुस्त रह सकते हैं। तमाम शोध-अनुसंधान इसके जरिये मनोकायिक रोग दूर होने की बात की पुष्टि कर रहे हैं। हमें अपनी योग व प्राकृतिक चिकित्सा की समृद्ध विरासत का लाभ उठाना चाहिए।