प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन रोकें
हाल ही में जापान में एशिया प्रशांत सप्ताह का समापन इस संदेश के साथ हुआ कि जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान की दिशा में नवम्बर 2021 में ग्लासगो में आहूत संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में किये जाने वाले क्षेत्रीय प्रयास सफलता में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि मानव गतिविधियां, पूर्व औद्यौगिक स्तर से वर्तमान में 1.0 डिग्री ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने का प्रमुख कारण रही हैं। यदि यह इसी दर से बढ़ती रही तो 2030 से 2052 के बीच यह 1.5 डिग्री हो जायेगी।
इसके चलते भूमि और महासागरों के औसत तापमान में बढ़ोतरी होगी। कई क्षेत्रों में भारी वर्षा होगी, भयंकर सूखे के हालात पैदा होंगे, समुद्री जलस्तर बढ़ेगा, इससे तटीय समुद्री द्वीप व निचले तटीय देश सर्वाधिक प्रभावित होंगे और डेल्टाई क्षेत्र डूबने के कगार पर पहुंच जायेंगे। जैव विविधता की हानि होगी, जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित होगी, प्रजातियों की विलुप्ति की दर में और समुद्री जल में अम्लता की दर में तेजी से बढ़ोतरी होगी। आर्कटिक की बर्फ पिघलने की दर तेजी से बढ़ेगी और मत्स्य पालन में भारी नुकसान होने की आशंका बलवती होगी। कोरल व मूंगा की चट्टानें के नष्ट होने की दर में बढ़ोतरी होगी। साल 2100 तक 1.5 डिग्री तक ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए 100 से 1000 गीगाटन के बीच कार्बन डाईआक्साइड को घटाना होगा।
असल में यह रिपोर्ट कृषि अपशिष्ट, कोयला खनन, मीथेन पर एक नये विज्ञान को समझने की बेहद जरूरत का खुलासा करती है। इसे अभी तक लगभग एक-चौथाई वैश्विक तापमान के लिए जिम्मेदार होने के बावजूद नीति निर्माताओं ने बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि वैश्विक तापमान वृद्धि से लम्बे समय से बचने का एक तरीका नवीकरणीय ऊर्जा की ओर जाना है।
यह कटु सत्य है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के आधे से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार है। इसे यदि वैश्विक आबादी के स्तर पर देखें तो यह वैश्विक आबादी के एक महत्वपूर्ण अनुपात के साथ दुनिया के सबसे अधिक तेजी से विकासशील क्षेत्रों में से एक है। गौरतलब यह है कि इसी क्षेत्र में ऐसे बहुतेरे छोटे-छोटे द्वीप हैं, जिनका अस्तित्व आज समुद्री जल स्तर में बढ़ोतरी के चलते खतरे में है।
जलवायु सप्ताह के अंत में जापान के पर्यावरण मंत्रालय के उपमहानिदेशक सुश्री केइको सेगावा ने कहा कि एशिया प्रशांत क्षेत्र को दुनिया के डिकार्बनाइजेशन के लिए एक प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए।’ आज जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव समूची दुनिया के लिए भीषण समस्या है। दरअसल जलवायु परिवर्तन आज एक ऐसी अनसुलझी पहेली है, जिससे हमारा देश ही नहीं, समूची दुनिया जूझ रही है। जलवायु परिवर्तन और इससे पारिस्थितिकी में आये बदलाव के चलते जो अप्रत्याशित घटनाएं सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए इस बात की प्रबल संभावना है कि इस सदी के अंत तक धरती का काफी हद तक स्वरूप ही बदल जायेगा। इस विनाश के लिए जल, जंगल और जमीन का अति दोहन जिम्मेवार है। बढ़ते तापमान ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। वैश्विक तापमान में यदि इसी तरह बढ़ोतरी जारी रही तो इस बात की चेतावनी तो दुनिया के शोध अध्ययन बहुत पहले ही दे चुके हैं कि आने वाले समय में विश्व में 2005 में दक्षिण अमेरिका में तबाही मचाने वाले आये कैटरीना नामक तूफान से भी भयानक तूफान आयेंगे। सूखा और बाढ़ जैसी घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी।
तापमान में बढ़ोतरी की रफ्तार इसी गति से जारी रही तो धरती का एक-चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तबदील हो जायेगा। दुनिया में भयंकर सूखा पड़ेगा। इससे दुनिया के 150 करोड़ लोग सीधे प्रभावित होंगे। इसका सीधा असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन, और पेयजल पर पड़ेगा। अधिसंख्य आबादी वाले इलाके खाद्यान्न की समस्या के चलते खाली हो जायेंगे और बहुसंख्य आबादी ठंडे प्रदेशों की ओर कूच करने को बाध्य होगी। अनउपजाऊ जमीन ढाई गुणा से भी अधिक बढ़ जायेगी। इससे बरसों से सूखे का सामना कर रहे देश के 630 जिलों में से 233 को ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ेगा। तात्पर्य यह कि देश में पहले से सूखे के संकट में और इजाफा होगा। ऐसी स्थिति में जल संकट बढ़ेगा।
समस्या यह है कि हम अपने सामने के खतरे को जानबूझ कर नजरअंदाज करते जा रहे हैं जबकि हम भली भांति जानते हैं कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारों की इस ओर किसी किस्म की सोच ही नहीं है। निष्कर्ष यह कि जब तक जल, जंगल और जमीन के अति दोहन पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक जलवायु परिवर्तन से उपजी चुनौतियां बढ़ती ही चली जायेंगी और उस दशा में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष अधूरा ही रहेगा।