अब भी जीवंत-स्पंदनशील पटियाला
डॉ. ज्ञानचंद शर्मा
पटियाला मेरी जन्मभूमि है और कर्मभूमि भी। मेरी आयु का आधे से अधिक भाग वहीं व्यतीत हुआ है। पटियाला छोड़े कोई चालीस वर्ष होने को हैं परंतु आज तक भूल नहीं पाया हूं। मैं इस के गली-मोहल्लों में खेला-कूदा हूं, बाज़ारों में घूमा-फिरा हूं। यहां का कण-कण मेरा वाक़िफ़ है।
बात करते हैं सत्तर-अस्सी वर्ष पहले के पटियाला की। जब यह नगर बड़े-बड़े नौ दरवाज़ों की परिधि में बसा हुआ था। उन में से चार दरवाज़े सनौरी, घलहौड़ी, लाहोरी और नाभा मात्र नाम शेष हैं। शेरांवाला दरवाज़े का रूप बदल गया है। बाक़ी चार सामानिया, सुनामी, सरहंदी और सैफाबादी, थोड़ी देखभाल से अपने पुराने रूप में सुरक्षित हैं। एक दरवाज़ा, दर्शनी दरवाज़ा, नगर के बीचों-बीच है। इससे निकलते ही सामने भगवान शिव के दर्शन होते हैं, पृष्ठभूमि में क़िला मुबारक का भव्य बुलंद दरवाज़ा है। इन दरवाज़ों के बाहर भी उस समय के कुछ महत्वपूर्ण स्थल हैं। जैसे सामानिया गेट के बाहर महेंद्रा कॉलेज और पुराना राज निवास—मोती बाग, जहां अब एनआईएस है। सुनामी गेट के बाहर फ़ील (हाथी) खाना, पोलो ग्राउंड और स्टेडियम, नाभा गेट के बाहर लीला भवन और भूपेन्द्र नगर, शेरांवाला गेट के बाहर सिटी हाईस्कूल (जहां अब कोई सरकारी दफ़्तर है)। काली देवी मंदिर, जिसके कारण शेरांवाला नाम रखा गया और मां राजराजेश्वरी ब्रजेश्वरी (चिट्टी देवी) मंदिर, जिसके सामने दो बहुत गहरे तालाब थे। सड़क के एक किनारे पर पटियाला स्टेट बैंक का भवन, जो अब एसबीआई का क्षेत्रीय मुख्यालय है। दूसरे सिरे पर पुराने सचिवालय की बिल्डिंग है जहां अब बिजली बोर्ड का मुख्यालय है। साथ ही मालवा सिनेमा और थोड़ी दूरी पर तब के हाईकोर्ट का भवन है।
इधर जहां कभी लाहौरी गेट था, उसके बाहर महिलाओं के लिए लेडी डफ़रिन अस्पताल था। जिसे अब नया नाम माता कौशल्या देवी अस्पताल दिया गया है। साथ वाला भवन तब राजेंद्र अस्पताल था, जो बाद में सामाना रोड पर स्थानांतरित कर दिया गया। दाईं ओर सामने रेलवे स्टेशन है, जहां से तब सामाना के लिए तब रोज़ ‘रेलवे आउट एजेंसी’ की बस चलती थी।
सैफ़ाबादी गेट के बाहर लकड़ी मंडी आज भी है। हां, जलावन और पशु-चारे के गड्ढे अब कम दिखाई पड़ते हैं। सनौरी गेट के बाहर बनी मिर्च मंडी में जहां आसपास से मिर्च के व्यापारी और उत्पादक माल बेचने के लिए यहां आते थे। सनौर की ख़ास पीली मिर्च भी यहां लाई जाती थी।
शेरांवाला गेट से चलें तो थोड़ी ही दूरी पर जो छज्जे वाले चौबारे हैं। वहां अपने समय के मशहूर गायक अलिया-फ़त्ता (अली मोहम्मद, फ़तेह अली) रहा करते थे। वे जब सुबह-सुबह रियाज़ करते तो नीचे संगीत प्रेमियों की भीड़ जमा हो जाती थी। आगे चलकर धर्मपुरा बाज़ार शुरू होता है। साथ ही नगरपालिका का पुराना दफ़्तर है। बाईं ओर के चौबारे तवायफों के थे। यह सिलसिला नारदाना चौक तक फैला था जहां ‘मीर जान’ की पट्टिका लगी थी। यह मीर जान महाराज की बहुत चहेती थी। इसके नाम से अनेक क़िस्से प्रचलित थे। नीचे सड़क पर आने-जाने वालों के शोर से उसे बहुत तकलीफ़ होती थी। मीर जान ने नारदाना चौक से तवक्कली मोड़ तक सब आवाजाही बंद करवा दी। असुविधा की लोगों ने बड़े वज़ीर ख़लीफ़ा जी से शिकायत की। ख़लीफ़ा तुरंत अपनी चार घोड़ोंवाली बग्घी पर सवार होकर वहां पहुंचे। मीर जान ने छज्जे से देखा, ख़लीफ़ा जी थे, मन मार कर रह गई। सड़क पर आवाजाही फिर चालू हो गई।
