दागदार खेवनहार
राजनीति में धनाढ्य लोगों, बाहुबलियों तथा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का सक्रिय होना, अब भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था का चरित्र बन चुका है। कहीं ज्यादा तो कहीं कम, उनकी उपस्थिति हर राज्य व केंद्र की राजनीति में नजर आती है। हाल ही में संपन्न हरियाणा विधानसभा के चुनावों के बाद आई एक रिपोर्ट ने इस मुद्दे को फिर विमर्श में ला दिया है। इस रिपोर्ट के अनुसार राज्य में चुने गए 96 फीसदी विधायक करोड़पति हैं। वैसे यह कहना कठिन है कि जनप्रतिनिधि नामांकन भरते समय कितनी ईमानदारी से अपनी सफेद कमाई को दर्शाते हैं। जबकि अश्वेत कमाई का तो कोई जिक्र ही नहीं होता। आर्थिक आंकड़ों से खेलने वाली एक पूरी बिरादरी स्याह को श्वेत बनाने के खेल में पारंगत होती है। फिर करोड़पति की कोई सीमा नहीं कि उसकी संपत्ति कितने करोड़ों में है। रिपोर्ट में दूसरी चौंकाने वाली बात यह है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में जीतने वाले माननीयों में 13 फीसदी का आपराधिक अतीत रहा है। इनमें से कई पर गंभीर अपराधों के लिये मुकदमें चल रहे हैं। यह मतदाताओं के लिये भी आत्ममंथन का समय है कि प्रत्याशी की हकीकत को जानते हुए भी उसे जिताने लायक वोट कैसे मिल जाते हैं। यूं तो जुबानी तौर पर हर बड़ा राजनीतिक दल लोकतंत्र में राजनीतिक शुचिता की वकालत करता नजर आता है, बड़ी-बातें दोहराता है। लेकिन हकीकत में स्थिति वही ‘ढाक के तीन पात।’ चुनाव आते ही ऐसी नकारात्मकता प्रत्याशी की जीत की गारंटी बन जाती है। जनता भी अब सुन-सुनकर थक चुकी है। उसे भी लगने लगा कि शायद यही विसंगति हमारी नियति बन गई है। वैसे राजनेताओं के साथ ही मतदाता भी इस राजनीतिक विद्रूपता के लिये कम जिम्मेदार नहीं है, जो छोटे-छोटे प्रलोभनों के लिये मतदान करते वक्त अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करता। दरअसल, आजादी के सात दशक बाद भी मतदाता को इतना विवेकशील बनाने की पहल राजनेताओं ने नहीं की कि वह अपने विवेक से राष्ट्रीय हितों को देखते हुए अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके।
बहरहाल, करोड़पतियों के जनप्रतिनिधि संस्थाओं में वर्चस्व का एक निष्कर्ष साफ है कि आम आदमी के लिये चुनाव लड़ना अब दूर की कौड़ी बन गई है। यह कथन अब किताबों तक सीमित रह गया है कि जनतंत्र जनता द्वारा , जनता का और जनता के लिये होता है। कहा जाता है कि आजादी के बाद पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में राजस्थान का एक विधायक ऐसा भी था, जिसके पास जयपुर जाकर शपथग्रहण समारोह में शामिल होने के लिये टिकट के पैसे तक नहीं थे। तब लोगों ने उनकी मदद की। बहरहाल, हमें स्वीकार करना होगा कि भले ही राजनीति में अब धनबल व बाहुबल अपरिहार्य हो, लेकिन इस स्थिति के लिये जनमानस भी कम जिम्मेदार नहीं है। हम सोचें कि क्षेत्रवाद,संप्रदायवाद, जातिवाद और छोटे-छोटे प्रलोभनों के लिये हम ऐसे प्रत्याशियों को जनप्रतिनिधि संस्थाओं में क्यों भेज देते हैं, जो वहां जाने लायक ही नहीं होते। हमें यह भी सोचना होगा कि मुफ्त की रेवडि़यों के अलावा चंद रुपयों व सुरा के लिये सुर बदलने वाले लोग कौन हैं? कहीं न कहीं यह हमारे सामाजिक मूल्यों के पराभव का प्रमाण भी है। जब कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा होने का गौरव रखते हैं, तो यही बड़प्पन हमारे लोकतांत्रिक व्यवहार में दिखायी देना चाहिए। हमें अपने बेशकीमती वोट के दायित्व का बोध भी होना चाहिए। उसकी गरिमा का भी ध्यान रखना चाहिए, ताकि हमारे लोकतंत्र पर दागी और धनाढ्य लोगों का वर्चस्व स्थापित न हो। हम ध्यान रखें कि जब करोड़पतियों के हाथ में सत्ता की बागडोर आती है तो उनकी संपत्ति अगले चुनाव तक दिन दूनी-रात चौगुनी गति से बढ़ती है। ऐसे जनप्रतिनिधियों का लक्ष्य अपने लिये ही नहीं बल्कि आने वाली सात पीढ़ियों के लिये धन-संपदा जुटाना होता है। जिसमें हमारी जरूरतों को पूरी करने वाली व्यवस्था के लिये आवंटित धन तथा अनैतिक तौर-तरीकों से जुटाया पैसा भी शामिल होता है। जो भ्रष्टाचार की अंतहीन शृंखला को जन्म देता है। दरकते पुलों, धंसती सड़कों, बीमार अस्पतालों तथा बदहाल शिक्षा व्यवस्था को भ्रष्टाचार की परिणति के रूप में देखा जा सकता है।