निर्यात बढ़ाने को चाहिए मजबूत बुनियादी ढांचा
भारत की अर्थव्यवस्था के चर्चे चारों ओर हैं। आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक और कई रेटिंग एजेंसियां इसके तेजी से बढ़ने की बातें कर रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एस एंड पी के मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था वर्तमान के 3.4 खरब डॉलर से बढ़कर 2030 में 7.3 खरब डॉलर हो जायेगी। भारत की अर्थव्यवस्था अभी ही इंग्लैंड और फ्रांस से आगे निकल गई है। अब बारी है जर्मनी की और उसके करीब पहुंचने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था गतिशील है। अभी तक अर्थव्यवस्था के सभी संकेतक सही दिशा में हैं और सबसे बड़ी बात है कि कृषि की स्थिति मजबूत है, अनाजों की पैदावार घटी नहीं है बल्कि बढ़ी ही है, जिस कारण से देश में महंगाई अन्य देशों से काफी कम है। पड़ोसी देश पाकिस्तान का उदाहरण हमारे सामने है जहां 32 फीसदी से भी ज्यादा महंगाई की दर है जिससे जनता की कमर टूट गई है। इस मामले में हम भाग्यशाली हैं कि हमारे यहां पैदावार बढ़ती जा रही है और देश सूखे या अतिवृष्टि से बचा हुआ है। यह हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और हमें शक्ति प्रदान कर रही है।
भारत की जीडीपी में कृषि के अलावा सर्विस सेक्टर, रियल एस्टेट वगैरह का तो बड़ा हाथ है ही, निर्यात का भी हाथ है लेकिन यह अभी हमारा मजबूत पक्ष नहीं है। आंकड़े बता रहे हैं कि भारत का कुल निर्यात इस साल की पहली छमाही में 800 अरब डॉलर का रहा है और इसमें बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। लेकिन अगर हम चीन का निर्यात देखें तो धक्का-सा लगता है। चीन का जुलाई महीने का निर्यात ही 281.76 अरब डॉलर का रहा है और यह भी तब जब वहां मंदी की आहट सुनाई पड़ रही है। इससे दो बातें साबित होती हैं। एक तो यह कि हम अगर विश्व अर्थव्यवस्था में एक मुकाम पाना चाहते हैं तो हमें निर्यात में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी करनी होगी। चीन ने बहुत चालाकी से अपना निर्यात बढ़ाया था और डुप्लीकेट सामान सस्ते दामों में उत्पादित करके सारी दुनिया में बेचा। लेकिन साथ-साथ अपनी टेक्नॉलॉजी में बहुत सुधार किया जिससे उसके बनाये सामान सारी दुनिया में बिकते रहे। इससे उसे निर्यात से बहुत फायदा हुआ और उस धन का बड़ा हिस्सा फिर निर्यात बढ़ाने में लगाया। निर्यात बढ़ाने के लिए उसने कमजोर देशों की बांहें मरोड़ने का भी काम किया जो भारत कभी नहीं करेगा।
इस समय भारत के दुनिया के प्रमुख देशों से अच्छे संबंध हैं खासकर अमेरिका से जो उसका सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर है। एक और बात जो भारत के पक्ष में जाती है- हमारा कृषि का निर्यात बढ़कर 52 अरब डॉलर हो गया है। आज यह स्थिति है कि भारत में फसल के अच्छे होने या खराब होने का दुनिया के कई देशों पर असर पड़ता है क्योंकि भारत का वहां बड़े पैमाने पर निर्यात है। कृषि निर्यात को बढ़ाकर दुगना किया जा सकता है, लेकिन इसके रास्ते में चुनौतियां बहुत हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी कृषि व्यवस्था उतनी नियोजित नहीं है और उसमें कई खामियां हैं। भारत सरकार ने