किस्सा उस शहर का
प्रकाश मनु
वे दोनों अभी नए आए थे, एक वो, एक उसकी वो। वो चश्मा लगाए गोरा और लंबा और उसकी वो साधारण नाक-नक्श की सांवली-सी। पूरी लाइन में एक ही कमरा खाली था—बिजली दफ्तर के महेंद्र बाबू का, जो उन्होंने अपनी अधेड़ावस्था की फुर्सत में बनवा लिया था, बुढ़ापे के आश्रय या किराए वगैरह के लिए। ये लोग उसी में आए थे।
पर ये लोग कुछ अजीब ही थे। पहले पुरुष बगल में वर्मा जी से चाबी लेकर मकान देख गया। फिर शाम को वह साथ में एक सांवली-सी युवती को भी लाया, जो जाहिर है उसकी बीवी ही होगी, पर लिपस्टिक, लज्जा आदि परंपरागत सुहाग-चिह्नों से ऐसी शून्य कि सवाल पर सवाल उठते थे! फिर दोनों ने कुछ रुचि, कुछ अरुचि से कमरा, एक छोटे से लॉन की वजह से चाहे तो मकान कह लीजिए, पसंद किया था।
आखिर वे एडवांस दे गए और अगले दिन आने के लिए कह गए।
वर्मा जी की सेहतमंद आधुनिक बीवी ने आसपास की औरतों के कानों में फुस-फुस कर कुछ कहा। उन्हें शायद दाल में कुछ काला दिखाई पड़ गया था। आसपास की औरतों ने और आगे बात सरकाई। बात चार से चालीस कानों तक पहुंची। फिर उन औरतों ने रात अपने-अपने मर्दों के कान में कुछ कहा, कुछ नहीं कहा। मर्द कुछ हंसे, कुछ सीरियस हुए... और फिर जैसे रातें गुजरती हैं, वह रात भी गुजर गई।
अगले दिन लोगों ने देखा कि केवल एक तांगा, आधा भरा हुआ आधा खाली, उस मकान के सामने आ खड़ा हुआ है। उसमें सामान के नाम पर कुछ छोटी-बड़ी बेतरतीब गठरियां हैं, दो चारपाइयां, एकाध कुर्सी-सी, एकाध संदूक, बस। पीछे-पीछे साइकिल पर हांफता हुआ वह लंबा आदमी आया, कैरियर पर टेबल फैन लिए, हैंडल में एकाध टोकरी लटकाए। पसीने से नहाया हुआ। उसके पीछे वह सांवली-सी युवती हाथ में दो छोटे-छोटे थैले लटकाए आराम से चलती आ रही थी।
इस अच्छे-खासे तमाशे को देखने का सुख छोड़ पाना आसान नहीं था, इसलिए लोग आए और उनके चेहरों पर हंसी फूट पड़ी। पर इन्होंने परवाह नहीं की। उस आदमी ने साइकिल खड़ी की, फटाक से ताला खोला, दरवाजा धकियाया... और... और सीरियसली जुट गया। औरत अपनी सामर्थ्य के मुताबिक मदद करती रही। थोड़ी देर में सामान भीतर आ गया तो उस आदमी ने इक्के वाले को पैसे दिए, धन्यवाद दिया और शायद चाय पीने का भी आग्रह किया। फिर बाहर का दरवाजा बंद हो गया और भीतर खटर-पटर होती रही।
फर्श धोने और चारपाइयां तथा अन्य सामान एडजस्ट करने की आवाजें थीं वे। इन्हीं के बीच कभी-कभी पुरुष के हंसने और औरत के हल्के ढंग से डांटने का स्वर भी मिल जाता। या कभी दोनों भी साथ-साथ हंसते थे।
‘यानी कि यह सांवली लगती तो खुशमिजाज-सी है।’ मिसेज वर्मा ने मन ही मन नोटिस लिया था।
शाम को सब औरतें दिल में कौतूहल, आंखों में सवाल लेकर मिसेज वर्मा के घर के बाहर इकट्ठी हुईं। सबके भीतर कुछ खुदबुदा रहा था और वे कोई बढ़िया नजारा लेना चाहती थीं।
पर वे बुरी तरह निराश हुईं, क्योंकि दरवाजा तब से अभी तक खुला ही नहीं था। एक खिड़की खुली थी, पर उसमें आते ही परदा लटक गया था। परदा कभी-कभी हिलता था तो अंदर के बर्तन वगैरह दिख जाते थे या कभी परदे पर कोई एकाध परछाईं आकर टिकती और फिर गुजर जाती, मगर इससे दिल तो नहीं भरता था।
‘हे भगवान, इत्ती घुटन में कोई कैसे रह सकता है?’ राजरानी से अब नहीं रहा गया तो उसने हवा में हाथ हिलाकर कह ही दिया। खूब ऊंची आवाज में, कि हो सके तो भीतर वाले भी सुन लें। फिर बंद दरवाजे को लक्ष्य करके बोली, ‘आदमी तो वही अच्छे लगते हैं जो आदमियों के बीच उठे-बैठें, आदमियों की तरह रहें...’
