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कहानी

07:00 AM Oct 06, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

राजेंद्र कुमार कनौजिया

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तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं, यह एक सच है। लेकिन तस्वीरों में कल दिखता है, वह सिर्फ़ गुजरा हुआ कल या गुजरा हुआ लम्हा ही दिखाती हैं। न हाथ हिलाती हैं, न ही कुछ बोलती हैं, स्थिर, शांत और ख़ामोश। न कोई हरकत, न ही कोई हाव-भाव।
मेरे सामने दीवार पर टंगी तस्वीर थोड़ी टेढ़ी थी। मैंने उसे सीधा करने की कोशिश की, कि एक दूसरी तस्वीर गिर पड़ी, थोड़ी छोटी, थोड़ी बेरंग। एक धूमिल-सा चेहरा, दो मासूम आंखें और बिखरे बाल, लगता था किसी ने जल्दीबाज़ी में किसी पुराने कैमरे से खींची हो। बदरंग, बेढब, बेतरतीब। ऐसे जैसे बरसों पहले शाम को खेलकर वापस घर आते ही चाचू ने स्टैच्यू कहकर खींच ली थी मेरी तस्वीर।
अचानक जैसे कोई मेरे पास से गुज़र गया, एक हवा का झोंका, कोई स्पर्श या वहम। इस लगभग अंधेरे, जाले लगे कमरे में मेरे पास रखा गुलदान गिरते-गिरते बचा। मेरे हाथ हटाते ही मेज़ के पाये हिल रहे थे। लेकिन कमरा बिल्कुल शांत था। जैसा कभी वहां कोई रहा ही नहीं हो या फिर कुछ है जो मेरे इंतज़ार में सांसें रोके दरवाज़े के पीछे छुपा है। सुना है सन्नाटे के पांव नहीं होते, लेकिन शायद हाथ मुझे दबोच लेना चाहते हैं, दम घोंट देना चाहते हैं।
कोई चीख नहीं, कोई झगड़ा नहीं, कोई बहस नहीं, केवल एक मासूम सी खामोशी, जिसका कोई अस्तित्व नहीं। मैं, मतलब सुरेंद्र साही, यू.पी. पुलिस का सब इंस्पेक्टर, आज किसी जांच के सिलसिले में इस वीरान से घर में किसी अजनबी की तरह खड़ा हूं।
एक छोटा-सा बच्चा अचानक मेरे पैरों के बिल्कुल पास से साइकिल चलाता हुआ गुजरा, लेकिन एक अजीब बात थी कि वो ट्रेन के इंजन की आवाज़ निकाल रहा था, ‘छुक छुक छुक।’ ‘छुक छुक छुक’— एक आवाज़... जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई पड़ी, मैं इस आवाज़ को पहचानता हूं। कैसे, पता नहीं।
कमरे में घुप्प अंधेरा था, वैसा ही जैसा कहा जाता है कि हाथ को दूसरा हाथ दिखाई न दे। बिल्कुल स्याह काला, बदनसीब सा अंधेरा, बेग़ैरत। अपना ही पैर आगे कैसे बढ़ाऊं, कहां रखूं, समझ ही नहीं आ रहा था।
सर्दी बीते अभी कुछ ही दिन हुए थे, गर्म कपड़े धूप दिखा कर फिर से बक्से में, ट्रंक में चले गये थे। होली आने वाली थी, कमरों में सुस्त पड़े पंखे दो नंबर से तीसरे नंबर तक ज़ोर से चलने लगे थे। आज ही एसी सर्विसिंग वाले को बुलाया था कि ये केस मेरे पल्ले पड़ गया। अपनी ड्रेस पहनी, टोपी, छड़ी, भारी काले बूट और सीने पर चमकते तमगे, लोकेशन पता की और आ गया।
