विनम्रता से अहंकार का दमन
गंगा-किनारे बने एक आश्रम में महर्षि मुद्गल ज्ञानार्जन को आए शिष्यों को शिक्षा दिया करते थे। इस समय उनके पास दो ही शिष्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। आखिर वह समय भी आ गया जब उनकी शिक्षा पूर्ण हुई और दोनों अपने-अपने विषय में पारंगत हो गए। वैसे तो विद्या से विनम्रता और अनुशासन आता है, लेकिन ये दोनों अपनी विद्वत्ता के चलते अहंकारी हो गए थे। स्वयं को एक-दूसरे से श्रेष्ठ समझने लगे थे। एक दिन महर्षि मुद्गल गंगा स्नान के पश्चात आश्रम में लौटे तो देखा कि अभी तक आश्रम की साफ़-सफाई नहीं हुई है और दोनों शिष्य भी सोकर नहीं उठे हैं। महर्षि ने दोनों को उठाते हुए आश्रम की सफाई के बारे में पूछा तो दोनों ही एक-दूसरे को सफाई के लिए कहने लगे। एक बोला, ‘अब मैं पूर्ण विद्वान हूं और सफाई मेरा काम नहीं है।’ दूसरे ने जवाब दिया, ‘मैं भी तुम्हारे समकक्ष हूं, मुझे भी झाड़ू उठाना शोभा नहीं देता।’ महर्षि दोनों की बातें सुन रहे थे। वह बोले, ‘तुम दोनों ही ठीक कह रहे हो। तुम दोनों ही विद्वान भी हो और श्रेष्ठ भी, अतः यह काम तुम्हारे लिए नहीं, मेरे लिए ही उचित है।’ यह कहकर महर्षि स्वयं झाड़ू उठाकर साफ़-सफाई में जुट गए। उनके झाड़ू उठाते ही दोनों शिष्य शर्म से पानी-पानी होकर महर्षि के चरणों में गिर पड़े। गुरु की विनम्रता के आगे उनका अहंकार पिघल गया और दोनों झाड़ू लेकर आश्रम की सफाई में लग गए।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी