सत्ता की बहार के लिए बिहार में कशमकश
अतुल सिन्हा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बिहार में होने वाली चुनावी सभाओं पर गौर करें तो यहां उनके निशाने पर सीधे तौर पर राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव होते हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी दूसरे नंबर पर होते हैं और यहां की जातिगत और परिवारवादी राजनीति तीसरे नंबर पर। तेजस्वी यादव को भी उन्होंने राहुल गांधी की तरह शहजादे का खिताब दे रखा है और इंडिया गठबंधन को भ्रष्टाचार, गुंडाराज और जातिगत जनगणना के सवाल पर बांटने वाला गठबंधन करार दिया है। उधर अपने चुनावी गणित और रणनीति की वजह से चर्चा में रहने वाले प्रशांत किशोर भी पांच दौर के चुनावों के बाद ये दावा करने से नहीं चूक रहे कि बिहार में अब भी मोदी या केन्द्र की सरकार को लेकर कोई गुस्सा नहीं है, मोदी लहर भले ही इस बार न हो लेकिन प्रशांत किशोर को इस बार भी मोदी सरकार बनती दिख रही है और खासकर बिहार में नीतीश कुमार के पलटू राम वाली छवि के बावजूद एनडीए को कोई खास नुकसान होता नहीं दिख रहा है। जबकि चुनाव विश्लेषक और किसी ज़माने में सटीक चुनावी भविष्यवाणियां करने वाले सैफोलॉजिस्ट योगेन्द्र यादव इस बार एनडीए को ढाई सौ के नीचे देख रहे हैं। सबके अपने-अपने चश्में हैं और अपना-अपना नज़रिया है जबकि असली फैसला खामोश वोटर यानी जनता को करना है।
लेकिन तमाम ज़मीनी सर्वे हवा का रुख कुछ और बताते हैं। इसकी बानगी तेजस्वी यादव और कांग्रेस की सभाओं में उमड़ती जबरदस्त भीड़ के तौर पर देखी जा सकती है। इंडिया गठबंधन जिन अंतर्विरोधों के बाद बना और आखिरी वक्त तक सीटों के बंटवारे को लेकर जो असमंजस रहा, उसे भाजपा और जेडीयू अपने पक्ष में मान रही है और अपनी चुनावी सभाओं में इसे लेकर अब तक गठबंधन पर सवाल उठाती है। भाजपा के 400 पार के दावे में बिहार की 40 सीटें भी शामिल हैं। 2019 में भाजपा ने यहां से जो 17 उम्मीदवार उतारे थे, वह सभी जीते थे जबकि जेडीयू के 17 में से 16 उम्मीदवार जीते थे। एनडीए के अन्य घटकों में लोक जनशक्ति पार्टी के भी सभी 6 उम्मीदवार जीत गए थे। पिछले आम चुनाव में यानी एनडीए को कुल 40 में से 39 सीटें मिली थीं जबकि एक सीट कांग्रेस ने जीती थी। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या इस बार भाजपा अपनी सभी सीटें बचा पाएगी, क्या नीतीश की मौकापरस्ती जेडीयू को फिर से पिछली बार जितनी सीटें दिला पाएगी और क्या इस बार एनडीए 39 के आंकड़े तक पहुंच पाएगा? बिहार ऐसा राज्य है जिसमें सभी सात चरणों में चुनाव हो रहे हैं यानी 19 अप्रैल से शुरू होकर 1 जून तक लगातार। छठे दौर में 8 और आखिरी दौर में भी 8 सीटें बाकी हैं। नीतीश के पाला बदलने से भाजपा के दोबारा सरकार में आने के बाद पार्टी के पास सत्ता की ताकत भी है और मशीनरी भी, साथ ही प्रधानमंत्री मोदी के दौरों से उम्मीदें भी। लेकिन आरजेडी की बढ़ती ताकत, कांग्रेस का पुनर्जीवन और राहुल गांधी की मेहनत ने इंडिया गठबंधन को काफी मजबूती के साथ जनता के सवालों से जोड़कर पेश किया है जिसका असर दिख रहा है। यहां जातिगत जनगणना का भी असर है और तेजस्वी के सरकार में रहते दस लाख नौकरी देने का रिकॉर्ड बनाने की मिसाल भी।