पर लगता है, किसी ने मेरे आने की सूचना यहां पहले ही दे दी। सब भाग गए, ऊपर से लाइट का फ़्यूज़ भी उड़ा गए। मेरी जेब में टॉर्च थी, मैंने जलायी। अजीब-सी दुर्गंध है चारों ओर। जैसे यहां आग लगी थी कभी, धुआं अभी भी सिसकियों की तरह कहीं-कहीं से सुबक रहा है। पूरा कमरा जैसे कराह रहा हो किसी दर्द से, अपनी ही नब्ज़ पर हाथ रखे, एक, दो, तीन गिनता हुआ।
कमरे में एक जला हुआ सोफ़ा सेट, तबले, ढक्कन वाला टी.वी. है, सब जले हुए। दीवार पर लगीं कुछ मटमैली-सी तस्वीरें, जो टेढ़ी होकर लटक रही हैं। नीचे टूटे हुए कांच के टुकड़े। मैं बचता-बचता आगे बढ़ा ही था कि किचन से जैसे कोई आवाज़ आयी— ‘दही लेने में कितनी देर लगा दी, पता है न कितने काम हैं, बेटा आ रहा है, अभी आते ही मांगेगा, मां आलू के परांठे बन गए, बड़ी भूख लगी है।’
मैं किचन के दरवाज़े पर आकर रुक गया। एक बुजुर्ग औरत उबले आलू छील रही है, गैस पर दाल पक रही है। ‘अभी तक कुसुम भी नहीं आई, कमरा साफ़ कर जाती, बाहर से कपड़े उठाकर रख देती।’
तभी दरवाज़ा खुला, एक बुजुर्ग घर में दाखिल हुए, सांसें संभाले नहीं बनतीं। ‘ए लो दही, कल से सारा घर सिर पर उठा रखा है, सारे मुहल्ले में तुमने ढिंढोरा पीट दिया है। जिसको देखो पूछ रहा, कब आएगा बेटा। मैंने कह दिया मेरी बीबी से पूछो, उसे ही पता होगा कब आएगा वो, वापस अपने घर।’
‘पड़ोसी हंसते हैं, मुझ पर। जहां जाओ पूछते हैं, कब आएगा तुम्हारा बेटा। अब मैं उन्हें क्या बताऊं, क्या बताऊं कब आएगा। आखिर हमारा क्या दोष है? ये भी तो उसका घर है, इसे भी तो कोई सम्भालेगा।’ वो बुजुर्ग रो रहे हैं, मेरे हाथों से सिर्फ़ थोड़ी ही दूर। मन करता है कि सम्भाल लूं इन्हें, पर हाथ ही नहीं उठे।
वो लगभग सुबकते हुए बोल रहे थे— ‘शायद ऐसी कोई ट्रेन ही नहीं बनाई सरकार ने, जिससे घर से एक बार पढ़ाई, कमाई, रोज़गार और तरक्की का झांसा देकर घर से भागे बच्चे वापस आ सकें, अपने बूढ़े मां-बाप के पास, उनकी देखभाल के लिए, घर के रखरखाव के लिए…… कौन सा गुनाह किया था जो मर-खप कर घर बनाया।’
अंदर के कमरे में अधजला गिटार एक कोने पर पड़ा है, दीवार पर अधजली ढोलक टंगी है, पलंग, अलमारी, और भी अगड़म-बगड़म। ढोलक पर हाथ फेरे, लेकिन वहां कुछ भी नहीं था, न ढोलक, न गिटार। मैं चुपचाप उस लगभग अंधेरे कमरे में अकेले खड़ा था, पता नहीं कैसे मेरी पलकों के किनारे भीगने लगे थे।
तभी मुझे होश आया कि मैं यहां ड्यूटी पर आया हूं। मुझे पता करना है, यहां किसका खून हुआ है। वो भी एक नहीं, कई-कई लोगों का। कौन थे वो और क्या हुआ होगा। क्या गुनाह किया होगा उन्होंने? व्यक्ति से बड़ी है उसकी उम्मीद, सम्मान और सपनों की मौत, जिसमें शामिल है सारा परिवार।
कमरे में मेरे पैरों से कोई डोर सी फंस गई। मैं निकालना चाहता हूं, पर निकल नहीं रही। खींचते ही जैसे मांजे से पैर कट गया। ‘चाची, आपका सत्तू छत से मेरी पतंग की डोर पकड़ लेता है, पतंग गिरा देता या काट लेता है, उसको समझा लो वरना।’