एक और क़िस्सा है, किसी बात पर खुश होकर महाराज ने अपने वज़ीर ख़ज़ाना पंडित नौधा मिश्र से शाही नौलखा हार मीर जान को देने को कहा। उस समय तो पंडित जी ने ‘जो हुक्म सरकार’ कह कर हामी भर दी पर मीर जान को वह हार दिया नहीं। मीर जान के महाराज से शिकायत करने पर वज़ीर ने कहा ‘हुज़ूर, वह हार तो ख़ानदानी है, नई ब्याह कर आई रानी को सिर्फ़ एक रात के लिए दिया जाता है, अगले दिन वापस लेकर फिर ख़ज़ाने में जमा करवा दिया जाता है। रानियों की इस अमानत को मैं रनिवास के बाहर किसी को नहीं दे सकता।’ महाराज समझ गए, उन्होंने किसी बहाने मीर जान को टाल दिया।
नारदाना चौक नगर का एक महत्वपूर्ण संगम-स्थल है। जहां जौड़ी भट्टियां, अनाज मण्डी, बहेड़ा रोड और सुनामी गेट से आने वाली सड़कें आ कर मिलती हैं। आगे अदालत बाज़ार है। बाज़ार के शुरू में ही शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजनालय थे। शाकाहारी भोजनालय में तवे पर बना लकड़ी की आंच में सिका फुल्का एक पैसे का एक, एक आने के चार, दाल-सब्ज़ी मुफ़्त साथ में मिर्च-प्याज़ भी। मांसाहारी ‘होटल’ होते थे जिन्हें प्रायः स्त्रियां चलाती थीं। होटल के आगे तोते का पिंजरा टंगा रहता यही इन की पहचान थी। यहां हर दम तंदूर तपा रहता गाहक के आने पर रोटी सेंक दी जाती। अब ये सब अतीत हो गया है।
पटियालवियों का मन भाता नाश्ता, बेहडमी (पीठी युक्त मैदे की पूरी) और दही की लस्सी भी यहां मिलती थी। एक आने की दो बेहडमी और तीन आने का लस्सी का पौन फुटा गिलास, चार आने में नाश्ता पूरा। दोपहर ढले समोसे और ख़स्ता कचौरी का समय होता था। शाम को तरह-तरह का रायता और रबड़ी मिलती थी। बाज़ार में आगे कुछ दुकानें बजाजे की और एक-दो सराफ़े की थीं जिन में ख़ूब भीड़ रहती थी। अब यह भीड़ दर्ज़ियों वाली गली में भी दिखाई देती है। गली में प्रवेश करते ही बाईं ओर जो पुराना भवन है वहां प्रथम तल पर बड़े से नाम वाली एक लाइब्रेरी थी, जो अब अपना नाम पीछे छोड़ कर पुरानी कोतवाली चौक में बनी नई बिल्डिंग में स्थानांतरित हो चुकी है। थोड़ा और चलें तो दायें हाथ मुड़ कर तोपख़ाना मोड़ आता है। दाईं ओर पटियाला की पहचान देसी जूती बनाने वाले कारीगर अपने काम में लगे दिखाई देंगे।
सीधा चलें तो सामने बड़ा-सा गोलाकार वाटर टैंक है, शहर में ऐसा ही दूसरा टैंक कच्चा पटियाला में भी है। इनका डिज़ाइन अपने समय के विख्यात इंजीनियर सर गंगा राम द्वारा तैयार किया गया था। इन टैंकों से सारे नगर को जल की आपूर्ति होती थी केवल छह आने प्रति मास में। तब पटियाला पंजाब क्षेत्र के उन गिने-चुने शहरों में से एक था जहां घर घर नल-जल की उपलब्धता थी। यहां सार्वजनिक स्थानों पर भी डिज़ाइनदार नल लगाये गये थे।
