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वोट में रहें आगे

07:15 AM May 28, 2024 IST

राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं को तीन तरफ से छूने वाले हरियाणा में लैंगिक समानता और लोकतांत्रिक संस्थाओं में महिलाओं की सक्रियता को धीरे-धीरे प्रोत्साहन मिला है। वह बात अलग है कि कुछ परंपराएं व रूढ़ियां लैंगिक समानता के लक्ष्यों को पाने में बाधक बनी हैं। भारतीय कृषि प्रधान समाज कमोबेश परंपराओं व संस्कारों के प्रति आग्रही रहे हैं। वह बात अलग है कि धीरे-धीरे शिक्षित-विकसित होते समाज में नई पीढ़ी की बेटियों ने बदलाव की नई इबारत लिखी है। यही वजह है कि देश की सेना से लेकर खेलों की दुनिया में हरियाणवी बेटियों ने सफलता के नये मुकाम तय किये हैं। धीरे-धीरे लैंगिक असंतुलन भी कम हुआ है। लेकिन कई इलाकों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में रूढ़िवादिता और मायके के आग्रह के चलते व्यवधान उत्पन्न होने की बात कही जाती रही है। इसका उदाहरण हरियाणा में हाल में संपन्न दस लोकसभा सीटों के चुनाव में कतिपय क्षेत्रों में नजर भी आया है। हालांकि, इस मतदान के नतीजे चार जून को आएंगे, लेकिन कुछ नकारात्मक संकेत पहले ही दृष्टिगोचर हुए हैं। दरअसल, इन चुनावों में पहली बार मतदान करने वाले युवा मतदाताओं में महिला मतदाताओं की संख्या निराशाजनक कही जा रही है। चुनाव आयोग के आंकड़ों का चौंकाने वाला तथ्य यह है कि पहली बार मताधिकार पाने वाले युवाओं में महिलाओं की संख्या मात्र 34 प्रतिशत दर्ज की गयी। जो निश्चित रूप से लैंगिक असंतुलन की ओर इशारा करता है। उल्लेखनीय है कि इन लोकसभा चुनावों में पहली बार मतदान करने वाले वोटरों की संख्या 4.2 लाख थी। जिसमें युवा पुरुषों की संख्या 2.8 लाख रही है। इसकी पीछे सोच यह बतायी जाती है कि बेटियों की राजनीतिक रूप से सक्रियता उनके विवाह होने तक स्थगित की जाती है। जो कि सामाजिक पूर्वाग्रहों को ही उजागर करती है। जिसके मूल में समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच बतायी जाती है। जिसकी वजह से युवा महिलाओं के मतदाता पंजीकरण को प्रोत्साहित करने के अधिकारियों के प्रयासों को विरोध का सामना करना पड़ता है।
दरअसल, सामाजिक पूर्वाग्रहों व पितृसत्तात्मक सोच के चलते कई ग्रामीण व कृषक परिवारों में बेटी की राजनीतिक अभियान में सक्रिय भागीदारी के बजाय विवाह को प्राथमिकता दी जाती है। जिसके चलते मताधिकार से वंचित होने का चक्र मजबूत होता है। उस समय यह स्थिति शोचनीय व सीमित हो जाती है, जब पुरुष उनके मताधिकार के निर्णय व प्रत्याशी की पसंद को तय करते हुए देखे जाते हैं। इसके अलावा चुनावी मैदान में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी उतना ही विषम है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस बार हरियाणा में आम चुनावों में नाममात्र के लिये ही महिला उम्मीदवारों को टिकट दिए गए हैं। आम चुनाव में कुल 223 उम्मीदवारों में से केवल 16 महिला प्रत्याशी ही खड़ी थीं। जिनमें से पांच मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं। विडंबना देखिए कि यह स्थिति तब है जब राज्य में आधी दुनिया के मतों की संख्या लगभग आधी है। यह करीब 47 फीसदी बतायी जाती है। यूं तो मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दल महिलाओं के अधिकारों के लिये लंबे-चौड़े वायदे करते नजर आते हैं, लेकिन उनके संख्याबल के अनुपात में महिला उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारने से उन्हें सदैव परहेज रहता है। हालांकि, देर-सवेर इन स्थितियों में निश्चित रूप से बदलाव देखा जाएगा। राज्य के कई इलाकों में महिलाओं की जागरूकता व सक्रियता उम्मीद की किरण जगाती हैं। महिलाएं अब जल आपूर्ति, बिजली तथा रोजगार जैसे मुद्दों को लेकर अपनी चिंताएं प्रकट करने लगी हैं। साथ ही सार्वजनिक बैठकों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती नजर आ रही है। लेकिन इसके बावजूद हरियाणा में लैंगिक विभाजन की खाई को पाटने तथा समतामूलक समाज की स्थापना के लिये बहुत किया जाना अभी बाकी है। समाज को पितृसत्तात्मक संरचनाओं को खत्म करने के लिये सकारात्मक पहल करने की जरूरत है। उम्मीद करें कि खेलों खासकर पहलवानी में बढ़-चढ़कर प्रदर्शन करने वाली हरियाणा की बेटियों को वोट का अिधकार दिलाने में भी उत्साहजनक प्रयास किये जायेंगे।

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