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पतझड़ में बसंत

07:13 AM Aug 20, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
नजरिया बदलते ही अनचाही स्थितियां भी स्वाभाविक और जीवन के लिए अर्थपूर्ण बन जाती हैं- यह मैंने आज जाना...! मैं एकदम खिलंदड़े अंदाज में घर से निकल पड़ा था...
अप्रैल का पहला हफ्ता... खुला आसमान और हल्की-हल्की हवा... सड़क के दोनों तरफ झूमते गेहूं के खेत... मैं तड़के ही सिर्फ चाय पीकर घर से एक्टिवा लेकर निकल पड़ा था। इधर चार-पांच दिन से रबी की फसल पकाने वाली पछुवा हवा बह रही थी। यह अपने साथ सुबह-शाम की हल्की ठंड भी ले आती है। इसलिए चलते समय एक स्वेटर पहन लिया था। अभी मैं सात-आठ किलोमीटर का रास्ता तय कर चुका हूं, हवा की गति कुछ तेज हो गई है। इसी के साथ गेहूं की बालियों का खनक भरा संगीत फिजा में गूंजने लगा है और खेतों में खड़ी फसल किसानों की आगवानी में खुशी से झूमती जा रही है।
सामने प्राइमरी स्कूल, पारसपट्टी की इमारत दिखाई पड़ी। मेरे मन में एक हूक सी उठी-अभी चार रोज पहले यानि इकतीस मार्च तक मैं भी एक अपर प्राइमरी स्कूल का हेडमास्टर था! बीस साल पहले पारसपट्टी न्याय पंचायत का समन्वयक था, तब इसी स्कूल के एक कमरे में अपना दफ्तर लगाता था। समय बीत जाता है, यादें बाकी रह जातीं हैं... सड़क पर आने-जाने वालों में अकेला मैं ही था, जिसने स्वेटर पहन रखा था। इसबीच कई लोग मेरी तरफ देख चुके थे, हर बार मुझे स्वेटर को लेकर अटपटा लगता था।
अभी साढ़े सात बज चुके थे। धूप खूब खिल उठी थी। मैंने स्कूल के सामने एक्टिवा रोक दी और स्वेटर उतार कर डिक्की में रख दिया। तभी एक प्राइवेट बस रुकी, युवा अध्यापिका सुन्दर-सी बच्ची के साथ नीचे आईं और स्कूल गेट की तरफ बढ़ गईं... अप्रैल के महीने से यहां स्कूल सात बजे के हो जाते हैं, इस लिहाज से अध्यापिका जी आधे घंटे देर से पहुंची हैं। चेकिंग की चपेट में पड़ जातीं तो मामला रफा-दफा करने में चालीस हजार लग जाते... मेरा पहला वेतन तीन सौ रुपया था, अब शुरुआत चालीस हजार से होने लगी है। बेतहाशा पैसा बढ़ा है, उसी रेशिओ में करप्शन भी... महिलाएं नौकरीपेशा होती हैं, तब भी उनको घरेलू काम निपटाने ही पड़ते हैं। इसलिए अप्रैल में नए सिरे से एडजस्ट करने में चार-छह दिन लगने लाज़मी हैं... मन ही मन अध्यापिका को क्लीन चिट देते हुए मैं पाण्डेबाबा बाजार आ गया था।
पहले इधर आने पर सीधे मोतीलाल वर्मा के यहां जा बैठता था। यह रिटायर्ड टीचर और यारबाज़ आदमी थे। मिलने-जुलने वालों को देखते ही खुशी से झूम उठते थे। मगर पिछली सर्दियों में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। मैं उनके मकान के सामने वाली चाय की दुकान में बैठ गया। दुकानदार मुझे पहचाता था, लिहाजा दुआ-सलाम और हालचाल लेने की औपचारिकता के बाद चाय बनाने लगा। मैंने मोबाइल निकाल, शिवनारायण का नम्बर डायल किया। दो बार तो पूरी रिंग गई, फोन ही नहीं उठा। तीसरी बार फोन उठा- ‘हेलो...!’
‘आप कहां हैं? आज आप ने पाण्डेबाबा में मिलने को कहा था।’-मैंने पूछा।
‘भाई साहब, माफ करना। आज मुझे अचानक से बेटी के यहां जाना पड़ रहा है... मैं एकदम तैयार था, लेकिन कल रात बिटिया के ससुर जी नहीं रहे...’- गोस्वामी ने बताया।
दो-एक औपचारिक बातों के बाद मैंने फोन काट दिया। मुझे रामनाथ का ख्याल आया। यह भी हमारे साथ का अध्यापक था। साथ-साथ ट्रेनिंग हुई थी। उसकी उम्र ज्यादा थी, लिहाजा पहले सेवामुक्त हो गया था। घूमने-टहलने का शौकीन था और कई बार कह चुका था कि रिटायरमेंट के बाद पुराने दोस्तों से मिलने-जुलने का सिलसिला जमाया जाएगा। इस साल मेरा और शिवनारायण का इकतीस मार्च को रिटायरमेंट था, हम फरवरी के शुरू में मोतिगरपुर के सिटी रेस्टोरैंट में बैठे थे और सेवामुक्ति के बाद मस्ती काटने के लिए मित्रों के यहां जाने की चर्चा कर रहे थे तो वहीं बैठे रामनाथ ने कहा था- ‘भाई, हो सके तो मुझे भी खबर देना...।’
मैंने रामनाथ को फोन लगाया। रिंग जाती रही, फोन नहीं उठा। दोबारा डायल किया तो करीब-करीब आखिरी रिंग पर फोन उठ गया। कुछ कमजोर सी आवाज आई- ‘नमस्कार भाई साहब, कैसे हैं?’