पास ही शाम को दातुन वाले आ बैठते। वे जंगल से कीकर की अढ़ाई-तीन फ़ीट की छड़ियां छांटकर लाते, यहां साफ़ कर बेचते, एक आने की पूरी छड़ एक पैसे का बालिश्त भर टुकड़ा। घर-घर भी छोड़ कर आते, पैसे महीने भर बाद में। उन दिनों मुंह साफ़ करने के लिए अधिकतर दातुन का ही प्रयोग किया जाता था। मुंह में दातुन हाथ में पानी का लोटा लिये लोग घर के बाहर चबूतरे पर आ बैठते और दातुन करते करते इधर उधर की सब बातों पर चर्चा हो जाती। हम वाटर टैंक के पास थे। यहां से बाईं ओर जाने वाली सड़क पर कपड़े की, पंसारी, मनियारी की दुकानें अब भी हैं परंतु नमदों की दुकानें अब नहीं हैं। उनके मालिक देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये। मोड़ से शुरू होने वाले बाज़ार का नाम शाहनशीं बाज़ार था। अब यह सदर बाज़ार ही है। यहां क़िले के बाईं ओर की दीवार के नीचे बनी नज़ूल की दुकानों की साथ की दुकान में गायन-वादन का सामान उपलब्ध था। इसके सामने सड़क पर आवाज़ लगा लगा कर एक व्यक्ति पुराने ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड बेचा करता था। आख़िर में अख़बार-रसालों की दुकान थी। उन दिनों समाचारपत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने वाले पाठकों की गिनती नगण्य थी। सामने वाली पंक्ति में बाला-चरंजी की मशहूर देसी घी की मिठाइयों की दुकान थी। यहां लेखन सामग्री और पुस्तकों की दो-तीन दुकानें थीं, अब नहीं हैं।
यहीं सिरे पर एक बड़ा खुला-सा मैदान था। यहां कभी कोतवाली रही होगी तभी इस जगह का नाम कोतवाली चौक पड़ा। स्वतंत्रता के पूर्व यहां राजनीतिक दल अपने जलसे किया करते थे। शाम को एक भीमाकार व्यक्ति अपने अनुरूप हलवे की भरी बड़ी-सी परांत लिए कोने में बैठा होता था। यह हलवा आने-दो आने में दोना भर मिलता। मैदान के एक बहुत बड़े भाग में एक सरकारी बिल्डिंग है बाक़ी को फुटकर विक्रेताओं ने घेर रखा है। सामने जूतों और पटियाला के मशहूर नाले-परांदों का बाज़ार है। यहां फ़ैक्टरी में बने जूतों के अतिरिक्त पटियाला में कोई डेढ़ सौ साल पहले राजस्थान से आए चर्म शिल्पियों के वंशजों के हाथों बनी ख़ास पटियालवी देसी जूती भी मिलती है।
पटियाला के नाले-परांदों का ज़िक्र तो लोकगीतों तक में भी आता है—‘जे जिंदवा जावें तूं पटियाले, ओथों लयावीं रेशमी नाले, अद्धे चिट्टे ते अद्धे काले।’ पंजाब के ख्याति प्राप्त लोकगायक आसा सिंह मस्ताना के गाए लोकगीत में ‘गुत्त परांदे’ का बड़ा आकर्षक चित्रण है—
काली तेरी गुत्त ते परांदा तेरा लाल नी, रूप दीए रानिए परांदे नूं संभाल नी।
नाले बुनना यहां की बहुत-सी स्त्रियों का शौक़ भी था और व्यवसाय भी। यह एक प्रकार का घरेलू उद्यम था। ‘गुत्त परांदे’ स्वयं दुकानदार तैयार कर लेता था। नये फ़ैशन की आंधी इन के प्रचलन को ले उड़ी।
सामने क़िला चौक है शहर की धड़कन। एक विस्तृत प्रांगण जो कभी छोटे-मोटे दुकानदारों ने अवैध रूप से घेर रखा था, उनसे ख़ाली करवाकर वहां एक छोटा सा पार्क बना दिया गया है। इसक बाईं ओर कोतवाली का परिसर है और दाएं हाथ सन् 1917 ई. में स्थापित हुए बैंक ऑफ़ पटियाला का हैड ऑफिस और लेन-देन का काउंटर था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय पंजाब की सभी रियासतों को मिला कर बने पैप्सु में यह स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला हो गया। हैड ऑफिस शेरांवाला गेट के बाहर बने नये भवन में शिफ़्ट हो गया। कुछ समय पूर्व इस का विलय स्टेट बैंक इंडिया में हो गया।
