For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

अमेरिका पर दाग

01:21 PM Aug 19, 2021 IST
अमेरिका पर दाग
Advertisement

देश-दुनिया में हो रही आलोचनाओं का बचाव करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अफगानिस्तान के तुरत-फुरत तालिबान के कब्जे में आने के लिये अफगान सरकार व सेना को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लेकिन दुनिया महसूस कर रही है कि युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में दो दशक से फंसे अमेरिका ने अपना पिंड छुड़ाने को तीन करोड़ अफगानियों को क्रूर तालिबानियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। सवाल पूछा जा रहा है कि दो दशकों में एक ट्रिलियन डॉलर खर्च करने और तीन लाख अफगान सैनिकों को प्रशिक्षित करने के दावे के बावजूद क्यों तालिबानियों को काबुल यूं आसानी से सौंप दिया। यदि सेना व सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप थे तो ये अमेरिकी सेना की नाक के नीचे क्यों होने दिया गया? सवाल यह है कि बाइडेन प्रशासन ने जब ट्रंप सरकार द्वारा लिये गये सेना वापसी के फैसले को क्रियान्वित किया तो सेना निकासी कार्यक्रम को योजनाबद्ध ढंग से क्यों अंजाम नहीं दिया गया? क्यों वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था करके तालिबान को चरणबद्ध ढंग से लौटने को बाध्य नहीं किया गया। इस अप्रत्याशित घटनाक्रम ने फरवरी, 2020 में अमेरिका व तालिबान के बीच दोहा में हुए शांति समझौते पर भी सवालिया निशान लगा दिये हैं। आखिर जिस समझौते से स्थायी व व्यापक युद्धविराम तथा तालिबान व अफगान सरकार में वार्ता का मार्ग प्रशस्त होना था, वह हकीकत क्यों नहीं बन सका। अप्रैल में बाइडेन प्रशासन की सेना वापसी की घोषणा के बाद यह दांव उलटा क्यों पड़ गया। सवाल इस सारे प्रकरण में पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका को लेकर भी है, जिसको लेकर अमेरिका का रुख अनदेखी का ही रहा। भारत ने तालिबान को बढ़ावा देने में पाक की भूमिका के बाबत पिछले माह दिल्ली आये अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन को अवगत कराया था, लेकिन वे भारत की चिंताओं को दूर करने में विफल रहे। सही मायनों में अमेरिका को विश्व जनमत के सामने ईमानदारी से अपनी नाकामी स्वीकार करनी चाहिए।

Advertisement

अमेरिका में डेमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडेन के चुने जाने के बाद दुनिया में उम्मीद जगी थी कि विश्व में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना को गति मिलेगी। चीन की मनमानी के खिलाफ यूरोपीय यूनियन से एकजुटता व जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सक्रियता ने इस विश्वास को बढ़ाया था, लेकिन अफगानिस्तान के घटनाक्रम ने अमेरिका की नेतृत्वकारी भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिये हैं। कोरिया, वियतनाम, इराक के साथ अफगानिस्तान की नाकामी भी अमेरिकी इतिहास में दर्ज हो गई है। अफगानिस्तान का जनमानस भय व असुरक्षा के बीच जी रहा है। फिर देश बीस साल पुरानी स्थिति में जा पहुंचा है। दुनिया के तमाम देशों के वे लोग जो अफगानिस्तान के विकास के लिये पहुंचे थे, आज तालिबान के रहमोकरम पर हैं। सवाल उठाये जा रहे हैं कि जब तालिबान ने शांति समझौते का पालन नहीं किया तो अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने की जल्दबाजी क्या थी? इस बीच तालिबान ने हमले व बम धमाकों का क्रम जारी रखा तो क्यों उसे समझौते के पालन के लिये बाध्य नहीं किया गया। अमेरिका ने सख्ती क्यों नहीं दिखायी? बहरहाल, बाइडेन प्रशासन की जल्दबाजी से जहां पूरी दुनिया में अमेरिका को शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है, वहीं दुनिया आतंक की नई जमीन तैयार होने से आशंकित है। दरअसल, न तो अमेरिका व न ही संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो पाये हैं कि तालिबान के कब्जे में आये अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक मूल्यों व खासकर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा होगी। रणनीतिक तौर पर तालिबान मीठी-मीठी बातें कर रहा है लेकिन उसके अतीत को देखते हुए उस पर भरोसा करना कठिन है। अमेरिकी जल्दबाजी से आधुनिक हथियारों व वायुसेना पर तालिबान के कब्जे से आज वह दुनिया का सबसे शक्तिशाली आतंकी संगठन बन चुका है। यह कहना भी जल्दबाजी होगी कि तालिबान में कोई सर्वमान्य नेतृत्व विकसित हो पायेगा। इस बात की गारंटी कौन लेगा कि अफगानिस्तान की धरती से अलकायदा व आईएसआईएस का खात्मा हो चुका है। कल अफगानिस्तान यदि पाकिस्तान व अन्य देशों की मदद से आतंकियों का स्वर्ग बन जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी।

Advertisement

Advertisement
Tags :
Advertisement