‘नमस्ते भाई, मैं एकदम ठीक हूं। आप घर पर हों तो आ जाऊं, इंद्रजीत के यहां चला जाए।’ -मैंने पेशकश की। इंद्रजीत हम दोनों का अजीज था।
रामनाथ ने बताया- ‘मैं हूं तो घर पर ही, मगर मेरे घुटने का आपरेशन हुआ है। इसलिए अभी कुछ दिन कहीं आने-जाने पर रोक है। बाकी उनके यहां जाना तो जरूरी है...।’
‘ऐसा क्या हो गया घुटने में?’
‘आर्थराइटिस का मामला है।’-तिवारी ने बताया।
दुकानदार ने चाय का गिलास मेरे सामने रख दिया था। मैंने धीरे-धीरे चाय सिप की। दुकानदार को पैसे दिए और एक्टिवा स्टार्ट कर सीधे तिवारी के यहां चल पड़ा। बीमारी-आजारी की बात सुनकर भी किसी के यहां न पहुंचना ठीक नहीं ! पाण्डेबाबा से उनके गांव की दूरी कुल पांच किलोमीटर होगी। करीब पन्द्रह मिनट बाद मैं उनके यहां था। वह मुझे देखकर खुश हुआ। मेरे आने से परिवार के लोगों यानि उसके बेटा, भतीजा और पत्नी सब के चेहरे पर प्रसन्नता थी। हम देर तक पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग और अध्यापकीय जीवन की बात करते रहे। बीच में चाय-पानी भी हुआ। फिर बात उसके घुटने के आपरेशन पर आ टिकी... पैरों की गठिया की समस्या का तो पता था, लेकिन आपरेशन... रामनाथ ने खुद बताया- ‘अचानक घुटने जाम होने लगे, डॉक्टर ने कहा आपरेशन मस्ट है... और कोई चारा नहीं! यह सब बढ़ती उम्र की परेशानियां हैं... अब देखो न, इंद्रजीत की पत्नी कितनी एक्टिव रहती थीं? तगड़ी-तंदुरुस्त... अचानक एक झटके में...।’
‘उनको क्या हो गया?’ मैंने कुछ चौंककर पूछा।
‘आपको नहीं पता, परसों ब्रेन हेमरेज हुआ और सुलतानपुर पहुंचते-पहुंचते सांसें थम गईं। आप ने जब इंद्रजीत के यहां चलने को कहा तो मुझे लगा, इसी सिलसिले में जा रहे हैं।’ उसने स्पष्ट किया।
‘मैं तो ऐसे ही आपसदारी के मेल-मिलाप में जा रहा था। उनकी पत्नी वाले मामले की कोई जानकारी नहीं थी। खैर... अब मैं सीधे उनके यहां जाऊंगा, आपकी स्थिति से भी अवगत करा दूंगा...।’
‘वह सब ठीक है।’ रामनाथ ने मेरी बात काटते हुए कहा- ‘पहले आप भोजन कर लें। फिर जाएं... ग्यारह से ऊपर का समय हो रहा है...।’
मैं भोजन करने के बाद ही वहां से निकल सका। दियरा चौराहे पर पहुंचकर मैंने सेब और अंगूर खरीदे और फिर इंद्रजीत भाई के यहां पहुंच गया। वह बेहद दुखी थे। रोते हुए आदमी को अपनी चुहलबाजियों से हंसाने वाले इंद्रजीत आज खुद रो रहे थे। ज्यादा रोना इस बात का था कि मास्टराइन दवा-दुआ का अवसर दिए बिना कुल एक घंटे में पचास साल का सम्बन्ध तोड़ गईं। बच्चे अलग परेशान... श्राद्ध सम्बन्धी जो कर्मठ होते हैं, उसके आयोजन का उनको कोई अनुभव नहीं था। क्या करें, कैसे सपारें? गांव में अब पहले वाली सघन सामूहिकता नहीं बची है, अन्यथा ऐसे दुर्दिन में चार-छह मददगार हर समय मुस्तैद रहते थे। खैर... मैंने बच्चों को समझाया, इंद्रजीत को भी... ‘भाई, अब शोक मनाने को तो सारी जिन्दगी पड़ी है। अभी जो मौके की जिम्मेदारी है, इसे पूरा कराएं... बच्चे अकेले नहीं देख पाएंगे...।’
इंद्रजीत के यहां से करीब पांच बजे निकल पाया। सवेरे किस इरादे से निकला था... और क्या देखने को मिला? इससे मेरा मन बड़ा खिन्न था ...इसी मनःस्थिति में मैं अपनी एक्टिवा पर बैठा, गोमती पुल पार करने के बाद दियरा बाजार की तरफ निकल रहा था, तभी सतनाम मास्टर साहब दिखे। वही लंबा, मजबूत, काला शरीर और चमकती हुई बत्तीसी... हाथ जोड़कर स्कूटर के आगे आ गए। मैंने स्कूटर रोक दिया। उन्होंने कहा- ‘बहुत दिन बाद मिले। आइए भाई, दस मिनट हमारे यहां भी बैठ लें। एक गिलास जल ग्रहण करें..।’