‘क्या वरना? चला मेरे बेटे को पीटने, अपनी पतंग कहीं और उड़ाया कर।’ मैंने नीचे झुक कर डोर पकड़ी, कि एक फटी हुई पतंग मेरे हाथ में आ गई।
मैं भी तो, ऐसे ही छत की तीसरी मंज़िल पर चढ़कर छुप जाता और आसपास उड़ती पतंगों को धागे में पत्थर बांध कर लपक लेता। बहुत सारी पतंग मेरे कमरे के एक कोने में लटकती रहतीं, उनके ऊपर मैं कपड़े डाल देता। अचानक एक फटी पतंग फड़फड़ाई, दो तिनके आपस में एक रंगीन डोर के सहारे बंधे छूटने को बेक़रार। लाल कागज़ अभी भी कोनों में चिपका है, जैसे कह रहा हो कहां जाऊं, जब डोर ही कट गई, उड़ाने वाला ही नहीं रहा।
‘ले मेरी पतंग उड़ा देगा, मुझसे पेंच नहीं लड़ाने बनता।’ - लाली, पतली-सी, गोरी, जैसे भाप से कोई फाया कोई बुलबुला उभर कर लड़की बन गई हो। हमारी छत तीन मंज़िला थी, पतंग छूटते ही आसमान चूमने लगती। मैं ख़ूब ऊंची पतंग उड़ाता फिर छत पर बनी एक मुंडेर पर बैठा दूर उड़ती अपनी पतंग देखा करता।
लाली अक्सर मेरी छत पर आ जाती, मेरी पतंग की डोर पकड़ कर ठुनकी देती और फिर ख़ुशी से खिलखिलाने लगती। हम दोनों ही बहुत छोटे थे, पर मैं लाली को देर तक यूं ही खिलखिलाते देखता रहता। न जाने क्यों मुझे उसका खिलखिलाना बहुत अच्छा लगता। जब सारे लोग मायूस, बेदम से, गुमसुम रहते थे, लाली की हंसी जैसे मेरी छत से उतर कर पूरे मुहल्ले में फैल जाती, जैसे गुलमोहर के फूल झरते, धूप छिटकती या कि मौसम बदलता।
पर एक दिन दोपहर को लाली नहीं आई, फिर दूसरे दिन भी नहीं आई। फिर बहुत दिन, नहीं, मैं उसे भूल कर पढ़ाई में लग गया था। कि एक दिन वो आई थी गुमसुम, मेरी टेबल के ऊपर उंगलियां फिराने लगी।
‘कहां थी? तुम पता है, बहुत इंतज़ार किया है मैंने। देख, कितनी पतंग लूटीं, सारी उड़ायेंगे तेरे साथ।’
‘नहीं, मैं जा रही हूं, दूर, पता नहीं कहां।’
‘क्यों, क्या हुआ? कहां जा रही है तू, अभी तो तेरी पढ़ाई चल रही है।’
‘मेरी शादी तय हो गई है।’
मेरे हाथों से पानी का गिलास नीचे गिरकर टूट गया। अंधेरे में मेरा हाथ उस ख़ाली घर में, न जाने किस चीज़ से टकराया, कुछ गिरा। मैं जैसे जाग-सा गया। मैं यहां आया था तफ़तीश करने कि किसका खून हुआ है, कौन मरा। पर यहां तो कुछ भी नहीं, ऊपर से यहां तो यादों का सिलसिला है कि टूटता ही नहीं।
मां के आलू के परांठे बनकर ठंडे भी हो गये। मां चुपचाप वहीं पड़ी है, बुजुर्ग व्यक्ति बाहर दालान में तख़्त पर सो गये हैं। कोई नहीं आया उस दिन, कभी भी नहीं आया।
मैं क्या तफ़तीश करूं, समझ ही नहीं आ रहा। घर में रखा गैस सिलेंडर कैसे फट पड़ा, आग लगी या लगाई गई, कुछ समझ नहीं आता। मेज़ पर कुछ अधजली किताबें हैं, एक तस्वीर है। मैं किताबें पलट रहा हूं, कुछ सर्टिफ़िकेट्स हैं, अधजले, धूमिल-सा नाम लिखा है, सुरिंदर साही। कौन है ये, मेरा नाम यहां कैसे, मेरी तस्वीर दीवार पर लटक रही है।