दरअसल, बिहार की राजनीति लगातार कई उतार-चढ़ावों से होकर गुज़रती रही है। यहां वैचारिक और सैद्धांतिक राजनीति का बेशक एक दौर था, लेकिन करीब चार दशक से सारे समीकरण पूरी तरह सत्ता केन्द्रित और जाति आधारित होते गए। वर्ष 1974 के जेपी आंदोलन ने जिस नई राजनीति की नींव रखी थी और जिन मूल्यों और सिद्धांतों की बात होती थी, उसे सत्ता के खेल ने ध्वस्त कर दिया। मौजूदा राजनीति में शीर्ष पर बैठे तमाम नेता खुद को उस दौर के आंदोलनकारी बताते हैं। जेपी ने उन्हें तत्कालीन कांग्रेस सरकार, इंदिरा गांधी की निरंकुशता और इमरजेंसी जैसे कदमों के खिलाफ एकजुट करके सत्ता की राह दिखाई, लेकिन सत्ता का नशा ऐसा चढ़ा कि उस दौर के तमाम नेता भ्रष्टाचार, जातिगत समीकरण और जोड़-तोड़ के खेल में लगे रहे।
लेकिन अब युवा नेतृत्व में आई राजनीतिक परिपक्वता और एक ईमानदार, साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद से आम लोगों में बदलाव की चाहत दिखने लगी है। ये नेता अपने भाषणों में मोदी सरकार के वादों के साथ उनकी निरंकुश वाली छवि को उभारने और लोगों के मन में बैठाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। दरअसल भाजपा का कट्टर हिन्दुत्व और राम मंदिर जैसे मुद्दे बिहार में उतने असरदार नहीं दिखते, इसलिए यहां मोदी को भी इन नेताओं पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोप लगाने के अलावा कोई बड़ा दांव नहीं दिख रहा, अपनी सरकार की उपलब्धियों में पांच किलो मुफ्त अनाज की गारंटी को भाजपा तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल कर रही है। लेकिन जिस तरह बेरोज़गारी और महंगाई के सवाल पर, शिक्षा और स्वास्थ्य के सवाल पर विपक्ष मोदी को घेर रहा है, उनकी योजनाओं और गारंटियों की असलियत बता रहा है, उससे उनकी रैलियों में लोगों का हुजूम उमड़ रहा है।
बिहार में चुनाव आम तौर पर जातिगत आधार पर ही लड़े जाते रहे हैं और भाजपा समेत सभी पार्टियां अपने उम्मीदवार उसी गणित के आधार पर उतारती रही हैं, इस बार भी यही स्थिति है। 2019 में जिस तरह एनडीए को लगभग 54 फीसदी वोट मिले थे, इस बार इसमें भले ही कुछ गिरावट हो लेकिन असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के अलग अलग लड़ने से कहीं न कहीं वोट बंटने का फायदा उसे ही होता दिख रहा है। यह गणित प्रशांत किशोर का है। दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन में मुख्य तौर पर आरजेडी, कांग्रेस के साथ सीपीआई (एमएल), वीआईपी, भाकपा, माकपा हैं जिसमें इस बार बेशक तेजस्वी और राहुल की सभाओं में उमड़ती भीड़ ने यह तो साबित कर ही दिया है कि इस बार टक्कर आसान नहीं है। जीत का अंतर काफी कम होने वाला है और कोई ताज्जुब नहीं कि खामोश वोटर हवा का रुख बदल भी सकता है।
यह संकेत इसलिए भी मिल रहे हैं कि इस बार मोदी मैजिक जैसी कोई चीज़ प्रत्यक्षदर्शी नहीं है और प्रधानमंत्री के भाषणों में सरकार के कामकाज और भावी योजनाओं की बजाय कांग्रेस और आरजेडी पर आक्रामक तरीके से हमला करने के अलावा और कुछ नहीं है। साथ ही लगातार खुद पर केन्द्रित और आत्मप्रशंसा वाले भाषण उनके लिए शायद बहुत कारगर साबित न हों। ऐसा तमाम वोटरों से होने वाली हजारों बातचीत के वीडियो से साफ होता है कि कहीं मोदी जी की आत्ममुग्धता उनके लिए मुसीबत न बन जाए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।