सामने के बाज़ार में गोटा किनारी और इसके काम की दुकानें थीं जिसका प्रचलन अब न के बराबर है। चौक में एक ‘सौ साला पुरानी बर्तनों की दुकान’ है जो पिछले साठ-सत्तर साल से सौ साला पुरानी ही है। इस के बग़ल वाली गली में ठठेरों की दुकानें थीं।
पटियाला के थोक व्यापार केन्द्र गुड़ मंडी-कटड़ा नौहरियां में बरसों से गुड़ शक्कर चीनी, चाय पत्ती, घी तेल, किराना पंसारी के थोक विक्रय का कारोबार चल रहा है। सामने कोने में मिसरी-बताशे बनाने की दो दुकानें थीं। इस कारण इसे ‘मिसरी बाज़ार’ नाम मिला। आगे दाल दलियां चौक है। सीधी सड़क शाही समाधां, हनुमान मंदिर, बागीची काले मुंह वाले की, सामानीया गेट होते हुए महेंद्रा कॉलेज मोती बाग (अब एनआईएस) की ओर जाती है। बाएं हम घल्होड़ी दरवाज़े की तरफ़ जाते हैं और दाएं दाल दलियां बाज़ार है जहां दिन भर दलेरों (छोटी चक्की) की आवाज़ सुनाई देती थी। अब दलेरों की आवाज़ ख़ामोश है। यही हाल साथ लगते ढक्क बाज़ार का है। पहले यहां ढाक (पलाश) की लकड़ी के गट्ठे लिए लोग खड़े रहते। अब पलाश वन ही नहीं तो लकड़ी कहां से आयेगी? लाहौरी गेट से शहर की ओर जाते हुए थोड़ी दूरी पर बाएं गोशाला रोड है जो दूसरी ओर शेरांवाला गेट से आने वाली सड़क से जा मिलती है। बग़ल वाली प्रैस रोड है जहां अभी हाल तक सरकारी छापाख़ाना था। पास ही पुराने के स्थान पर नया बना आयुर्वेदिक अस्पताल और फ़ार्मेसी है।
गोशाला मोड़ से आगे बढ़ते ही दायें हाथ चर्च है। थोड़ी दूरी पर पुनरुद्धार किया हुआ विश्वकर्मा मन्दिर है। शहर के सबसे पुराने स्कूलों में गिना जाने वाला सनातन धर्म हाई स्कूल (अब हायर सैकंडरी) भी इसी सड़क पर है। दायें आर्य समाज मंदिर, उसके साथ लगता पार्क सामने का चौक, बाज़ार शहर का बहुत ही व्यस्त केंद्र है। एक सड़क है जो इसे मुख्य बाज़ार से जोड़ती हैं। यह मंदिर सत्य नारायण से दो सड़कों में बंट जाती है। एक सड़क त्रिवेणी चौक, मोड़ कटड़ा साहब सिंह सेवा समिति स्कूल से अरना बरना चौक पहुंचती है और दूसरी कच्चा पटियाला, आर्य स्कूल होती हुई यहां आ मिलती है। अरना बरना चौक को मुख्य बाज़ार से जोड़ने वाली तीन सड़कें हैं, बायें साइकिल मार्केट, छत्ता मगनी राम, अचार बाज़ार और सरहिंदी बाज़ार होते हुए हम दर्शनी गेट पहुंचते हैं।
दूसरी ओर दो सड़कें हैं, एक घेर सोढियां, डूमां वाली गली से शाहनशीं बाज़ार से जा मिलती है और दूसरी जोड़ी भट्टियां चौक से फिर बंट कर एक दर्ज़ियों वाली गली में से होकर अदालत बाज़ार पहुंचती है तो दूसरी गर्ल्स हायर सेकंडरी स्कूल, जो कभी सिटी प्राइमरी स्कूल के नाम से जाना जाता था, जिसके प्रांगण में हम रोज़ ख़ूब धमा-चौकड़ी मचाते थे, से नारदाना चौक से जा मिलती है। पटियाला नगर एक स्पंदनशील जैविक इकाई है। सभी सड़कें और बाज़ार इसके अवयव हैं। गलियां-मोहल्ले इसकी प्राण-वाही शिराएं हैं जिनके कारण पटियाला पटियाला है।