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पौराणिक आख्यानों में कांवड़ यात्रा की कथाएं

07:07 AM Jul 10, 2023 IST
पौराणिक आख्यानों में कांवड़ यात्रा की कथाएं
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कौशल सिखौला
आखिर वह कौन था जिसने कांवड़ उठाकर पहली बार हर की पैड़ी के गंगाजल से भगवान भोलेनाथ का महा जलाभिषेक किया था? किसने उठाई थी पहली कांवड़? पवित्र श्रावण मास में गंगाजल की महायात्रा का पहला वाहक कौन बना था? ये कुछ सवाल हैं जो बार-बार पूछे जाते हैं। आज श्रावण कृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से लेकर शिवरात्रि तक हरिद्वार से गंगाजल भरकर करोड़ों कांवड़िए देश भर में जलाभिषेक करते हैं। आखिर ऐसा क्या है कि श्रावण लगते ही हर कोई शिव भक्ति में झूमने लगता है। देश के कोने-कोने से शिवभक्त अपनी कांवड़ में गंगाजल भरने गंगोत्री से हरिद्वार की ओर चल पड़ते हैं। इसके साथ ही संपूर्ण भारतवर्ष शिवमय हो जाता है।
गंगा के पत्थरों से शिवलिंग स्थापना
दरअसल, कावंड यात्रा के आरंभ को लेकर अनेक पौराणिक आख्यान विद्यमान हैं। कांवड़ यात्रा से जुड़ी प्रचलित कथा के अनुसार, पहली कांवड़ त्रेतायुग में विष्णु के अवतार परशुराम ने चढ़ाई थी। उन्होंने ही हर की पैड़ी से पत्थर निकालकर शिवलिंग की स्थापना पुरा महादेव के रूप में की थी। पौराणिक विद्वान आचार्य बृहस्पताचार्य के अनुसार, अत्याचारी राजाओं का दलन कर परशुराम ने हर की पैड़ी पर आकर गंगा से पत्थर निकाले। तब गंगाजी से अलग होने के दुःख में समस्त पाषाण रो पड़े। इसके उपरांत भगवान परशुराम ने आश्वासन दिया कि श्रावण मास में वे पहली कांवड़ स्वयं ले जाकर गंगा से निकाले गए शिव लिंगों से गंगा का मिलन कराएंगे। मान्यता है कि गंगा को दिया वचन निभाते हुए आज भी श्रावण के पहले दिन भगवान परशुराम पहली कांवड़ भरने हर की पैड़ी आते हैं।
राजा सहस्रबाहु का प्रसंग
एक अन्य पौराणिक कथानक के अनुसार, प्राचीन काल में एक बार राजा सहस्रबाहु ऋषि जमदग्नि के आश्रम में आए। दरअसल, राजा सहस्रबाहु अपनी सेना के साथ एक युद्ध के उपरांत लौट रहे थे और पानी पीने के लिए वहां रुक गए। राजा सहस्रबाहु यह देखकर हैरान रह गए कि ऋषि ने कुछ ही समय में उन्हें तथा उनकी पूरी सेना को और उनके हाथी-घोड़ों को भोजन करा दिया था। राजा सहस्रबाहु के पूछने पर पता चला कि ऋषि के पास कामधेनु नाम की दिव्य गाय है। उससे जो मांगो वह पल भर में सब कुछ प्रदान कर देती है।
प्रायश्चित से जुड़ी कथा
गाय के दिव्य गुणों के बारे में सुनकर सहस्रबाहु के मन में उसी पल लालच आ गया। लालच से वशीभूत राजा सहस्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु मांगी। लेकिन ऋषि ने राजा को स्पष्ट मना कर दिया। कहा जाता है कि इस बात से कुपित होकर सहस्रबाहु ने जमदग्नि ऋषि की हत्या कर दी। यह जानकारी जब ऋषिपुत्र परशुराम को मिली तो बेहद व्यथित और क्रुद्ध हुए। प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे ऋषिपुत्र परशुराम ने सहस्रबाहु की हत्या कर दी। कहा जाता है कि कालांतर अपनी तपस्या के प्रभाव से ऋषिपुत्र परशुराम ने पिता जमदग्नि को पुनर्जीवित कर दिया। लेकिन इस घटनाक्रम के उपरांत पिता ने कहा कि अब सहस्रबाहु की हत्या का पश्चाताप तो तुम्हें करना ही पड़ेगा। इसके लिए ऋषि ने अपने आश्रम के पास गंगा से पत्थर लाकर शिवलिंग स्थापना का आदेश दिया।
पत्थरों का रुदन
कालांतर ऋषिपुत्र परशुराम ने ऐसा ही किया और हर की पैड़ी से शिवलिंग लेकर पुरा में शिवलिंग की स्थापना की। बताते हैं कि गंगा के आंचल में रहने वाले पाषाण अपने साथी के गंगा से अलग होने पर रोने लगे। पत्थरों ने ऋषिपुत्र परशुराम से अनुनय-विनय की कि उसे मां गंगा से अलग न करो।
शिव चौदस को जलाभिषेक परंपरा
बताते हैं कि तब ऋषिपुत्र परशुराम ने कहा कि प्रत्येक सावन में वे स्वयं कांवड़ उठाएंगे और पुरा महादेव में जलाभिषेक करेंगे। जहां परशुराम ने शिव लिंग स्थापित किया वह स्थान आज पुरा महादेव कहलाता है और शिवरात्रि के दिन लाखों श्रद्धालु यहां कांवड़ चढ़ाने आते हैं। ऋषि ने फिर कहा कि आने वाले श्रावण मास में हर की पैड़ी से जल लाकर पुरा में स्थापित शिव लिंग का अभिषेक करो। परशुराम ने पहली कांवड़ उठाई और शिव चौदस के दिन जलाभिषेक किया। तभी से यह परम्परा श्रावण मास में चली आ रही है। बता दें कि फागुन की शिवरात्रि पर भी कांवड़ चढ़ाई जाती है।

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