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दाग का राग

06:32 AM Apr 04, 2024 IST
दाग का राग
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पिछले साढ़े सात दशक के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पराभव के अक्स गाहे-बगाहे उजागर होते रहते हैं। सत्ता के खेल जो विद्रूप न दिखा दें वो कम ही है। सत्ता केंद्रित राजनीति ने भ्रष्टाचार और पाक-साफ होने की अपनी-अपनी परिभाषा गढ़ ली है। कल तक विपक्ष में जो नेता दागदार होते थे, सतारूढ़ दल में शामिल होने के बाद कहा जाता है कि ये दाग अच्छे हैं। सफाई की इस कार्रवाई में निगरानी करने वाली संवैधानिक एजेंसियों की खामोशी भी विचलित करती है। ऐसे तमाम सवाल इस देश के नागरिकों को उद्वेलित करते रहते हैं कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि दागी नेता सत्ता की धारा में डुबकी लगाकर दूध का धुला घोषित हो जाता है। विपक्षी नेता आरोप लगाते रहे हैं कि सत्तारूढ़ दल को दाग धोने वाली वॉशिंग मशीन बना लिया गया है। जिसके चलते नियामक संस्थाओं से ड्राइक्लीनिंग की चिट हासिल हो जाती है। विपक्ष के ऐसे तमाम आरोपों की तार्किकता हाल में आई एक रिपोर्ट दर्शाती है। जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2014 के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच का सामना कर रहे 25 विपक्षी नेताओं के सत्तारूढ़ दल में शामिल होने के बाद उनमें से 23 को राहत मिल गई है। इनमें से तीन मामले बंद हो गए हैं और बीस की जांच रुकी हुई है। दलील दी जा रही है कि जांच बंद नहीं हुई है, आवश्यकता पड़ने पर कार्रवाई की जाएगी। यूं तो जब ये नेता विपक्ष में होते हैं और जांच एजेंसियां उन पर कार्रवाई करती हैं तो सत्तारूढ़ दल की दलील होती है कि कानून अपना काम करता है। जबकि विपक्षी नेताओं का आरोप रहता है कि यह प्रक्रिया तभी तक चलती है जब तक यह राजनीति से प्रेरित न हो। उल्लेखनीय है कि भाजपा में जो पच्चीस राजनेता शामिल हुए हैं उनमें सभी राजनीतिक दलों के नेता हैं। जिसमें कांग्रेस, राकांपा, शिवसेना, टीएमसी, टीडीपी, एसपी और वाईएसआर कांग्रेस के नेता शामिल हैं।
विडंबना है कि राजनीतिक निष्ठा बदलना इन नेताओं के लिये राहतकारी साबित हुआ है। वजह यह कि इन नेताओं से जुड़े बीस मामले ठंडे बस्ते में डाल दिये गए हैं। दलील यह दी जाती है कि मामले बंद नहीं हुए हैं, जरूरत पड़ी तो जांच और कार्रवाई भी होगी। जो विपक्ष के उन आरोपों की पुष्टि करते हैं कि यह कार्रवाई राजनीतिक दुराग्रह के रूप में की जाती रही है। यही वजह है कि दल बदलने का फैसला राहत का रास्ता मान लिया जाता है। ऐसे में आम आदमी के मन में सवाल उठना स्वाभाविक है कि अचानक जांच एजेंसियां निष्क्रिय क्यों हो जाती हैं? क्यों किसी एजेंसी को लेकर अदालत को कहना पड़ता है कि फलां एजेंसी पिंजरे में बंद तोता है और मालिक की बोली बोलता है। विपक्ष तो आरोप लगाता रहता है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से ईडी और सीबीआई ने मुख्यत: बड़े राजनेताओं के खिलाफ ही कार्रवाई की है। यही वजह है कि विपक्ष सत्ता पक्ष को ऐसी वॉशिंग मशीन की संज्ञा देता है जिसमें कथित दागों की धुलाई हो जाती है। तब उन्हें कानूनी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ता। ऐसा भी नहीं है कि तमाम ऐसी कार्रवाई सिर्फ केंद्र में राजग सरकार के दौरान ही हुई हो। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में सपा-बसपा के साथ संबंध सुधरने के बाद सीबीआई ने इन दलों के नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के मामलों में रुख बदल लिया था। इतना ही नहीं, विगत में सरकार बनाने और बहुमत जुटाने के लिये जो निष्ठा बदलने का खेल हुआ, उसके निहितार्थों में एजेंसियों की छाया महसूस होने की बात विपक्ष करता रहा है। यहां तक कि कई दलों के विभाजन के मूल में एजेंसियों की कार्रवाई के भय की भूमिका बतायी जाती रही है। दल-बदल के बाद उन पर चल रहे मामले या तो बंद हो गए या फिर ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। वहीं कई ऐसे मामले भी होते हैं जो खुले तो रहते हैं लेकिन उनमें कार्रवाई होती नजर नहीं आती। निश्चिय ही यह स्थिति किसी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये शुभ नहीं कही जा सकती।

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