‘और ये क्या जानवर... खी... खी... खी-खी-खी-खी!’ राजरानी की ननद बोली कम, हंसी ज्यादा थी।
तभी दरवाजा खुला। वे दोनों बाहर आए। दरवाजा बंद करके एक नजर बाहर चारपाई पर बैठी औरतों पर डाली, फिर वे हौले-हौले बातचीत करते, मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए।
आदमी घर के धुले और इस्तरी किए हुए सफेद कुर्ते-पायजामे में था और दोपहर की तुलना में इस समय ज्यादा चुस्त और खुश लग रहा था। औरत बादामी रंग के ब्लाउज और इसी रंग की साड़ी में थी। शरीर आदमी से कुछ भारी, मगर इन कपड़ों में फब रही थी। सांवलापन एक सहज कांति से भर उठा था। कुछ थोड़ी बहुत बातचीत भी उनकी सुनाई पड़ी या अनुमान लगा गया।
‘क्यों भई, किस तरफ से चलें अनु?’
‘कहीं से भी। मौसम खुशनुमा है आज तो, अच्छा लगेगा। पीछे वाली सड़क से चलें?’
‘काफी सन्नाटा-सा रहता है वहां, रास्ता भी नहीं देखा हुआ। डर तो नहीं लगेगा तुम्हें?’
‘डर...? हां जी, मुझे तो कोई उठाकर न ले जाएगा!’ वह मुस्कुराई, ‘ऐसा करो, तुम अपना नाम विजय छोड़कर पराजय रख लो, डरपोक कहीं के!’
‘दुष्ट कहीं की!’ पुरुष धीरे से हंसा।
फिर वे बात करते हुए काफी आगे निकल गए। इधर रुकी हुई महफिल भी शुरू हो गई।
‘इस उमर में कुर्ता-पायजामा तो कुछ ठीक नहीं लगता। ये तो बड़े-बुजुर्गों को ही सोहता है। एक तो वैसे ही सींकिया हो आदमी, ऊपर से... हुंह!’ राजरानी ने मुंह बनाया।
‘औरत ज्यादा मजेदार है। मौसम का मजा लेने गई है ठंडी सड़क पर, बलम जी के साथ, खी-खी-खी-खी!’ पुष्पा अपने दिल की गुदगुदी को रोक नहीं पाई थी।
‘अरे, हमें लगता है, कोई मार-मूर न डाले इन्हें। हां, और क्या? पूरा जंगल है वो। रात में तो कोई परिंदा भी वहां पर नहीं फड़कता।’ लच्छो दादी ने गर्दन हिलाकर गुस्सा जताया, ‘फिर कोई कहेगा कि पहले दिन ही ये हादसा...! बदनामी सारे मोहल्ले की होगी।’
***
उनके आपस में एक-दूसरे को बुलाने से उन्हें पता लगा कि औरत का नाम अनु है, पुरुष का विजय। दोनों का एक-दूसरे को नाम लेकर बुलाना उन्हें अजीब लगता। औरत का पति को नाम लेकर बुलाना तो करीब-करीब अश्लील ही लगता।
