खटाई में पढ़ाई
बीते वर्ष की वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट के निष्कर्ष विचलित करने वाले हैं। निष्कर्ष बताते हैं कि देश के सरकारी स्कूलों में 56 फीसदी किशोर गणित की सामान्य प्रक्रियाएं नहीं कर पाते। करीब 25 फीसदी छात्र क्षेत्रीय भाषा में कक्षा-दो का पाठ भी धाराप्रवाह ढंग से नहीं पढ़ पाते। करीब आधे छात्र यदि भाग व गुणा जैसी सामान्य गणितीय क्रियाएं नहीं कर पाते तो यह हमारे शैक्षिक ढांचे पर सवालिया निशान है। आखिर क्या वजह कि करीब 43 फीसदी छात्र अंग्रेजी के सामान्य वाक्य पढ़ने में असमर्थ हैं? बुधवार को जारी वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट के निष्कर्ष निस्संदेह परेशान करने वाले हैं कि आने वाले भारत का भविष्य कैसा होगा? कालांतर जैसे-तैसे पढ़-लिखकर ये छात्र बेरोजगारों की संख्या बढ़ाने के अलावा और क्या कर सकते हैं? पहली बार देश के 26 राज्यों के 28 जिलों में किशोरों का सर्वेक्षण किया गया। बच्चों की गणित व अंग्रेजी की स्थिति देखकर साफ है कि प्राथमिक विद्यालय स्तर पर बच्चों की बुनियादी पढ़ाई और गणित की शिक्षा में तत्काल सुधार की आवश्यकता है। दरअसल, एएसईआर के इस सर्वेक्षण में 14 से 18 वर्ष के 34,745 छात्रों को शामिल किया गया था। बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के दो ग्रामीण जिलों तथा शेष राज्यों के एक-एक ग्रामीण जिले को सर्वेक्षण में शामिल किया गया । हालांकि, अच्छी बात यह है कि 14 से 18 वर्ष के करीब 87 फीसदी बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं। लेकिन उनमें से अधिकांश बुनियादी पढ़ने, गणित और अंग्रेजी ज्ञान में बुनियादी कौशल का प्रदर्शन नहीं करते हैं। हालांकि, सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि सर्वेक्षण में शामिल नब्बे फीसदी बच्चों के पास स्मार्टफोन हैं और उन्हें यह चलाना बखूबी आता है। सबसे परेशान करने वाला सवाल यह है कि क्यों 25 फीसदी छात्र अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा दो का पाठ भी धाराप्रवाह रूप से नहीं पढ़ सके। वैसे गणित व अंग्रेजी में परिस्थितिजन्य व पारिवारिक माहौल के चलते कमजोरी की बात तो समझ में आती है।
दरअसल, अकसर बच्चे गणित को एक नीरस विषय के रूप में लेते हैं, जबकि आजकल बिना गणित के जीवन का अर्थशास्त्र चलाना बेहद मुश्किल है। सर्वे का एक पक्ष यह भी कि लड़कियों का क्षेत्रीय भाषा में धाराप्रवाह पाठ पढ़ने का प्रतिशत 76 रहा, जबकि किशोरों में यह प्रतिशत 71 था। जबकि गणित व अंग्रेजी में किशोरों का प्रदर्शन किशोरियों से बेहतर रहा है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि व्यावसायिक पाठ्यक्रम में इनकी भागेदारी महज 5.6 प्रतिशत है। सर्वेक्षण में हरियाणा के सिरसा, पंजाब के एसएएस नगर, जम्मू-कश्मीर में अनंतनाग, हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा, राजस्थान में भीलवाड़ा और उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल शामिल थे। दरअसल, इस संकट के सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए। सामान्यत: ग्रामीण इलाकों में अधिकांश बच्चे कमजोर वर्ग या खेती-किसानी से जुड़े परिवारों से आते हैं। अंग्रेजी का कमजोर होना तो समझ में आता है, लेकिन क्षेत्रीय भाषा पठन में फिसड्डी होना चौंकाता है। यह निष्कर्ष सरकारी शिक्षकों की शिक्षण शैली और सीखने की प्रक्रिया में रुचि बढ़ाने की कोशिशों पर भी सवाल उठाता है। समय के साथ-साथ कहीं न कहीं शिक्षकों का वह रुतबा भी कम हुआ है जो छात्रों को सख्त अनुशासन के दायरे में लाता था। शिक्षकों की नियुक्ति के तौर-तरीके, राजनीतिक हस्तक्षेप से होने वाली नियुक्तियां तथा जवाबदेही जैसे सवाल भी सामयिक हैं। एक बड़ा संकट किशोरों के पास स्मार्टफोन का होना और बच्चों को उसकी लत का होना भी है। विडंबना देखिये कि पचास फीसदी से अधिक किशोर-किशोरी गणित की सामान्य जोड़-घटाव की प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाते हैं, लेकिन स्मार्टफोन की जटिल प्रक्रिया के संचालन में पारंगत हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कही जाएगी कि मोबाइल की लत नई पीढ़ी के बच्चों की वह एकाग्रता भंग कर रही है जो उन्हें निरंतर पढ़ाई के लिये चाहिए। आने वाले समय में मोबाइल के अधिक प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभाव भी नजर आएंगे। खासकर आंखों व गर्दन से जुड़े शारीरिक विकार सामने आएंगे। यही वजह है कि जागरूक अभिभावक बच्चों को स्कूल व एक उम्र तक घर में स्मार्टफोन देने को घातक मानते रहे हैं।