फैसले की कसक
विमल कालिया
मां हमेशा कहती रहीं ‘उसे, उसे तो कभी छोड़ूंगी नहीं। उसे तो सबक सिखा कर ही रहूंगी।’
जाने मेरे बाप ने इस प्रकरण से क्या सबक सीखा, और मेरी मां ने इस सब से क्या पाया और क्या खोया। बस, मुझे यही सबक मिला जो आज भी याद है ‘कि मेरा बाप एक बहुत बुरा आदमी था। उसने मेरी मां के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। वो नफरत के काबिल इंसान था। पर मेरी मां कौन-सी बहुत अच्छी थी। वो भी तो जीवन भर नफरत परोसती रही और मैं अपने बाप से घृणा करता रहा। उनके कहने पर। मैंने कभी सच्चाई परखने की कोशिश ही नहीं की। हमेशा मां का कहना ही सच मान अपने बाप से द्वेष करता रहा। मानना तो पड़ना ही था। उनके पास, उनके साथ ही तो रहता था। कानूनन उनकी अभिरक्षा में जो था।’
‘बेटा, सब ठीक है?’
शहर में यही एक झील थी जहां जमीं, पानी, जंगल और उसके आगे पहाड़ियां और फिर आसमान एक हो जाते थे। वर्षा ऋतु की शाम थी। मन कुछ अशांत था, तो सुनील झील की ओर निकल पड़ा। आसमान में काले बादल थे। अभी बरसे कि अभी बरसे। फिर भी मन व्याकुल था तो झील किनारे आ गया। ड्राइवर और गाड़ी को छोड़ झील किनारे चलने लगा। कोई नहीं था। बस एक नौजवान बैठा था दूर झील किनारे बनी मुंडेर पर। सुनील भी उधर को ही टहलता निकल गया। उसे लगा वो लड़का शायद मोबाइल पर किसी से बात कर रहा है, परंतु इसके पास मोबाइल नहीं था। न ही उसके ईयरफोन लगे थे। सत्य यह था कि वह अपने आप से ही बातें कर रहा था। ज़ोर-ज़ोर से। सो स्वाभाविक ही था कि सुनील के मुंह से निकल गया,
‘बेटा सब ठीक है?’
पर वो नौजवान वैसे ही बैठा रहा। न हिला, न उसने मुड़ कर सुनील की तरफ देखा।
‘पानी बंद करो साहिल। पानी बर्बाद हो रहा है। बिजली बंद करो। बिजली का बड़ा-सा बिल आ जायेगा। कम खाओ साहिल, मोटे हो रहे हो। तुम्हारा बाप कौन-सा पैसे का पेड़ छोड़ गया है। साहिल उठ जाओ, कितनी देर तक सोओगे।’ सारा दिन चिड़चिड़ी-सी मां, साहिल-साहिल करती फिरती। सारा गुस्सा मुझ पर निकलता और मैं भरता रहता गुस्सा अपने भीतर। ज़हरीला साहिल। मुझे अपने नाम से नफरत हो गई थी। पर बदल भी तो नहीं सकता था। बाप से एनओसी-अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना होता। और, वो क्योंकर देते। वे तो बहुत बुरे आदमी थे।’
वह खुद से ही बात कर रहा था।
‘साहिल क्या तुम ठीक हो? मैं कुछ मदद करूं।’ कहते-कहते सुनील उसके कुछ दूरी पर जा कर बैठ गया।
वो कुछ देर चुप रहा। फिर धीरे से सुनील की तरफ सरक आया और उसकी तरफ देखते हुए कहने लगा-‘आपने तितली को देखा है। वो बस थोड़ी देर को उड़ती है, खुशी देती है, रंग बिखेरती है। और फिर बिखर जाती है। बस मेरे मम्मी-डैडी की शादी भी कुछ ऐसी ही थी।’