‘यह कोई ऐसी-वैसी औरत है!’ वे एक-दूसरे को फुसफुसाकर समझातीं। हालांकि, इसके लिए कोई खास कारण उन्हें नहीं मिलता था। उस औरत की शालीनता में कोई कमी या औरत-मर्द दोनों के व्यवहार में कहीं कोई अभद्रता उन्होंने नहीं देखी थी। वह बाहर ही दरअसल बहुत कम निकलती थी। कभी-कभी ठेले पर सब्जी बेचने आए बाबा से थोड़ी-बहुत सब्जी लेने निकलती थी। औरतें अजीब-सी निगाहों से उसे घेरने या तोलने की कोशिश करतीं, पर वह सब्जी लेकर निश्चिंत भाव से वापस आ जाती।
फिर धीरे-धीरे उन्हें पता कि काम पर आदमी ही नहीं जाता, कभी-कभी औरत भी साथ जाती है, साइकिल पर बैठकर। फिर वे साथ-साथ वापस आते हैं, किताबों से लदे हुए। आकर साथ-साथ खाना बनाने में जुट जाते हैं।
‘चाय अक्सर आदमी ही बनाता है।’ मिसेज वर्मा ने पड़ोस की औरतों को बताया, ‘कभी-कभी तो जूठे बर्तन भी साफ करता है। सच, मुझे तो बड़ा तरस आता है...’
‘हमारा मर्द तो पानी का गिलास तक अपने हाथ से न उठाए। वहीं से आवाज लगाएगा—राजराणिए... पाऽ... णीऽऽ...!’ राजरानी ने पति की नकल उतारी।
कभी-कभी वे हालचाल पता करने के लिए बच्चों को भेज देतीं। वह सांवली-सी युवती प्यार से उन्हें बिठाती और बातें करती। कभी-कभी टॉफियां या बिस्कुट भी खाने को देती। आदमी भी कभी-कभी उन बच्चों को कहानियां सुनाता, उनके साथ हंसता-बोलता रहता।
सारा दिन वे पढ़ते या लिखते, शाम को घूमने जाते और बातचीत करते। रात देर तक पढ़ते, खबरें सुनते, फिर सो जाते। वे अपने आप में पूरे थे, इस बात से सबको तकलीफ होती थी। ...वे इनका घमंड तोड़ने का कोई बहाना ढूंढ़ना चाहते थे, पर वह मिलता ही नहीं था, क्योंकि एक तो ये बोलते कम थे, फिर जब भी बोलते, विनम्रता और आदर से।
पर एक दिन औरतों को बहाना आखिर मिल ही गया। हुआ यह कि एक दिन सुबह-सुबह एक शैतान से लड़के ने परदा उठाकर अंदर का दृश्य देखा, फिर उसने दूसरे लड़कों को भी बुला लिया। दरअसल, वे दोनों अस्त-व्यस्त कपड़ों में एक-दूसरे से लगे सो रहे थे।
बच्चों का यह कौतूहल उन तक ही सीमित नहीं रहा, औरतों तक भी पहुंचा। पर जब एकाध औरत परदा उठाकर झांकने आई, तब तक वे जग चुके थे।
साड़ी ठीक करती हुई उस सांवली-सी औरत यानी अनु को बहुत गुस्सा आ रहा था। न दबाई गई नफरत से वह बोली, ‘कितने ओछे और बदतमीज है यहां के लोग!’