मुझे प्यास भी लगी थी। वैसे तो मातम वाले घरों में भी पानी पिलाया जाता है, मगर इंद्रजीत के यहां सदमा ऐसा जबरदस्त था कि सब के सब बौखलाये हुए थे। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। सतनाम जी का घर सड़क के किनारे ही है। स्कूटर उनके दरवाजे के सामने खड़ी करके मैं फाइबर की एक कुर्सी पर बैठ गया। सतनाम ने एक स्टूल मेरे सामने रख दिया और खुद पलंग पर बैठ गए। कुछ देर बाद अन्दर से उनकी बहू पानी का जग, गिलास और एक कटोरी में गुड़ लाकर स्टूल पर रख गई। मैंने एक टुकड़ा गुड़ खाया और पूरी हौंक के साथ दो गिलास पानी पी गया। मास्टर साहब ने आवाज दी- ‘शुभावती...’
दस-ग्यारह साल की एक लड़की बाहर आई और उनके इशारे पर जग वगैरह अन्दर ले गई। दो-चार बातें करके मैं चलने के लिए उठने को हुआ तो उन्होंने रोक दिया- ‘चाय तैयार हो रही है, बस, दो मिनट लगेंगे।’
कुर्सी के पुस्त पर टेक लेकर मैं आराम की मुद्रा में बैठ गया। कुछ देर में शुभावती चाय ले आई। मैंने ध्यान दिया, गिलास में थोड़ी-थोड़ी ही चाय थी। बाकी क्या है कि गांव में गिलास आधे से ज्यादा भर के चाय देने का प्रचलन है, जिसे पीना भारी पड़ जाता है। सतनाम मास्टर ने एक गिलास मेरी तरफ बढ़ाया और दूसरा स्वयं ले लिये। चाय की एक चुस्की लेकर मैंने सतनाम की तरफ देखा- ‘बहुत अच्छी चाय है।’
वह संतुष्टि के भाव में मुस्कराए, फिर बोले- ‘आज इधर कैसे...?’
मैंने मन की सारी खिन्नता बेहिचक उनके सामने रख दी। पहले उन्होंने मुझे गहरी नजर से देखा, फिर गंभीर होकर बोले- ‘मास्टर साहब, आप का उद्देश्य ही गलत था। सेवानिवृत्ति के बाद जिन्दगी का पतझड़ शुरू होता है, इसमें शुरुआती जवानी के बसंत की खोज का क्या मतलब...? अब जो मिल सकता था, वही आप को मिला... वैसे इस उम्र में हम एक-दूसरे की खोज-खबर लेते रहें, आमने-सामने की मुलाकात हो या फिर मोबाइल की बातचीत... हम आपका, आप मेरा अकेलापन बांटें तो यह जीवन में बसंत लाने जैसा ही होगा... बस नजरिया बदलें...।’
मैंने कुछ नहीं कहा। धीरे-धीरे चाय की चुस्कियां लेता रहा। उनकी बात में असर था। चाय समाप्त हुई तो मास्टर जी से चलने की इजाजत मांगी। उन्होंने एक छोटी तश्तरी मेरे सामने कर दी, तश्तरी में पान मसाला के चार-पांच पाउच, सिगरेट का पैकिट, माचिस और थोड़ी सी इलायची-लौंग...! मैंने एक इलायची उठा ली और उसे छीलता हुआ स्कूटर की तरफ चलने लगा। वह साथ थे, कहने लगे- ‘मुझे रिटायर हुए पंद्रह साल हो चुके। अब मैं अकेले कहीं आने-जाने में असमर्थ हो गया हूं। जब भी इधर से गुजरें, दस-पांच मिनट का समय मेरे लिए भी निकालें। मुझे अच्छा लगेगा...।’
मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा और आंखों में झांकते हुए आश्वस्त किया- ‘अवश्य...।’
दियरा बाजार से आगे बढ़ने पर बागों में पक्षियों के चहकने का बेतहाशा कलरव था, यानी सुबह के निकले पक्षी घोंसले में लौट आए थे। दिन में हवा में तेजी थी, तो शाम सर्द होने लगी थी। मैंने स्कूटर रोक दिया और डिक्की से निकाल कर स्वेटर पहन लिया।
आज का दिन अनचाही स्थितियों के बीच गुजरा। इसका मलाल भी हुआ था, मगर सतनाम की बात से मन सहज हो रहा था।

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