किसान को भी रास आयें पराली के समाधान
पंकज चतुर्वेदी
अभी सुबह-शाम की हल्की-सी ठंड है लेकिन दिल्ली और उसके आसपास हवा का ज़हर होना शुरू हो गया है। इस हफ्ते ग्रेप का दूसरा पायदान लागू करने की नौबत आ गई। अकसर इसका ठीकरा पंजाब-हरियाणा के खेतों में जलने वाली पराली पर फोड़ दिया जाता है। जबकि दिल्ली का दम घोटने में सबसे बड़ी भूमिका ट्रैफिक जाम और पूरे शहर में चल रहे निर्माण कार्यों से उड़ रही धूल की है। कारों का सम-विषम नियम, प्रदूषण सोख लेने वाले टॉवर के मामले के बाद पराली खेत में खत्म करने वाले रसायन के विज्ञापन भी खूब छपे लेकिन कुछ बदला नहीं।
अभी आश्विन मास चल रहा है, लेकिन स्मोग के प्रकोप से समूचा हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश बेहाल है। अस्पतालों में सांस के मरीजों की संख्या रिकार्ड तोड़ हो गई है। वहीं शरद पूर्णिमा का उजला चांद शायद ही इस बार आकाश में दिख पाए क्योंकि लाख दावों के बाद भी हरियाणा-पंजाब में पराली जलाना शुरू हो चुका है।
दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) खराब श्रेणी व कुछ इलाकों में बहुत खराब श्रेणी में है। हरियाणा के किसी भी जिले में सांस लेने लायक शुद्ध हवा बची नहीं हैं। सबसे खतरनाक है हवा में सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) की मात्रा बढ़ना जिसमें सांस लेने से हृदय रोग, अस्थमा और जन्म के समय कम वजन जैसी स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है।
विदित हो, केंद्र सरकार हर साल पराली जलाने से रोकने के लिए किसानों को मशीनें खरीदने और पराली निपटान संबंधी कार्य के लिए राज्यों को पैसा देती रही है। इस साल भी इस मद में 600 करोड़ का प्रावधान है। विडंबना है कि इन्हीं राज्यों से सबसे अधिक पराली का धुआं उठ रहा है। जाहिर है कि आर्थिक मदद, रासायनिक घोल, मशीनों से पराली के निपटान जैसे प्रयोग किसान को आकर्षित नहीं कर रहे या लाभकारी नहीं हैं। जरूरत किसान की व्यावहारिक दिक्कतें समझकर हल निकालने की है। इस बार बारिश की अनियमितताओं के चलते धान की रोपाई देर से हुई। इसी के चलते पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धान कटाई में एक -दो सप्ताह देरी हो रही है। किसान को अगली फसल के लिए खेत तैयार करने की जल्दी में है। वह मशीन से पराली निपटान में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और पराली जलाने को ही सरल तरीका मान रहा है।
किसान का पक्ष है कि पराली का मशीन से निपटान इसे जलाने के मुकाबले महंगा विकल्प है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली खेत में पड़ी रहने दें। यूं भी हरियाणा-पंजाब में कानूनन धान की रोपाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। भूजल अपव्यय रोकने के लिए यह रोक है। धान फसल तैयार होने में करीब 140 दिन लगते हैं फिर काटने के बाद गेहूं बुआई के लिए किसान के पास इतना समय होता नहीं कि वह पराली निपटान कानून मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान का रकबा कम नहीं होता, या खेतों में बरसाती पानी सहेजने को तालाब नहीं बनते और उस जल से धान रोपाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती; पराली संकट से निजात संभव नहीं।
इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमोस्फियर रिसर्च लेब के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ बुवाई एक माह पहले कर ली जाए तो राजधानी को पराली के धुएं से बचाया जा सकता है। यदि एक माह पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवा तेज चलने के कारण घुटन के हालत नहीं होते व हवा में धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के बजाय सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही नहीं।
ज्यादातर किसान पराली निपटान की मशीनों पर सब्सिडी योजना को कारगर नहीं मानते हैं क्योंकि पराली निपटान मशीन खुले बाजार में सस्ती है जबकि सब्सिडी पर वही मशीन महंगी मिलती है। जाहिर है सब्सिडी बेमानी है। पंजाब और हरियाणा में पराली निपटान मशीनों के कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं जहां ये मशीनें वाजिब किराए पर मिलती हैं। इन मशीनों का किराया प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रुपये तक बढ़ जाता है जबकि पराली जलाने पर जुर्माना 2,500 रुपये ही लगता है।
दरअसल, पराली जलाना रोकने की जो योजनाएं बनीं, वे कागजों-विज्ञापनों में तो लुभावनी हैं, लेकिन खेत में कारगर नहीं। जरूरत है, किसानों के साथ मिलकर व्यावहारिक पहलुओं को समझ इस समस्या के निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशे जायें।