मैं यहां कैसे, कौन हूं मैं। किताबों के बीच से एक कागज़ गिरा है, मैंने उसे उठा लिया। धूमिल-सा लिखा है ‘लालिमा सिंह, पहलगाम, कुछ नम्बर शायद फ़ोन नम्बर।’
मैं नीचे बैठ गया। लालिमा यहां आई थी, नम्बर भी दे गई थी, कितना इंतज़ार किया होगा, मेरे फ़ोन का। फिर मैं कहां था, क्यों नहीं लौटा यहां, मां के पास, पिता जी के पास, अपने घर के पास। भूल गया सब कुछ, एक अंधी दौड़, सपनों के पीछे भागते-भागते मेरे अपने कहीं छूट गये।
‘फिर आ गये यहां।’ मेरे पीछे से एक आवाज़ ने चौंका दिया। शगुन थी, मेरी पत्नी, शायद मुझे ढूंढ़ती हुई आ गई।
‘क्या हो गया है तुम्हें, क्यों रोज़ रोज़ आते हो यहां, इस खंडहर में? किसी दिन दीवारें गिर गईं तो दब जाओगे, फिर क्या होगा? तुम्हें पुलिस विभाग से रिटायर्ड हुए एक अरसा हो गया, फिर भी ये ड्रेस पहनकर, छड़ी लेकर केस सुलझाने इसी घर में वापस लौट आते हो। क्या आज मिला तुम्हें तुम्हारा मुजरिम?’— शगुन ने मेरे हाथ थाम लिए। मेरे हाथ-पांव कांप रहे थे, आंखें नम थीं।
‘आख़िर इस केस की फाइल बंद करो, फ़ैसला सुनाओ।’ मैं लड़खड़ा कर वहीं बैठ गया हूं। मैंने चारों ओर देखा, मां, पिता जी, मेरे पुराने साथी, रिश्तेदार कमरे में चारों ओर खड़े मुझे देख रहे थे। उनके पीछे ही लाली है, शादी के जोड़े में चुपचाप मुझे देखती।
‘क्यों?’ जैसे कोई बड़ा-सा सवाल मुझे घूर रहा था। मैं ज़ोर से चिल्ला उठा हूं, ‘मैं हूं मुजरिम, इस घर का जिसे पिता जी ने हम सबके लिए बनाया था और मैं इसे भूल गया। मां-पिता जी का दोषी हूं जो लगातार मेरा इंतज़ार करते रहे कि बेटा शहर से पढ़-लिखकर वापस आएगा तो खुशियां लाएगा, उन्हें आराम मिलेगा, घर की शान रहेगी।’
‘लेकिन मैंने सबको चकनाचूर कर दिया, भूल गया अपने सपनों को पूरा करते-करते कि मेरी कोई और ज़िम्मेदारी भी है।’
‘और मेरा क्या?’— लाली उन सभी के आगे आकर खड़ी हो गई।
‘तुम तो जा चुकी थीं, दूर कहीं शादी करके। तुम पर मेरा क्या कर्ज़?’
मां ने एक थप्पड़ मारा था, ‘बेवक़ूफ़, वो लौटकर आई थी, तुझे ढूंढ़ती, पर तू तो सब भूल चुका था।’
‘पर उसने तो शादी की थी ना।’
‘नहीं, उसने तेरे लिए सब कुछ छोड़ दिया, लेकिन तू तो अपने सपनों के पीछे भाग रहा था, देख क्या-क्या छूट गया।’
‘पर मैं अब आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा, अब यहीं रहूंगा सबके साथ, मां, पिता जी, शकुन, लाली और सारे दोस्त।’ मैं ज़ोर-ज़ोर से रो रहा हूं, सारे लोग रो रहे हैं।
कहते हैं, कल्पनाओं के पंख नहीं होते, लेकिन दिल तो ज़रूर होता है, जो धड़कता है, महसूस कराता है, ज़िम्मेदारी पूरी न कर पाने का अपराध बोध, ग्लानि बहुत तकलीफ देती है। घरों से दूर, सपनों के पीछे भागते, उम्मीदें बहुत दिनों तक रुलाती हैं।

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