औरतें तो चली गईं, पर बच्चों ने घर जाकर सब हाल कहा कि आंटी रोती रहीं और देर तक अंकल समझाते रहे। कुछ ‘दकियानूस-दकियानूस’ दो-तीन दफा कहा। फिर कहा, ‘बेचारे पुराने ढंग से सोचने के आदी हैं, गुस्सा नहीं करना चाहिए।’
उधर अनु का गुस्सा तो थम गया, पर उन औरतों का नहीं। उन्होंने जाकर मोहल्ले की लीडर औरतों से भड़ककर और भड़भड़ाकर सब कुछ कहा, बल्कि सबका सवाया कहा। लीडर औरतों ने आसपास की सब औरतों को उस घटना को ड्योढ़ा और दोगुना करके बताया। सब औरतों ने रात को अपने-अपने मर्दों से कानाफूसी से दूना-तिगुना कहा।
***
सुबह मर्दों ने तय किया कि मोहल्ले में मर्यादा बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। आखिर मोहल्ले में यह अनैतिकता कब तक बर्दाश्त की जाएगी? इन्हें जरूर बोल देना चाहिए कि अगर रहना है तो हमारी तरह ठीक से रहो, नहीं तो कहीं और ठिकाना ढूंढ़ो!
पर मि. वर्मा और बंतो का पति हवासिंह—दोनों शामिल नहीं हुए। उन्हें शुरू से ही यह ज्यादती लग रही थी कि किसी को अकेला देखकर सब उस पर वार करने लगें। फिर भी प्रत्यक्ष विरोध उन दोनों ने नहीं किया। दिनेशकुमार, सोहनलाल और ठाकुर ज्ञानसिंह से कहा कि वे ही पूरे मोहल्ले के प्रतिनिधि बनकर हो आएं। पूरी भीड़ के जाने की क्या जरूरत है?
आखिर तीनों धड़धड़ाते हुए गए और जाकर जोरों से दरवाजा खटखटा दिया। दरवाजा औरत ने खोला। बिना सकपकाए हुए, मुस्कुराकर कहा, ‘आइए...!’
‘वो...मास्टर जी हैं?’ उनकी समझ में कुछ और नहीं आया तो उसके दिन भर पढ़ने-लिखने की आदत को याद करके अचानक ही ‘मास्टर जी’ उन्होंने कहा।
‘हां-हां, आप बैठिए। विजय, देखो, ये मिलने आए हैं।’ औरत ने निर्भ्रांत भाव से पुरुष को बुलाया। पुरुष आया, हाथ में पैन और किताब लिए हुए। उसी तरह प्रसन्नचित्त, जैसे वह हमेशा रहता था। हंसते हुए बोला, ‘आप लोगों ने बड़ी मेहरबानी की। कहिए, कैसे आना हुआ?’
‘कुछ नहीं, वैसे ही। सोचा, थोड़ा मिल आएं। ...आखिर हम एक ही मोहल्ले के हैं।’ दिनेशकुमार ने अवसर के अनुकूल यथासंभव आवाज को दबाया।
‘क्यों नहीं, क्यों नहीं! बड़ी खुशी की बात है। ...चाय पिएंगे?’ फिर बिना उनका जवाब सुने, भीतर आवाज लगाई, ‘अनु, चाय बनाओ भई!’
‘आप जूनावस्टी में हैं?’ ठाकुर ज्ञानसिंह ने जानना चाहा, ‘दिन भर पढ़ते ही रहते हैं ...किताबें ही किताबें।’
‘हां, काम ही कुछ ऐसा है।’ पुरुष ने हंसकर कहा।
‘क्या काम करते हैं जी आप...?’