‘उनके मामूली झगड़ों में शायद परिवार वाले उलझ पड़े और बात का बतंगड़ बन गया। बात बढ़ते-बढ़ते इतनी आगे निकल गयी कि मेरी मां मुझे लेकर अपने मां-बाप के घर रहने चली गयी। उन्हें तो अपने मां-बाप का संरक्षण मिल गया। वो तो खुश हो गयीं। पर मैं अपनी जड़ों से अलग हो गया।
पता है- पर आपको कैसे पता होगा। आपके तो मां-बाप बचपन में साथ रहते होंगे - हैं ना। आप और आपकी पत्नी अपने बच्चों के साथ रहते होंगे। शायद उनके बच्चे भी आपके पास रहते होंगे। पर मैं तो नाना-नानी के घर पर रहता था। वहीं पला, जहां उन्हें दादा-दादी कहने वाले बहुत थे, जो बार-बार पूछते थे-
‘तुम यहां क्यों रहते हो?’ अपने दादा-दादी के पास क्यों नहीं रहते?’ उनके मासूम सवालों का जवाब नहीं जानता था- मैं भी तो मासूम ही था। मेरा मन करता था, मैं वहां से अपने घर चला जाऊं। यह घर बड़ा पराया लगता। शायद मां यहां खुश थी । पर मेरे मामा जी मुझसे कतई खुश नहीं थे। जाने मैंने यह कैसे भांप लिया। उनसे बड़ी ही नकारात्मक तरंगें महसूस होतीं। मैं वहां रहना नहीं चाहता था।
मेरी स्थिति बड़ी ही डांवांडोल थी। बंटी हुई- अधूरा-सा बचपन जो अपनों की खोज करता रहता। एक दिन मैं वहां से भाग गया। पांच साल का होने को आया था, सड़क पर घूमता रहा। तलाश किसकी थी, इस बात से अनभिज्ञ था। वापस पकड़ लाया गया। समझदार नहीं था।
पर वो जज साहब तो समझदार थे। उनसे मेरा दर्द नहीं देखा गया। फैसला देने से पहले उन्होंने झांका नहीं मेरी जिन्दगी में। मुझसे पूछा ही नहीं कि मैं क्या चाहता हूं। मेरी मां को मेरी स्थायी संरक्षक बना दिया, जो खुद ही असुरक्षित व्यक्तित्व थी।’
‘बेटे तुम यहां अकेले क्यों बैठे हो। बारिश भी होने वाली है। तुमने कुछ खाया है? रहते कहां हो, इस शहर में? ’
सुनील ने उससे पूछा। पर वो अपनी ही धुन में बोलता रहा,
‘मुझे विश्वास होने लगा है कि कायनात ने षड्यंत्र रचा है, उस सब को छीन लेने का जो मुझे प्यारा है या मेरी जरूरत। दादा-दादी, चाचा, ताऊ और सबसे महत्वपूर्ण - मेरा बाप। वो बाप जो मेरी मां को पसंद नहीं था। मां असुरक्षा का भाव लिये थी और भयग्रसित भी। उन्हें डर था कहीं मेरा बाप उनसे मुझे छीन के न ले जाये। मैं ही तो एकमात्र ‘चीज़’ था जो उनके पास था सौदा करने के लिए।
कई बार तो ऐसा लगता था मैं कोई बंधक हूं। गिरवी रख दिया गया हो मुझे जैसे। अगर उनके पास मैं नहीं होता तो शायद मेरे बाप के जज़्बात को वे भुना ही न पाते। मैं न होता तो गुस्से में किसे भला-बुरा कहतीं। अपनी जिन्दगी, अपने कैरियर, अपने विवाह की विफलता का दोष किस के सिर मढ़ती। उनकी हार का ठीकरा मेरे बाप के ही सिर फूटता - वो बाप जो मुझे अदालत में हार गया और मैं बन गया हारे हुए का बेटा।
मेरे बाप ने मेरी कस्टडी के लिए लड़ाई ही नहीं की। न्यायाधीश ने बस इतना ही कहा था, ‘एक बच्चे को उसकी मां से अलग नहीं किया जा सकता।’ तो क्या बाप से अलग किया जा सकता है? और बच्चे से तो कुछ पूछा ही नहीं गया। कभी भी। उसकी इच्छा क्या थी? बस बकरी की भांति एक खूंटे से खोल दूसरे खूंटे में बांध दिया।
