आवारा मानसून और माननीयों की सांठगांठ
तिरछी नज़र
मुकेश राठौर
एक समय था जब मानसून दनदनाता हुआ आता था। वह आता तो धूल खाए आसमान में बादलों की कतार लग जाती, मानो ऊंटों का कारवां चला आ रहा हो। धरती हरी चुनर ओढ़ उसका स्वागत करती और जब लौटता तो सिमट-सिकुड़कर विदाई देती। मगर अब मानसून दबे पांव ऐसे आता है जैसे पैरोल पर छूटा कोई नेता! लोग स्वागत में खड़े रह जाते हैं और वह चोर दरवाजे से चुपचाप खेतों में घुस जाता है और लिखने लगता है ‘हल का हार्दिक अभिनंदन’। जिसे पढ़नी आती है मानसून की कूटभाषा वह जुट जाता है बुआई में और जो नहीं समझ पाता मानसून की भाषा वह बैठा रहता है मेढ़ पर।
अबके मानसून समय से आया तो लगा अच्छी शुरुआत ने आधा काम कर दिया। वेल बिगन इज़ हॉफ डन। लेकिन खेती-किसानी में आधा काम कभी पूरा नहीं माना जाता। गाड़ी के एक पहिए, जोड़ी के एक बैल की तरह। आधे बीजों का उगना, आधे फल का पकना, आधी फसल का कटना और उपज के आधे दाम मिलना किसान की पूरी बर्बादी का सबब होता है। कहते हैं किसान को आषाढ़ में उत्साह और क्वार में अक्ल आती है। उत्साह के अतिरेक में वह पोटली में बंधी पाई-पाई मिट्टी में दबा देता है और फिर फसल पकने तक खुद दबता चला जाता है-खाद, दवाई, निंदाई, गुड़ाई... के बोझ तले। यूं तो उसके लिए लाख योजनाएं बनती हैं लेकिन टूटी खाट पर वह सिरहाने सिर रखकर सोए या पायताने कमर सदैव बीच में ही रहती है। जब क्वार में अक्ल आती है तो कोने में बैठ विचारता है ये बोता तो ऐसा होता, वो बोता तो वैसा। ये सच है कि हल चलाने और बैल चराने वाले मैले-कुचैले ‘पंचेधारी’ किसान को समाज में सम्मान मिलना अब भी बाकी है। ये बात और है कि उसे सम्मान स्वरूप कुछ रुपये मिलने लगे हैं।
बहरहाल, वर्षा की लंबी खेंच से जब नवयौवना फसलों से सजी धरती ने हरी चुनर उतार पीली चुनर ओढ़ी तो किसानों के चेहरे भी पीले पड़ने लगे। ‘किसान के चेहरे का मेलेनिन फसल के क्लोरोफिल पर निर्भर करता है।’ जब फसल बदरंग हो जाए तो उसकी रंगत कैसे बरकरार रहे! जब मानसून नजर चुरा ले तो नजरें माननीयों पर आकर टिक जाती हैं। मानसून के मारों की पीड़ा माननीयों से बेहतर कौन समझ सकता है! कभी तो लगता है मानसून और माननीयों की सांठगांठ है। जबसे माननीय उदार हुए, किसान उधार होते ही ‘उधर’ निहारने लगते हैं। गोया यह भी एक कृषि कार्य-सा हो गया। यह जानते हुए भी कि मालिक का दिया ही पुराता है माननीयों का दिया नहीं।
किसान माननीय से बोले, हम तो चाहते हैं कि देश वहां-वहां जाए, जहां पहले कभी कोई नहीं गया। कभी बादलों पर भी जाइए। मानसून में दिखने वाले काले बादल सिर्फ मतवाले ही नहीं होते। जैसा प्रायः समझा जाता है। उन्हें कहा तो जाता है सब कुछ, समझा जाता है कुछ-कुछ, मगर वे होते हैं बहुत कुछ। उनमें भी कभी गहराई से खोजिए जल और जीवन...।