‘यों समझिए... कि घास खोदता हूं। वैसे जो काम मैं करता हूं, उसे रिसर्च कहते हैं, यानी नई बात खोजना। लेकिन नया-वया कुछ नहीं, घास खोदनी पड़ती है रात-दिन।’ वह हंसा।
इतने में चाय आ गई। सांवली-सी युवती ने सबको चाय दी, फिर खुद भी एक कप लेकर कुर्सी पर बैठ गई। यह उनके लिए अप्रत्याशित था, वे ज्यादा कांशस हो गए और बात करने की भूमिका तलाशने लगे। इतने में आदमी ने परिचय कराया, ‘अनु, देखो भई, ये अपने मोहल्ले के लोग आए हैं—दिनेश जी, सोहनलाल जी और ये हैं ठाकुर ज्ञानसिंह जी।’
औरत ने बारी-बारी से नम्रतापूर्वक हलका-सा सिर झुकाते हुए उन्हें नमस्कार किया। फिर बोली, ‘यह तो सौभाग्य है हमारा, जो आप खुद मिलने आए।’
‘आप... आप कौन जात हैं?’ चाय पीते हुए बड़ा साहस करते ठाकुर ज्ञानसिंह ने पूछा।
‘हम जात-पांत को नहीं मानते।’ पुरुष के चेहरे पर अप्रत्याशित कठोरता आ गई थी।
थोड़ी देर बाद सोहनलाल ने मौन तोड़ा, ‘यूनिवर्सिटी में तो बहुत लोग काम करते होंगे, विजय साहब।’ वह मन ही मन कुछ कहने की भूमिका बना रहा था।
‘बहुत लोग काम करते हैं। अरे, आपके इत्ते नजदीक है यूनिवर्सिटी, कभी ठीक से देखी नहीं क्या?’ विजय ने अपने आक्रोश को कम करते हुए यथासंभव सहज होने की चेष्टा की।
‘बस साहब, कामकाजी आदमी हैं, दुकान से फुर्सत ही नहीं मिली।’ सोहनलाल ऊपरी ढंग से हंसा। फिर असल बात पर आ गया, ‘साहब, हमारे साले को भी कहीं लगवा दीजिए। बी.ए. पास है, क्लर्क ही लग जाए।’ उसने दीन भाव से कहा।
‘भई, सिफारिश की तो मेरी औकात ही क्या है, दूसरे मैं इसे मानता नहीं हूं। वांट्स निकलती हैं, उसे एप्लाई करना चाहिए। हां, अगर पढ़ने में किसी मदद की जरूरत हो तो यहां भेज दीजिए। मैं या अनु पढ़ा दिया करेंगे।’
‘बीबी जी भी पढ़ी हुई हैं क्या?’ ठाकुर ने हैरानी से पूछा।
‘हां, मेरे बराबर ही। बल्कि मुझसे एक कदम आगे। इनका एम.ए. में फर्स्ट डिवीजन है, मेरा सेकंड...!’ पुरुष हंसा। ‘इसलिए ये घर के कामकाज रोब डालकर मुझसे करवा लेती हैं। कहती हैं, हर चीज बराबरी की होनी चाहिए।’
‘ये तो ज्यादती है साहब इनकी।’ ठाकुर साहिब मूंछों के बीच से हंसते हुए बिल्कुल बच्चों जैसे लग रहे थे।
‘नहीं साहब, ज्यादती तो हम लोगों की, हम आदमियों की हजारों सालों से रही है। इससे दिमाग ऐसा उलटा बन गया है कि ये उस ज्यादती का विरोध करती हैं तो हमें अजीब लगता है या कि ज्यादती लगती है, जबकि इसमें कोई गलती नहीं है। यह न्याय का सवाल है। ...आखिर वे भी हमारे जैसे ही हाड़-मांस की हैं, उनमें भी दिल है, दिमाग है। वे किस बात में हमसे कम हैं?...’ विजय ने बोलना शुरू किया तो बोलता ही चला गया।
पता नहीं, उन्हें कितना समझ में आया, पर विजय के चेहरे के आवेश को देखकर वे त्रस्त हो गए थे।
फिर वे उठे, नमस्कार किया और चल दिए। वे इस आदमी से ऊपरी तौर से असहमत थे, पर भीतर उसकी सच्चाई और सवालों का जवाब नहीं ढूंढ़ पा रहे थे।
घर आकर उन्होंने अपनी औरतों से कुछ कहा, कुछ नहीं कहा। उस दिन के बाद वहां औरतों का जमघट लगना बंद हो गया। अलबत्ता बच्चे इस घर में कभी खेलने, कभी कहानियां सुनने और टॉफियां खाने आते रहे।