छोटा बच्चा था। फिर भी अपनी डाल से टूटने का दर्द महसूस हुआ था मुझे। मैंने पीछे मुड़ कर देखा था, पर मेरा बाप मुझे पीठ दिखा कर चला गया था। मैं उस दर्द को उनसे बांटना चाहता था। मां से कैसे बांटता, वो तो गुस्से से भरी हुई थीं। आज भी वो गुस्से से भरी हुई ही हैं। मुझ पर और सब पर गुस्सा निकालती हैं। बर्तनों पर, दरवाजों पर, पर्दों पर- कुर्सी पर। उन्हें पटकती है, जोर से बंद करती है, खींच कर हटाती हैं। कुर्सी को इतनी ज़ोर से घसीटती हैं कि ज़मीन भी किरच उठती है।
वही गुस्सा मुझ में आ गया है, बस मैं इसे किसी पर निकालता नहीं क्योंकि वो मेरी शख्सियत का हिस्सा ही बन गया- क्रोध और नैराश्य।’
साहिल कुछ चुप हुआ तो सुनील कुछ और उसके नज़दीक हो गया। उसके कंधे पर अपना हाथ रख बोला,
‘सब ठीक हो जायेगा। थोड़ा अपने आप को सख्त करो। जिन्दगी बहुत बड़ी है। हर जख्म भर जाता है। हम भूतकाल को माफ कर आगे बढ़ने का प्रयत्न करें तो जीवन खुशनुमा हो सकता है।’
‘तो वो दोनों, माफी मांग लेते, एक-दूसरे से। या, शायद माफ़ कर देते, एक दूसरे को। या- दोनों बात ही कर लेते। बैठ कर बात। कोई हल निकल आता। मैं स्कूल की गर्मियों की छुट्टियां उन दोनों के साथ मना पाता और वापस जा एक निबंध लिख पाता- मेरी गर्मी की छुट्टियां।
पर कैसे लिखता? अदालत का आदेश था कि आधी-आधी छुट्टियां बंटी हुई थीं। मेरा बाप आ कर ले जाता था और फिर छोड़ जाता था। छुट्टियां बस यूं ही खत्म हो जाती थीं एक कशमकश में।
अदालत का आदेश था। जज, एस.एस. रे का फैसला था, जिसने मेरी जिन्दगी बदल दी। जज साहब को तो कोई भी फर्क नहीं पड़ा। उनके तो कितने ही फैसले थे। उनका तो रोज़ का काम था। उन्होंने कभी की यह जांच नहीं करवाई कि उनके फैसलों के दूरगामी परिणाम कैसे हो सकते हैं। क्या वो फैसला उस बच्चे के लिए न्यायसंगत था कि नहीं। उस एक निर्णय का कहां पर, किस पर, किस प्रकार का असर हुआ होगा।
वो जज, एसएस रे ही मेरे असली मुज़रिम हैं। मेरे मुज़रिम। मेरा गुस्सा उनकी तरफ भी है। मैंने उन्हें कभी भी माफ नहीं किया। मैं, बात करना चाहता हूं- एक बार उनसे। वैसे ही जैसे अभी आप से कर रहा हूं। गुबार निकल गया है, सो कुछ हल्का हो गया हूं पर अभी भी आज़ाद नहीं हूं।’
क्या कहा था जज साहब ने—
कानून नियमों और विनियमों का एक बड़ा निकाय है, जो मुख्य रूप से न्याय, निष्पक्ष व्यवहार तथा सुविधा के सामान्य सिद्धांतों पर आधारित है और जिसे मानव गतिविधियों को विनियमित करने के लिए सरकारी निकायों द्वारा तैयार किया जाता है।
और साथ ही उन्होंने कहा-प्रकृति के नियमों के अनुसार, एक बच्चे को मां से अलग नहीं कर सकते, पर वो भूल गये कि एक बच्चे को उसकी जड़ों से भी अलग मत करो। बाप का घर भी तो उसका घर है। उसका संबंध वहां से भी है।