बासमती चावल, दालों, गेहूं, चीनी वगैरह के निर्यात पर अभी कई तरह के प्रतिबंध लगाये हैं। अभी इसी जुलाई में लॉन्ग ग्रेन व्हाइट राइस के निर्यात पर भी रोक लगा दी है। यह सब देश में इनकी कीमतें बढ़ने न देने के लिए किया जा रहा है। इसी तरह प्याज की कई किस्मों पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। इससे हमारा निर्यात प्रभावित होता है और हम इस क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। हमारी जगह आयातक अब वियतनाम, थाईलैंड पाकिस्तान आदि से चावल खरीद रहे हैं। अब सरकार नेशनल कोऑपरेटिव एक्सपोर्ट्स लिमिटेड के जरिये 11 देशों को चावल 12 लाख टन लॉन्ग ग्रेन राइस का निर्यात करेगी। इससे छोटी राइस मिलों और निर्यातकों को काफी नुकसान उठाना पड़ेगा।
भारतीय निर्यात संवर्धन परिषद (फियो) के डीजी और सीईओ डाॅ. अजय सहाय कहते हैं कि कुछ प्रयास से भारत का निर्यात और बढ़ सकता है। दुनियाभर में निर्यात का ढांचा बदल रहा है। अब टेक्नोलॉजिकल सामानों के निर्यात का बाज़ार बहुत बड़ा हो गया है और इनमें हमारा योगदान एक फीसदी भी नहीं है जबकि यह बाज़ार 7 अरब डॉलर का है। इस दिशा में प्रयास करके हम अपना निर्यात काफी बढ़ा सकते हैं। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक पीएमआई में हमारा निर्यात बढ़ रहा है, मोबाइल फोन इसका बड़ा उदाहरण है। इसके अलावा फार्मा क्षेत्र में भी हम आगे हैं। इतना ही नहीं, जो ग्लोबल कंपनियां भारत आना चाह रही हैं वे यहां से निर्यात भी करेंगी। उधर अमेरिका चाह रहा है कि विश्व बाजार में चीन की जगह कोई दूसरा देश ले और यह भारत के लिए बड़ा अवसर है। यह हमारे लिए वरदान साबित होगा। सरकार आगे चलकर कुछ टैक्सों में छूट भी दे सकती है।
लेकिन निर्यात बढ़ाने के लिए जो विशालकाय और चुस्त बुनियादी ढांचा चाहिए, वह भारत में अभी पूरी तरह से उपलब्ध नहीं है। भारत के मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के पास बहुत ज्यादा बुनियादी ढांचा नहीं है। यहां उनके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन केन्द्र होने चाहिए। हमारे बंदरगाह भी काफी व्यस्त रहते हैं और वहां उतनी जगह भी अभी नहीं है। जरूरत है बंदरगाहों के विस्तार की और नये बंदरगाहों के निर्माण की। इसके अलावा यहां लॉजिस्टिक्स क्षेत्र अभी शैशव काल में है, इसे परिपक्व होने में वक्त लगेगा। इसे सरकार का सहारा चाहिए। कई सारे एक्सप्रेस हाईवे अभी बन रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां ट्रांसपोर्ट लागत बहुत है। डीजल महंगा होने से सामान की ढुलाई काफी महंगी हो जाती है। इसके अलावा टोल टैक्स वगैरह भी बहुत ज्यादा है। इसका अंदाजा एक उदाहरण से लगाया जा सकता है कि लुधियाना में उत्पादित सामान बंदरगाह तक भेजने में जितना पैसा लगता है उससे कम पैसे में वह सामान बंदरगाह से दुबई पहुंच जाता है। ट्रांसपोर्ट का यह खर्च लागत में जुड़ जाता है जिससे वह महंगा हो जाता है। नौकरशाही भी एक समस्या है क्योंकि इसकी चाल धीमी है और यहां उन विभागों में काम धीरे-धीरे होता है। जैसे-जैसे निर्यात में बढ़ोतरी होती जायेगी, अर्थव्यवस्था और कुलांचें भरेगी। यह समय अब आ रहा है।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।