मेरे बाप को मिला मुलाकात का हक़, पर मैं बन गया अपने घर में ही एक आगंतुक। वहां की डांट पर मेरा हक था। वहां पर सीढ़ियों से गिर कर चोट खाने का हक़ भी मेरा था। दादा-दादी के बेड में बीच के हिस्से पर हक़ मेरा था। आंगन में लगे अमरूद के फल मेरे थे। उस एक फैसले ने, मेरे सारे हक़ छीन लिये। जज साहब ने अपने फैसले की जिम्मेवारी लेते यह सुनिश्चित नहीं किया कि मेरा हक़ मुझे मिलता रहेगा। मुझे मां तो मिल गयी, पर बाकी सब छिन गया। और यह सोच मुझे सालती रहती है सालों से।
मैं उस अधूरे फैसले के कारण रह गया आधा-अधूरा। दोनों घरों में पराया-सा।’
‘कभी जब बीमार था तो दोनों मां-बाप पास नहीं थे। हर परीक्षा से पहले एक आशीर्वाद कम था। जज साहब ने रेडक्लिफ लाइन-सा फैसला दिया। एक अधूरा विभाजन। मैं एक तलाक का हिस्सा था पर मेरा निष्पक्ष प्रभाग नहीं हुआ। बन गया मैं एक नदी, जिसका कोई किनारा न हो। मेरे दोनों किनारे टूट गये। बाढ़ ने सब बहा दिया।’
साहिल चुप हो गया। साहिल और सुनील कुछ देर यूं ही बैठे रहे जैसे कुछ बोलने को रह ही न गया हो।
बादल आसमान पर घेरा डाले हुए थे। अंधेरा बढ़ चला था। साहिल बोला,
‘यह जो इस साल अधिक मास आया है न, बहुत वर्षों बाद सावन में आया है। सौर वर्ष और चंद्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने को हर तीसरे वर्ष में चन्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है, सो यह मलमास सावन में आया है और क्या बारिश लाया है।
मैं भी वर्षों उपरान्त अपने बाप से मिलने इस शहर में आया हूं - शायद सामंजस्य को ढूंढ़ने।
सच कहूं तो उनसे मिलने के बाद, जाने मेरे दिल में उनके प्रति कोई प्रेम नहीं जागा। मैं भावनाविहीन ही रहा। कैसे जागता प्यार, मुझे तो नफ़रत ने ही पाला था। जब मैं उनके गले लगा तो एक शीशे की दीवार बीच में उग आयी। हमारी मुट्ठियां बंद ही रहीं। हमारे हाथ पीठ तक पहुंचे पर फैले नहीं, फिरे नहीं। वो क्या शानदार शख्स थे! पूर्ण। उनका तलाक और मैं ही ग्रहण था उस सूरज पर। पर मैं उनको जानता ही नहीं था और वो भी मुझे कहां जानते थे। जानने का वक़्त निकल गया था- उस निर्णय के सौजन्य से। सो हम दो अंजान लोगों जैसे मिले।
और उसी खालीपन को लिए, मैं लेक पर निकल आया।’ साहिल बोल ही रहा था, कि बारिश होने लगी। कपड़े भीगने से शरीर भारी होने लगा, और मन तो भारी था ही। सुनील उठा और वापस गाड़ी की ओर चलने लगा।
साहिल वहीं छूट गया।
सुनील और तेज भागा क्योंकि बारिश बहुत ज़ोरों की होने लगी थी। वैसे भी, वो कैसे बताता साहिल को कि वही जज सुनील शंकर रे था। अब एक रिटायर्ड जज।
अगले दिन सुनील ने अख़बार में पढ़ा कि एक लड़के ने झील में कूद कर जान दे दी। मन ही मन उसने कहा, ‘काश! वह न हो। काश! मैं उसको मुड़ कर देख लेता तो उसकी आंखों में माफ़ी का कतरा दिख जाता।’ पर सवाल वही बाकी था, दोषी कौन?